Danvantri aushadhaley

Danvantri aushadhaley Ayurveda has eight ways to diagnose illness, called Nadi (pulse), Mootra (urine), Mala (stool), Jihv

औपनिवेशिक बेड़ियाँ और आयुर्वेद: आधुनिक भारत में अपनी ही जड़ों से संघर्षक्या यह विडंबना नहीं है कि स्वतंत्र भारत की स्वास्...
02/12/2025

औपनिवेशिक बेड़ियाँ और आयुर्वेद: आधुनिक भारत में अपनी ही जड़ों से संघर्ष

क्या यह विडंबना नहीं है कि स्वतंत्र भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली आज भी उन नियमों से संचालित हो रही है जो अंग्रेजों ने औपनिवेशिक काल में बनाए थे?
यह ऐतिहासिक बोझ दुनिया की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति "आयुर्वेद" पर आज भी भारी पड़ रहा है, जो वैदिक है, जिसका "मूल" अथर्ववेद में है।
यह सनातनी ज्ञान है।।
1964 से पहले की नीतियां, जो ब्रिटिश शासन की देन थीं, आज भी यह तय कर रही हैं कि हम आयुर्वेद को कैसे देखें और उपयोग करें।

यह उस राष्ट्र में आयुर्वेद की क्षमता का गला घोंटने जैसा है, जो दुनिया को 'समग्र कल्याण' (Holistic Wellness) का मार्ग दिखाता है।

महर्षि चरक और पतंजलि के जिस "जड़ी बूटी" के ज्ञान का लोहा दुनिया मानती है, उसे आज अपने ही देश में लेबल पर उस "जैविक औषधि" के 'चिकित्सीय लाभ' लिखने की अनुमति नहीं है।
यहाँ तक कि "100% शाकाहारी" या "जैविक" (Organic) जैसे शब्द, जो आयुर्वेद के मूल सिद्धांत हैं, उन्हें भी नौकरशाही की लालफीताशाही में उलझा दिया जाता है।
जबकि "अरबी संस्कृति के हलाल शब्द" का उपयोग कानूनी है।।
यह स्थिति हमारी स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों और शासन व्यवस्था के बीच एक गहरी खाई को दर्शाती है; एक ऐसी खाई जिसे औपनिवेशिक शासकों ने जानबूझकर खोदा था ताकि पश्चिमी चिकित्सा पद्धति को श्रेष्ठ साबित किया जा सके।

स्वास्थ्य नीति की औपनिवेशिक नींव ;

अंग्रेजों ने अपने पश्चिम-केंद्रित' (Westernize) अहंकार में आयुर्वेद को "अवैज्ञानिक" कहकर खारिज कर दिया था, वे भारत को सपेरों का देश कहते थे।

विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी हमने 'औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम (1940)' जैसे कानूनों को ज्यों का त्यों अपना लिया।
यह कानून आज भी आयुर्वेदिक उत्पादों को "दवा" मानने के बजाय "सप्लीमेंट्स" (पूरक) मानता है, जब तक कि वे एलोपैथी के पैमानों पर खरे न उतरें।
यह ठीक वैसा ही है जैसे किसी मछली की क्षमता को इस आधार पर आंकना कि वह पेड़ पर चढ़ सकती है या नहीं।
आयुर्वेद जड़ से इलाज करने और निवारक स्वास्थ्य (Preventive Health) पर जोर देता है, जबकि एलोपैथी केवल लक्षणों को दबाने पर।
दोनों बिल्कुल अलग विधा की चिकित्सा हैं।

भारतीय संस्थान आज भी 'रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड ट्रायल्स' (RCTs) मांगते हैं, जो रसायनों (एलोपैथी का आधार क्रूड ऑयल है) (Pharmaceuticals) के लिए तो ठीक हैं, लेकिन जैविक जड़ी-बूटियों के लिए यह पैमाना अनुचित है।
आयुर्वेद जैविक औषधि का ज्ञान है जो जलवायु और पारिस्थितिक तंत्र पर आधारित है, और एलोपैथी अजैविक "पेट्रोकेम" पर दोनों की जांच के स्टैंडर्ड एक से कैसे हो सकते हैं?
इसका परिणाम?
'जर्नल ऑफ एथनोफार्माकोलॉजी' (2021) का अध्ययन "अश्वगंधा" के गुणों की पुष्टि करता है, लेकिन हमारे भारतीय निर्माता इसे अपने उत्पाद पर लिख नहीं सकते।
छोटे किसान और वैद्य, जो पीढ़ियों से रसायन-मुक्त खेती कर रहे हैं, वे "जैविक" प्रमाणपत्र की महंगी प्रक्रिया में उलझकर रह जाते हैं और रासायनिक खेती वाले त्वरित लाभ लेते हैं, इससे आयुर्वेद का ह्रास होता है और सनातनी वैदिक ज्ञान असत्य सिद्ध होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व
भले ही प्रधानमंत्री और आयुष मंत्रालय आयुर्वेद को वैश्विक पटल पर लाने का प्रयास कर रहे हों, लेकिन धरातल पर पुराने कानून और अंग्रेजी सोच की वैज्ञानिक पद्धतियां इन प्रयासों को विफल कर रहे हैं।
क्या यह "मानसिक गुलामी" नहीं है?
त्रिफला जैसा साधारण और प्रभावी नुस्खा आज "पेट के रोगों की दवा" के रूप में नहीं, बल्कि केवल "वेलनेस प्रोडक्ट" के रूप में बेचा जा रहा है।
यह न केवल उपभोक्ता के विश्वास को कम करता है, बल्कि इस झूठ को भी हवा देता है कि आयुर्वेद में वैज्ञानिकता की कमी है।
सबसे बड़ी समस्या मानकीकरण (Standardization) की है।
आयुर्वेद का मूल मंत्र है कि हर व्यक्ति की 'प्रकृति' (Body type) अलग है, इसलिए इलाज भी अलग होगा। लेकिन हमारे कानून 'एक लाठी से सबको हांकने' (One-size-fits-all) की जिद पर अड़े हैं, जिससे आयुर्वेद केवल एक उत्पाद बनकर रह जाएगा, चिकित्सा नहीं।

सांस्कृतिक और धार्मिक संप्रभुता का प्रश्न

यह लड़ाई केवल नियमों की नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक संप्रभुता की है।
जब हमारे पारंपरिक वैद्यों को 'ग्रीन' या 'इको-फ्रेंडली' लिखने के लिए भी पश्चिमी मानकों वाले प्रमाणपत्र चाहिए होते हैं, तो यह मानसिक गुलामी का प्रतीक बन जाता है।
आज जब जर्मनी और स्विट्जरलैंड जैसे देश आयुर्वेद को अपना रहे हैं, और श्रीलंका व नेपाल अपनी पारंपरिक चिकित्सा का आक्रामक प्रचार कर रहे हैं, तब भारत अपनी ही फाइलों में उलझा हुआ है।
CII की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया की 20% औषधीय वनस्पति भारत में होने के बावजूद, वैश्विक बाजार में हमारी हिस्सेदारी 5% से भी कम है।
यह हमारी सोच का "बंध्यकरण" है, यह हमारे लिए इसलिए "शर्म" की बात होनी चाहिए, क्योंकि हमे यह समझ ही नहीं आता।

आगे की राह:

चिकित्सा का वि-औपनिवेशीकरण (Decolonizing Healthcare)
हमें आधुनिकता को नकारना नहीं है, बल्कि अपनी शर्तों पर उसे अपनाना है।
आयुष मंत्रालय और FSSAI को मिलकर ऐसे नियम बनाने होंगे जो आयुर्वेद की वैदिक और परंपरागत प्रकृति का सम्मान करें:
* लेबलिंग में सुधार: प्राचीन ग्रंथों पर आधुनिक शोधों को प्रमाण मानकर दावों को सहानुभूति के साथ देखा जाए।
* अनुसंधान: हमें एलोपैथी की तर्ज पर "क्लीनिकल ट्रायल" की आवश्यकता नहीं, हमारी औषधियां जैविक हैं ये क्रूड ऑयल से नहीं आती।
हमे भारतीय तरीके के शोध की आवश्यकता है जो आदिवासी औषधीय ज्ञान का भी सम्मान करे।
* शिक्षा:
नीति निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि आयुर्वेद केवल चूर्ण-चटनी नहीं, बल्कि "वैदिक विज्ञान" है।
'आत्मनिर्भर भारत' का नारा स्वास्थ्य क्षेत्र में तभी सार्थक होगा जब हम अपनी नीतियों को "औपनिवेशिक मानसिकता" के नियमों से मुक्त करेंगे।
आयुर्वेद अतीत का अवशेष नहीं, बल्कि भविष्य के स्वास्थ्य का समाधान है।
अब समय आ गया है कि भारत दुनिया का अनुसरण करने के बजाय नेतृत्व करे।

और अंत में: विजया पर हुए पश्चिम के हमले पर विचार करे और समझें यह क्यों हुआ कैसे हुआ और गोरों की कार्य पद्धति क्या है।
मानसिक गुलामी की जंजीरें टूटना शुरू हो जाएंगी।।

सचिन अवस्थी
लेखक: विश्व विजया फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं।
www.thevvf.org
#अलखनिरंजन
#स्वामी_सच्चिदानंदन_जी_महाराज
Ministry of Ayush | FSSAI | MoHFW | Narendra Modi

Reviving the sacred tradition of Vijaya through research, education, and cultural renaissance. Join the movement.

30/11/2025

च्यवनप्राश (हर मौसम में सेवनीय)
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30/11/2025

आयुर्वेद के अतीत को साकार करो
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खड़े-खड़े सर जोड़ा था
क्या आज उंगली जोड़कर दिखा सकते हो
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कोई भी व्यक्ति लाइलाज होकर न मरे
अतीत का यश गान और बगलें झांकना वर्तमान
यही बन गई है आयुर्वेद की पहचान
आयुर्वेद शब्द का मिट गया है नामो निशान
आयुष आयुष चिल्लाने में हम समझते हैं अपनी शान
अपने को डॉक्टर कहते हैं और करते हैं एलोपैथी की मांग
अब नहीं चलेगा यह नकली स्वांग
जब तक रोग बुढ़ापा और मृत्यु से नहीं मुक्त होगी समग्र मानवता
तब तक नहीं माने जाओगे तुम स्वास्थ्य के देवता
छोड़ो मान बढाई और आत्म प्रशंसा-------
******
मोबाइल

6395063320
एवं
9456404916
वैद्य मोहन बृजेश आयुर्वेदाचार्य

26/11/2025

आयु का वेद आयुर्वेद
**************
आयुर्वेद पर अब तक जितने भी प्रतिबंध लगाए गए हैं उन सबसेआयुर्वेद को पूर्ण रूप से
मुक्त किया जाए
तो
हम अपने अतीत को सरकार करके दिखा सकते हैं
*****
खड़े खड़े हमने दक्ष प्रजापति का शिर जोड़ा था
********
मानव मात्र
को अक्षय आयु का
साधक भोगी बना
सकते हैं
******
ना कोई आदमी बूढ़ा होगा ना बीमार होगा और ना मारेगा
****
आयुर्वेद के NABH स्तर के अंतरंग अस्पताल सरकार बनाये
******
समाज में बनाने और की पूरी सुख सुविधा नितांत मुफ्त रूप से उपलब्ध कराए
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तभी यह सब संभव हो सकेगा
******
इन अस्पतालों में आयुष्मान कार्ड और बीमा कंपनियों का पूरा-पूरा संबंध जोड़ा जाए
*****
तो वह दिन दूर नहीं कि हम संपूर्ण मानव समाज को रोग बुढ़ापा और मृत्यु से मुक्त करदेंगे
***********
मोबाइल नंबर 63950 63320 एवं 94564 04916 वैद्य मोहन बृजेश आयुर्वेदाचार्य

22/11/2025

हां कोई भी लाइलाज रोगी मुझसे किसी भी समय फोन पर बात करके निशुल्क परामर्श ले सकता है मेरे फोन नंबर हैं 63950 6 3320एवं
9456404916वैद्य मोहन बृजेश आयुर्वेदाचार्य

21/11/2025

विश्व आयुर्वेद परिषद के बढ़ते कदमों
को भारी मन से बधाई
********
हम कहते हैं
हमने खड़े-खड़े सर जोड़ा था
आज उंगली जोड़कर दिखा सकें
और दुनिया के लाइलाज रोगियों को ठीक कर सकें
तभी मेरा विश्व आयुर्वेद परिषद का देखा हुआ स्वप्न पूरा हो जाएगा
मेरे हिसाब से विद्या भारती की तरह NABH स्तर के
अंतरंग अस्पताल बनें इसके तीन ध्येय हों
1-शुद्ध औषधि एलोपैथी की तरह लैबोरेट्री टेस्टेड शत प्रतिशत सैंपलिंग के सहित
2-संशोधन शास्त्रीय पंचकर्म वमन विरेचन बस्ती शिरोविरेचन रक्त मोक्षण
3-संयम शास्त्रीय रोगीचार्य दिनचर्या भोजन आदि
न कि मोडर्न की नकल
*******
जहां मॉडर्न साइंस मरने के लिए छोड़ दे
ज्योतिष मार्केश बताए
उस समय हम रोगी को पूर्ण स्वस्थ कर जरा रुजा और मृत्यु से मुक्त कर सकें
और
अक्षय आयु का साधक भोगी बना सकें
****
तभी हमको आयुर्वेदाचार्य कहाने का अधिकार है
और हमने यदि कहा कि हमारे पास आयु एक पल की भी नहीं है तो हमें अपने को कहना चाहिए अआयुर्वेदाचार्य
*****
दुर्भाग्य
ना तो हम संघ में अखिल भारतीय बने हैं
ना संघ के अनुशांगिक संगठनों में हमारी गिनती होती है
ना हमारा कोई प्रतिनिधि अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में जाता है
ना संघ के एजेंडे में आयुर्वेद है
ना भारत की राष्ट्रीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद घोषित की जा रही है
ना हमारी कोई इस तरह की मांग है
आयुर्वेद शब्द खत्म हो गया है आयुष हो गया है जिसे देखकर हम फूले नहीं समाते हैं
ना कोई आयुर्वेद का विभाग है न मंत्री है
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और तो और जहां मैंने यह पूरा स्वप्न देखा था मेरा ही कहीं कोई नामो निशान नहीं है
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नए कर्ण धारों से यह आशा की जाती है
कि मेरी पीड़ा को ध्यान रखते हुए
कुछ मलहम लगाने का प्रयास करें
अलम्
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एवं
9456404916
वैद्य मोहन बृजेश आयुर्वेदाचार्य

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