28/08/2021
वर्ण जन्म से होता है, कर्म से वर्ण की रक्षा होती है ।
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
( श्रीमद्भगवद्गीता 4.13 )
पूर्वजन्मों में किये गये कर्मानुसार सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों में न्यूनाधिकता रहती है । सृष्टि-रचना के समय उन गुणों और कर्मों के अनुसार भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - इन चारों वर्णों की रचना करते हैं ।१
वर्ण और जाति में अभेद दिखाने हेतु मात्र एक-दो प्रमाणवाक्य रखता हूँ-
ब्राह्मणः क्षत्त्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः ।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः ॥
सर्ववर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्वक्षतयोनिषु ।
आनुलोम्येन सम्भूता जात्या ज्ञेयास्त एव हि ॥
( मनुस्मृति १०।४-५ )
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीन वर्ण द्विजाति ( मातृगर्भ से और यज्ञोपवीत से दो बार जन्म लेनेवाले ) हैं, चौथा वर्ण शूद्र तो एकजाति ( एकबार ही जन्मने वाला- यानी उपनयन से रहित ) है, पाँचवाँ नहीं ।
यदि तथाकथित लोग "गुणकर्मविभागश:" के स्वकल्पित अर्थ के अनुसार कर्मणा वर्णव्यवस्था सिद्ध करेंगे, तो किसी के जन्म के कितने वर्षों के बाद उसके गुण-कर्मों का परीक्षण निश्चित होगा और उसे किसी महाशय के द्वारा निर्धारित कोई अनिश्चित या अल्पकालिक वर्ण मिलेगा ? पुन: उससे पहले उसका क्या वर्ण माना जायगा ? वर्णनिर्धारण का ठेकेदार कौन होगा ? गुणकर्मानुसार कितने वर्षों में अमुक-अमुक वर्णों के सोलह संस्कारों का निर्णय किया जायगा ?
श्रीराम, श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिर आदि ज्ञानोपदेश में दक्ष होते हुए भी क्षत्रिय ही क्यों रह गये ? द्रोणाचार्य आदि महान् धनुर्धर योद्धा होते हुए भी क्षत्रिय क्यों नहीं हुए ? रावण आदि दुर्दान्त आततायी और भयंकर योद्धा होने पर भी क्षत्रिय क्यों नहीं कहाये ? विदुर और धर्मव्याध आदि धर्मशील सत्पात्र ब्राह्मण के रूप में क्यों नहीं प्रसिद्ध हो गये ? जो जन्मना जहाँ थे, गुण-कर्मानुसार वही सम्मानित हुए ।
श्रीमद्भगवद्गीता जन्म ( उत्पत्ति ) से ही जाति ( वर्ण ) मानती है । जो मनुष्य जिस वर्ण में जिस माता-पिता से पैदा हुआ है, उसी से उसकी जाति मानी जाती है । जैसे - शुक्लाजी की संतान के उपनाम ( Title ) में शुक्ला, सिंह में सिंह, अग्रवाल में अग्रवाल और वर्मा की संतान के उपनाम में वर्मा ही लिखा जाता है और उनकी जाति को भी समाज में वैसे ही स्वीकार किया जाता है । बिल्कुल ऐसे ही जाति अर्थात् वर्ण व्यवस्था जन्म से ही होती है ।
‘जनि प्रादुर्भावे’ धातु से ‘जाति’ शब्द बनता है, जो जन्म से जाति सिद्ध करता है । कर्म से तो ‘कृति’ शब्द बनता है, जो ‘डुकृञ् करणे’ धातु से बनता है । हाँ, जाति की पूर्ण रक्षा उसके कर्तव्य-कर्म से ही होती है । वैदिक यात्रा द्वारा वेदशास्त्रों का प्रामाणिक अवलोकन व विद्वत्जनों के चिंतन से यह सिद्ध होता है कि वर्ण जन्म से होता है, कर्म से वर्ण की रक्षा होती है ।
नोट: १सत्त्वगुण की प्रधानता से ‘ब्राह्मण’, रजोगुण की प्रधानता तथा सत्त्वगुण की गौणता से ‘क्षत्रिय’, रजोगुण की प्रधानता तथा तमोगुण गौणता से ‘वैश्य’ और तमोगुण की प्रधानता से ‘शूद्र’ की रचना की गयी है ।
जो हमे अनुशासित करे उस सनातन धर्म की जय हो 🚩🙏