23/05/2025
गर्मियों का लाजवाब तोफा- #छाछ
#दूध_और_मट्ठा_आयुर्वेदीय_मतानुसार
मट्ठा के भेद-सुश्रुत आदि ऋषि-मुनियों ने मट्ठा/तक्र के 4 भेद कहे हैं-
(1) तक्र
(2) घोल
3) मथित्त
4) उदश्चित ।
1. #तक्र/ #मट्ठा- जो दही चौथा भाग जल डालकर मथा जाता है, वह तक्र/मट्ठा कहलाता है। मट्ठा संग्रहणी रोग में अत्यन्त हितकर है।
2. #घोल- जो मलाई युक्त दही बिना जल के मथा जाता है, उसको घोल कहते हैं। 'घोल' वात-पित्तनाशक होता है।
3. #मथित- जो दही मलाई निकालकर, बिना जल के मथा जाता है, वह 'मथित' कहलाता है। 'मथित' कफ-पित्तनाशक होता है।
4. #उदश्चित- जो दही आधा जल डालकर मथा जाता है, वह 'उदश्चित' कहलाता है। 'उदश्चित' कफकारक, बलदायक, श्रमविनाशक और परम हितकारक है।
#तक्र ( #मट्ठे) #के_गुण
- मलरोधक, कसैला, खट्टा, मधुर, अग्निदीपन करने वाला, हल्का, उष्णवीर्य, बलकारक, वृष्य, तृप्तिकारक तथा वातनाशक होता है। तक्र ग्रहणी आदि रोगों में पथ्य है, हल्का होने के कारण मलरोधक है, अम्ल व सान्द्र होने के कारण वातविनाशक है। तत्काल का मथा हुआ तक्र दाहकारक नहीं होता है, पाक में मधुर होता है, किन्तु अन्त में पित्त को कुपित करता है। कसैला, उष्ण विकासी और रूखा होने के कारण तक्र कफ को भी दूर करता है।
जिसमें से सारा घी निकाल लिया गया हो, वह मट्ठा पथ्य और विशेषकर हल्का होता है। जिसमें से थोड़ा-सा घी निकाला गया हो, वह मट्ठा भारी, वीर्यवर्द्धक और कफनाशक होता है। जिसमें से कुछ भी घी न निकाला गया हो, वह मट्ठा भारी, गाढ़ा, पुष्टिकारक एवं बलवर्द्धक होता है।
#वात_रोग_में- खट्टे मट्ठे में सेंधा नमक डालकर सेवन करना उत्तम है। पित्त रोग में-खट्टा व मीठा मट्ठा मिश्री मिलाकर सेवन करना अच्छा है।
ोग_में- मट्ठे में जवाखारादि और त्रिकुटा के चूर्ण डालकर पीना अच्छा है।
#संग्रहणी_और_अतिसार_रोग_में "घोल" नामक मट्ठे में हींग, जीरा और सेंधा नमक मिलाकर सेवन करना चाहिए। यह घोल वातनाशक, रुचिकारक, पुष्टिप्रदायक, बलदायक तथा बस्ति (पेडू) को शान्त करने वाला है।
पीनस, श्वास व खाँसी आदि रोग में औटाया हुआ मट्ठा पीना चाहिए। कच्ची छाछ कोठे के कफ को दूर करती है, किन्तु कण्ठ में कफ उत्पन्न करती है। इसलिए पीनस व श्वास आदि रोगों में पकाई हुई छाछ सेवन करनी चाहिए।
#तक्र_की_प्रशंसा में "आयुर्वेद" में लिखा है कि-
"न तक्र सेवी व्यथते कदाचिन्न तक्र दग्धाः प्रभवन्ति रोगः।
यथा सुराणाममृतं सुखाय तथा नराणां भुवि तक्र माहुः॥"
अर्थात् तक्र सेवन करने वाला कभी रोगी नहीं होता है। तक्र सेवन से नष्ट हुए रोग पुनः कभी नहीं होते हैं। जिस प्रकार स्वर्ग में देवताओं के लिए अमृत सुखदायी है, उसी प्रकार पृथ्वी पर मनुष्यों के लिए मट्ठा हितकर है।
#तक्र_सेवन_निषेध- गर्मी के मौसम में घाव वाले रोगी के लिए, दुर्बलों को. मूर्च्छित को, भ्रम, दाह तथा रक्तपित्त से पीड़ित रोगियों को मट्ठा का सेवन निषेध है।
#गाय_का_दही- उत्तम, बलकारक, पाक में मधुर, पवित्र, अग्निदीपक, चिकना, पुष्टिकारक और वातनाशक होता है।
समस्त प्रकार के दहियों में #गाय_का_दही_उत्तम होता है। इसलिए गाय के दही का मट्ठा भी उत्तम होता है।
#भैंस_का_दही- कुछ चिकना, कफकारक, वात-पित्तनाशक, स्वादु, पाकी, अभिमन्दी, वृष्य और भारी होता है और रुधिर को दूषित करता है। भैंस के दही के भट्ठे में भी यही गुण होते हैं।
#बकरी_का_दही- उत्तम, मलरोधक, हल्का, त्रिदोषनाशक, अग्नि को दीपन करने वाला तथा श्वास, खाँसी, बवासीर, क्षय और कृशता-दुबलेपन में हितकर है। बकरी का दही श्रेष्ठ और ग्राही (काबिज) होने के कारण ग्रहणी रोग में अत्यन्त हितकर है।
#विभिन्न_रंगों_की_गाय_और_उनका_दूध
पीले रंग की गाय का दूध
वातनाशक होता है।
सफेद रंग की गाय का दूध कफनाशक होता है।
लाल रंग की गाय का दूध
पित्तरोग नाशक होता है।
काली रंग की गाय का दूध
त्रिदोषनाशक होता है।
रोगानुसार दूध का औटाना व जमाना
#वात_रोग_में- कच्चे दूध का सेवन हितकर है।
#पित्त_रोग_में- दूध को जरा औटाकर चूल्हे से उतार लेना चाहिए।
्रिदोष_रोग_में- दूध को ऐसा औटाना चाहिए कि लीटर का 375 मि०ली० रह, जाये यानी केवल 250 मि०लि० जले। औटाए हुए दूध को जरा-सी खटाई से जमा देना चाहिए, दही गाढ़ा जमाना चाहिए। तदुपरान्त जरा-सा जल डालकर
रई से मथकर घी निकाल लेना चाहिए।
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