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*श्रीसारस्वत पञ्चाङ्ग™----------®**👉पंचाग का पठन एवं श्रवण अति शुभ माना जाता है इसीलिए भगवान श्रीराम भी पंचांग का श्रवण ...
13/10/2025

*श्रीसारस्वत पञ्चाङ्ग™----------®*

*👉पंचाग का पठन एवं श्रवण अति शुभ माना जाता है इसीलिए भगवान श्रीराम भी पंचांग का श्रवण करते थे। पंचांग को नित्य पढ़ने और सुनने से देवताओं की कृपा, कुंडली के ग्रहो के शुभ फल मिलते है। इसलिए हर मनुष्य को जीवन में शुभ फल की प्राप्ति के लिए नित्य पंचांग को देखना और पढ़ना चाहिए।*

*🐚🌺📜आज का पञ्चाङ्ग📜🌺🐚*

🔅 आज का दिनाँक 13 अक्टूबर 2025
🔅 दिन - सोमवार
🔅 विक्रम संवत - 2082
🔅 शाकः संवत - 1947
🔅 संवत्सर नाम - सिद्धार्थी
🔅 अयन - दक्षिणायन
🔅 ऋतु - शरद
🔅 मास - कार्तिक
🔅 पक्ष - कृष्णपक्ष
🔅 तिथि - सप्तमी
🔅 नक्षत्र - आद्रा
🔅 योग - परिध
🔅 दिशाशूल - पूर्व दिशा मे
🔅 सूर्योदय - 06:36 मिनट पर
🔅 सूर्यास्त - 18:10 मिनट पर
🔅 चंद्रोदय - 22:38 मिनट पर
🔅 चंद्रास्त - 13:18 मिनट पर
🔅 राहुकाल - 08:03 - 09:29 अशुभ
🔅 अभिजित -12:02 -12:50 शुभ
🔅 तिथिविशेष - रवियोग , अहोई अष्टमी , राधा कुंड स्नान , कालाष्टमी
*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*--*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-***

*🔱⚜ भाग्योदय के लिए क्या करें⚜🔱*

*👉 अगर शत्रु से है परेशान तो करें महाविपरीत प्रत्यंगिरा मंत्र व स्तोत्र प्रयोग:-----*

*🌻शत्रु की की प्रबलतम क्रियाओं को निष्फल करने के साथ ही ग्रह, नक्षत्र, देवता, यक्ष, गंधर्व एवं राक्षसी वृत्ति से भी मुकाबले के लिए विपरीत प्रत्यंगिरा और महाविपरीत प्रत्यंगिरा अत्यंत सफल और कारगर होता है।*

*🌻इसका प्रयोग निष्फल नहीं जाता। इसकी साधना करने वालों को दुनिया में किसी का डर नहीं रह जाता है।*

*💐बेहतर होगा कि योग्य गुरु की देखरेख में ही इस साधना को पूरा किया जाए। अन्यथा कई बार अपना साधक का आसन मजबूत न होने से विभिन्न तरह की समस्याएं आने लगती हैं।*

*श्रीप्रत्यंगिरा_स्तोत्र!!*
*ऊँ अपराजितायै विदमहे,प्रत्यंगिरायै धीमहि तन्नो उग्रा प्रचोदयात्।*
*स्तोत्र के प्रतिदिन पाठ से सभी प्रकार के दोष शांत हो जाते हैं। जैसे नवग्रहदोष भूतप्रेतदोष किसी ने अगर कुछ किया हो तो वो भी दोष दूर हो जाता है-सभी प्रकार की बाधाएं शांत हो जाती हैं।*

*💐इस स्तोत्र का विशेष और शीघ्र फल प्राप्त करने के लिए इसका रात्रि काल में 10 दिनों तक 100 पाठ करें पश्चात नित्य 5 पाठ करने से सभी कामना पूर्ण हो जाती हैं।*

*🌻ॐ ह्रीं प्रत्यङ्गिरायै नमः।*
*प्रत्यङ्गिरे अग्निं स्तम्भय जलं स्तम्भय सर्वजीव स्तम्भय सर्वकृत्यां स्तम्भय सर्वरोग स्तम्भय सर्वजन स्तम्भय ऐं ह्रीं क्लीं प्रत्यङ्गिरे सकल मनोरथान साधय साधय देवी तुभ्यं नमः।*

*ॐ क्रीं ह्रीं महायोगिनी गौरी हुम् फट स्वाहा।*

*ॐ कृष्णवसन शतसहस्त्रकोटि वदन सिंहवाहिनी परमन्त्र परतन्त्र स्फोटनी सर्वदुष्टान् भक्षय भक्षय सर्वदेवानां बंध बंध विद्वेषय विद्वेषय ज्वालाजिह्वे महाबल पराक्रम प्रत्यङ्गिरे परविद्या छेदिनी परमन्त्र नाशिनी परयन्त्र भेदिनी ॐ छ्रों नमः।*

*प्रत्यङ्गिरे देवि परिपंथी विनाशिनी नमः।*
*सर्वगते सौम्ये रौद्रयै परचक्राऽपहारिणि नमस्ते चण्डिके चण्डी महामहिषमर्दिनी नमस्काली महाकाली शुम्भदैत्य विनाशिनी नमो ब्रह्मास्त्र देवेशि रक्ताजिन निवासिनी नमोऽमृते महालक्ष्मी संसारार्णवतारिणी निशुम्भदैत्य संहारी कात्यायनी कालान्तके नमोऽस्तुते।*

ॐ नमः कृष्णवक्त्र शोभिते सर्वजन वशंकरि सर्वजन कोपोद्रवहारिणि दुष्टराजसंघातहारिणि अनेकसिंह कोटिवाहन सहस्त्रवदने अष्टभुजयुते महाबल पराक्रमे अत्यद्भुतपरे चितेदेवी सर्वार्थसारे परकर्म विध्वंसिनी परमन्त्र तन्त्र चूर्ण प्रयोगादि कृते मारण वशीकरणोच्चाटन स्तम्भिनी आकर्षणि
अधिकर्षणि सर्वदेवग्रह सवित्रिग्रह भोगिनीग्रह दानवग्रह दैत्यग्रह ब्रह्मराक्षसग्रह सिद्धिग्रह सिद्धग्रह विद्याग्रह विद्याधरग्रह यक्षग्रह इन्द्रग्रह गन्धर्वग्रह नरग्रह किन्नरग्रह किम्पुरुषग्रह अष्टौरोगग्रह भूतग्रह प्रेतग्रह पिशाचग्रह भक्षग्रह आधिग्रह व्याधिग्रह अपस्मारग्रह सर्पग्रह चौरग्रह पाषाणग्रह चाण्डालग्रह निषूदिनी सर्वदेशशासिनि खड्गिनी ज्वालिनिजिह्वा करालवक्त्रे प्रत्यङ्गिरे मम समस्तारोग्यं कुरु कुरु श्रियं देहि पुत्रान् देहि आयुर्देहि आरोग्यं देहि सर्वसिद्धिं देहि राजद्वारे मार्गे परिवार माश्रिते मां पूज्य रक्ष रक्ष जप ध्यान रोमार्चनं कुरु कुरु स्वाहा।।

।।प्रत्यङ्गिरा स्तोत्र सम्पूर्णं।।

ध्यानं----

टंकं कपालं डमरूं त्रिशूलं, संबिभ्रती चंद्रकलावतंसा।
पिंगोर्ध्वकेशाासित भीमदंष्ट्रा, भूयाद् विभूत्यै मम भद्रकाली।।

इस मंत्र से माता का भक्तिपूर्वक ध्यान करें। इसके बाद निम्न मंत्रों से आगे की प्रक्रिया का पालन करें।

विनियोग-–

ऊं अस्य श्रीविपरीत प्रत्यंगिरास्तोत्रमंत्रस्य भैरव ऋषि:, अनुष्टुप-छंद:, श्रीविपरीत प्रत्यंगिरा देवता, हं बीजं, ह्रीं शक्ति:, क्लीं क्लीकं, ममाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे पाठे च विनियोग:।

करंगन्यास--

ऊं ऐं अंगुष्ठाभ्यां नम:। ऊं ह्रीं तर्जनीभ्यां नम:। ऊं श्रीं मध्यमाभ्यां नम:। ऊं प्रत्यंगिरे अनामिकाभ्यां नम:। ऊं मां रक्ष रक्ष कनिष्ठिकाभ्यां नम:। ऊं मम शत्रून् भंजय भंजय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:।

हृदयादिन्यास:----

ऊं ऐं हृदयाय नम:। ऊं ह्रीं शिरसे स्वाहा। ऊं श्रीं शिखायै वषट्। ऊं प्रत्यंगिरे कवचाय हुम्। ऊं मां रक्ष रक्ष नेत्रत्रयाय वौषट्।। ऊं मम शत्रून भंजय भंजय अस्त्राय फट्।

दिग्बंध:---

ऊं भूर्भुव: स्व:। इति दिग्बंध:। (सभी दिशाओं में चुटकी बजाएं।)

लघु मंत्र----------

ऊं ऐं ह्रीं श्रीं प्रत्यंगिरे मां रक्ष रक्ष मम शत्रून् भंजय भंजय फे हूं फट स्वाहा। (108 बार प्रतिदिन जप करें। यदि शत्रु प्रबल हो तो एक बार में 16 हजार मंत्र के जप का संकल्प लेकर दसवें हिस्से का हवन करें। हवन में कालीमिर्च, लावा, सरसो, नमक और घी की समान मात्रा हो।)

ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं कुं कुं कुं मां सां खां चां लां क्षां ऊं ह्रीं ह्रीं ऊं ऊं ह्रीं वां धां मां सां रक्षां कुरू। ऊं ह्रीं ह्रीं ऊं स: हुं ऊं क्षौं वां लां धां मां सां रक्षां कुरू। ऊं ऊं हुं प्लुं रक्षां करू।
ऊं नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै विद्याराज्ञि त्रैलोक्यवशंकरि तुष्टि पुष्टि करि सर्वपीडापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वाशास्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा परमंत्र तंत्र यंत्र विषचूर्ण सर्व प्रयोगादीनन्येषां निर्वर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेेस्तु कलिपातिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति
मनसा वाचा कर्मणा ये देवाासुर राक्षसास्तिर्यग्योनिसर्वहिंसका विरूपकं कुर्वन्ति मम मंत्र तंत्र यंत्र विष चूर्ण सर्व प्रयोगादीनात्महस्तेन य: करोति करिष्यति कारिष्यति तान् सर्वानन्येषां निर्वर्तयित्वा पातय कारय मस्तके स्वाहा।

गुरु मंत्र-------

ऊं हुं स्फारय स्फारय मारय मारय शत्रुवर्गान् नाशय नाशय स्वाहा। (सौ बार जप करें। मारण के लिए सफेद सरसों का प्रयोग करें)

विनियोग-----

ऊं अस्य श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरास्तोत्र मंत्रस्य महाकालभैरवऋषि: स्त्रिष्टुप् छन्द:, श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा देवता, हं बीजं, ह्रीं शक्ति:, क्लीं कीलकं, मम सर्वार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोग:/परमंत्र, परयंत्र, परकृत्याछेदनार्थे, सर्वशत्रु क्षयार्थे विनियोग:।

माला मंत्र-------------

ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै सहस्रानेककार्यलोचनायै कोटि विद्युज्जिह्वायै महाव्यापिन्यै संहाररूपायै जन्मशांति कारिण्यै मम सपरिवारकस्य भावि भूत भवच्छत्रु दाराप्रत्यान् संहारय संहारय महाप्रभावं दर्शय दर्शय हिलि हिलि किलि किलि मिलि मिलि चिलि चिलि भूरि भूरि विद्युज्जिह्वे ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ध्वंसय ध्वंसय प्रध्वंसय प्रध्वंसय ग्रासय ग्रासय पिब पिब नाशय नाशय त्रासय त्रासय वित्रासय वित्रासय मारय मारय विमारय विमारय भ्रामय भ्रामय विभ्रामय विभ्रामय द्रावय द्रावय विद्रावय विद्रावय हूं हूं फट् स्वाहा। हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं विपरीतप्रत्यंगिरे हूं लं ह्रीं लं क्लीं लं ऊं लं फट फट स्वाहा।

हूं लं ह्रीं क्लीं ऊं विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपिरवारकस्य यावच्छत्रून् देवता पितृ पिशाच नाग गरुड किन्नर विद्याधर गंधर्व यक्ष राक्षस लोकपालान् ग्रह भूत नर लोकान् समन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् पाणौ धिन्धि छिन्धि भिन्धि भिन्धि निकृन्तय निकृन्तय छेदय छेदय उच्चाटय उच्चाटय मारय मारय तेषां साहंकारादि धर्मान् कीलय कीलय घातय घातय नाशय नाशय विपरीतप्रत्यंगिरे स्फ्रें स्फ्रेत्कारिणी ऊं ऊं जं ऊं ऊं जं ऊं ऊं जं ऊं ऊं जं ऊं ऊं जं ऊं ठ: ऊं ठ: ऊं ठ: ऊं ठ: ऊं ठ: मम सपरिवारकस्य शत्रूणां सर्वा: विद्या: स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय हस्तौ स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय मुखं स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय नेत्राणि स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय दंतान् स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय जिह्वां स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय पादौ स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय गुह्यं स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय सकुटुम्बानां स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय स्थानं स्तंभय स्तंभय नाशय नाशय सं प्राणान् कीलय कीलय नाशय नाशय हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्री ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं फट् फट् स्वाहा।
मम सपरिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु फट् फट् स्वाहा। ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ऐं ह्रूं ह्रीं क्लीं हूं सों विपरीतप्रत्यंगिरे! मम सपरिवारकस्य भूत भविष्य च्छत्रूणामुच्चाटनं कुरु कुरु हूं हूं फट् स्वाहा।

ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं नमो भगवति विपरीतप्रत्यंगिरे दुष्ट चांडालिनी त्रिशूल वज्रांकुश शक्ति शूल धनु: शर पाशधारिणी शत्रुरुधिर चर्म मेदो मांसाास्थि मज्जा शुक्र मेहन वसा वाक् प्राण मस्तक हेत्वादिभक्षिणी परब्रह्मशिवे ज्वालादायिनी मालिनी शत्रूच्चाटन मारण क्षोभन स्तंभन मोहन द्रावण जृम्भण भ्रामण रौद्रण संतापन यंत्र मंत्र तंत्रान्तर्याग पुरश्चरण भूतशुद्धि पूजाफल परमनिर्वाण हारण कारिणि कपालखट्वांग परशुधारिणि मम सपरिवारकस्य भूतभविष्यच्छत्रून् स-सहायान् सवाहनान् हन हन रण रण दह दह दम दम धम धम पच पच मथ मथ लंघय लंघय खादय खादय चर्वय चर्वय व्यथय व्यथय ज्वरय ज्वरय मूकान् कुरु कुरु ज्ञानं हर हर हूं हूं फट् फट् स्वाहा।

ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं विपरीतप्रत्यंगिरे ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं फट् स्वाहा।

मम सपिरवारकस्य कृतमंत्र यंत्र तंत्र हवन कृतौषध विषचूर्ण शस्त्राद्यभिचार सर्वोपद्रवादिकं येन कृतं कारितं कुरुते करिष्यति वा तान् सर्वान् हन हन स्फारय स्फारय सर्वतो रक्षां कुरु कुरु हूं हूं फट् फट् स्वाहा।

हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ओं ओं ओं ओं ओं ओं ओं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं फट् फट् स्वाहा।

ऊं हूं ह्रीं क्लीं ऊं अं विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य शत्रव: कुर्वन्ति करिष्यन्ति शत्रुश्च कारयामास कारयन्ति कारयिष्यन्ति याान्यायं कृत्यान्तै: सार्धं तांस्तां विपरीतां कुरु कुरु नाशय नाशय मारय मारय श्मशानस्थानं कुरु कुरु कृत्यादिकां क्रियां भावि भूत भवच्छत्रूणां यावत्कृत्यादिकां क्रियां विपरीतां कुरु कुरु तान् डाकिनीमुखे हारय हारय भीषय भीषय त्रासय त्रासय परम शमनरूपेण हन हन धर्मावच्छिन्न निर्वाणं हर हर तेषाम् इष्टदेवानां शासय शासय क्षोभय क्षोभय प्राणादि मनोबुद्ध्य हंकार क्षुत्तृष्णा कर्षण लयन आवागमन मरणादिकं नाशय नाशय हूं हूं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं फट् फट् स्वाहा।

क्षं लं हं सं षं शं वं लं रं यं मं भं बं फं पं नं धं दं थं तं णं ढं डं ठं टं ञं झं जं छं चं ङं घं गं खं कं अ: अं औं ओं ऐं एं लृंृ लृं ऋृं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं विपरीतप्रत्यंगिरे हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं फट् स्वाहा।

क्षं लं हं सं षं शं वं लं रं यं मं भं बं फं पं नं धं दं थं तं णं ढं डं ठं टं ञं झं जं छं चं ङं घं गं खं कं अ: अं औं ओं ऐं एं लृंृ लृं ऋृं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं फट् स्वाहा।

अ: अं औं ओं ऐं एं लृंृ लृं ऋृं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं ङं घं गं खं कं ञं झं जं छं चं णं ढं डं ठं टं नं धं दं थं तं मं भं बं फं पं क्षं लं हं सं षं शं वं लं रं यं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं मम सपरिवारकस्य स्थाने शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु तेषां तंत्र मंत्र तंत्रार्चन शमशानरोहण भूमिस्थापन भस्म प्रक्षेपण पुरश्चरण होमाभिषेकादिकान् कृत्यान् दूरी कुरु कुरु हूं विपरीतप्रत्यंगिरे मां सपरिवारकं सर्वत: सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूं ह्रीं फट् स्वाहा।

अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लृंृ एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं हूं ह्रीं क्लीं ऊं विपरीतप्रत्यंगिरे हूं ह्रीं क्लीं ऊं फट् स्वाहा।
ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं ऊं क्लीं ह्रीं श्रीं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लृंृ एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य शत्रूणां विपरीतक्रियां नाशय नाशय त्रुटिं कुरु कुरु तेषामिष्टदेवतादि विनाशं कुरु कुरु सिद्धम् अपनय अपनय विपरीतप्रत्यंगिरे शत्रुमर्दिनि भयंकरि नाना कृत्यामर्दिनि ज्वालिनि महाघोरतरे त्रिभुवन भयंकरि शत्रुभ्य: मम सपरिवारकस्य चक्षु: श्रोत्राणि पादौ सर्वत: सर्वेभ्य: सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।

श्रीं ह्रीं ऐं ऊं वसुंधरे मम सपरिवारकस्य स्थानं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं महालक्ष्मि मम सपरिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं चंडिके मम सपरिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं चामुंडे मम सपरिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं इंद्राणी मम सपरिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं नारसिंहि मम सपरिवारकस्य बाहूं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं वाराहि मम सपरिवारकस्य हृद्यं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं वैष्णवि मम सपरिवारकस्य कंठं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं कौमारि मम सपरिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं माहेश्वरि मम सपरिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। श्रीं ह्रीं ऐं ऊं ब्रह्माणि मम सपरिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा। हूं ह्रीं क्लीं ऊं विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य छिद्रं सर्वगात्राणि रक्ष रक्ष हूं फट् स्वाहा।

ऊं संतापिनि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् संतापय संतापय हूं फट् स्वाहा। ऊं संहारिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् संहारय संहारय हूं फट् स्वाहा। ऊं रौद्रि
स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् रौद्रय रौद्रय हूं फट् स्वाहा। ऊं भ्रामिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् भ्रामय भ्रामय हूं फट् स्वाहा। ऊं जृम्भिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् जृम्भय जृम्भय हूं फट् स्वाहा। ऊं द्राविणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् द्रावय द्रावय हूं फट् स्वाहा। ऊं क्षोभिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् क्षोभय क्षोभय हूं फट् स्वाहा। ऊं मोहिनि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् मोहय मोहय हूं फट् स्वाहा। ऊं स्तंभिनि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रून् स्तंभय स्तंभय हूं फट् स्वाहा।

ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लृंृ एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं विपरीत परब्रह्म महाप्रत्यंगिरे ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं ऊं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं लृंृ एं ऐं ओं औं अं अ: कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं मम सपरिवारकस्य सर्वेभ्य: सर्वत: सर्वदा रक्षां कुरु कुरु मरण भयापन पापनय त्रिजगतां पररूपवित्तायुर्मे सपरिवारकाय देहि देहि दापय साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि विश्वरूपे धनं पुत्रान् देहि देहि मां सपरिवारकस्य मां पश्येत्तु देहिन: सर्वे हिंसका: प्रलयं यान्तु मम सपरिवारकस्य शत्रूणां बलबुद्धिहानिं कुरु कुरु तान् स-सहायान स्वेष्टदेवतान् संहारय संहारय स्वाचारमपनयाापनय ब्रह्मास्त्रादीनि व्यर्थीकुरु हूं हूं स्फ्रें स्फ्रें ठ: ठ: फट् फट् ऊंll

आप सभी को मेरी शुभकामनाएं साधना करें साधनामय बनें......

साधको को सूचित किया जाता हैं की हर चीज की अपनी एक सीमा होती हैं , इसलिए किसी भी साधना का प्रयोग उसकी सीमा में ही रहकर करे , और मानव होकर मानवता की सेवा करे अपने जीवन को उच्च स्तर पर ले जाएँ ,.
विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्र:-

वर्तमान कलियुग में नानाप्रकार के तापों से जातकों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।
जातकों के मन में हमेशा अशांति का वातावरण छाया रहता है आखिर वह क्या करे जिससे मन को शांति तो मिले ही साथ ही यश, वैभव, कीर्ति, शत्रुओं से छुटकारा, ऋण से मुक्ति और ऊपरी बांधाओं से मुक्ति।
प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मां भद्रकाली, दक्षिणकाली या महाकाली की घनघोर तपस्या कर जातकों को इन सभी वस्तुओं से छुटाकर कीर्ति की पताका लहराई थी। बहुत कम जातक जानते होंगे मां प्रत्यंगिरा के बारे में, मां प्रत्यंगिरा का भद्रकाली या महाकाली का ही विराट रूप है।
मां प्रत्यंगिरा की गुप्तरूप से की गई आराधना, जप से अच्छों-अच्छों के झक्के छूट जाते हैं। कितना ही बड़ा काम क्यों न हो अथवा कितना बड़ा शत्रु ही क्यों न हो, सभी का मां चुटकियों में शमन कर देती हैं। आप भी मां प्रत्यंगिरा की सच्चे मन से साधना-आराधना-जप करके यश, वैभव, कीर्ति प्राप्त कर सकते हैं। स्तोत्रम प्रारंभ करने से पूर्व प्रथम पूज्य श्रीगणेश, भगवान शंकर-पार्वती, गुरुदेव, मां सरस्वती, गायत्रीदेवी, भगवान सूर्यदेव, इष्टदेव, कुलदेव तथा कुलदेवी का ध्यान अवश्य कर लें।
यह स्तोत्र रात्रि १० बजे से २ के मध्य किया जाए तो तत्काल फल देता है।

श्री प्रत्यंगिरायै नम:
अथ विनियोग

ऊँ ऐं अंगुष्ठाभ्यां नम:।
ऊँ हृी तर्जनीभ्यां नम:।
ऊँ श्री मध्यमाभ्यां नम:।
ऊँ प्रत्यंगिरे अनामिकाभ्यां नम:। ऊँ मां रक्ष कनिष्ठिकाभ्यां नम:।
ऊँ मम शत्रून्भञ्जय करतल कर पृष्ठाभ्यां नम: एवं हृदयादिन्यास:।
ऊँ भूर्भुव: स्व: इति दिग्बन्ध।

*मूल मन्त्र:-*

।।ऊँ ऐं हृीं श्रीं प्रत्यंगिरे मां रक्ष रक्ष मम।शत्रून्भञ्जय भन्ञ्जय फे हुँ फट् स्वाहा।।

।।विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्रम्।।

अष्टोत्तरशतञ्चास्य जपं चैव प्रकीर्तितम्।
ऋषिस्तु भैरवो नाम छन्दोह्यनुष्टुप प्रकीर्तितम्।।
देवता दैशिका रक्ता वाम प्रत्यंगिरेति च।।
पूर्वबीजै: षडं्गानि कल्पयेत्साधकोत्तम:।
सर्वदृष्टोपचारैश्च ध्यायेत्प्रत्यंगिरां शुभां।।
टंकं कपालं डमरुं त्रिशूलं सम्भ्रिती चन्द्रकलावतंसा।
पिंगोध्र्वकेशाह्यसितभीमद्रंष्ट्रां भूयाद्विभूत्यै मम भद्रकाली।।
एवं ध्यात्वा जपेन्मंत्रमेकविंशतिवासरान्।
शत्रूणां नाशनं ह्येतत्प्रकाशोह्ययं सुनिश्चय:।।
अष्टम्यामर्धरात्रे तु शरदकाले महानिशि।
आधारिता चेच्छ्रीकाली तत्क्षणात् सिद्धिदानृणाम्।।
सर्वोपचारसम्पन्ना वस्त्ररत्नकलादिभि:।
पुष्पैश्च कृष्णवर्णैश्च साध्येत्कालिकां वराम्।।
वर्षादूध्र्वमजम्ममेषम्मृदं वाथ यथाविधि।
दद्यात् पूर्वं महेशानि ततश्च जपमाचरेत्।।
एकाहात् सिद्धिदा काली सत्यं सत्यं न संशय:।
मूलमन्त्रेण रात्रौ च होमं कुर्यात् समाहित:।।
मरीचलाजालवणैस्सार्षपैर्मरणं भवेत।
महाजनपदे चैव न भयं विद्यते क्वचित्।।
प्रेतपिण्डं समादाय गोलकं कारयेत्तत:।
मध्ये वामांकितं कृत्वा शत्रुरूपांश्च पुत्तलीन्।।
जीवं तत्र विधायैव चिताग्नौ जुहुयात्तत:।
तत्रायुतं जपं कुर्यात् त्रिराद्यं मारणं रिपो:।।
महाज्वाला भवेत्तस्य तद्वत्ताशलाकया।
गुदद्वारे प्रदद्यच्च सप्ताहान्मारणं रिपो:।।
प्रत्यंंगिरा मया प्रोक्ता पठिता पाठिता नरै:।
लिखित्वा च करे कण्ठे बाहौ शिरसि धारयेत्।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो नाल्पमृत्यु: कथंचन।
ग्रहा: ऋक्षास्तथा सिंहा भूता यक्षाश्च राक्षसा:।।
तस्या पीड़ां न कुर्वन्ति दिवि भुव्यन्तरिक्षगा:।
चतुष्पदेषु दुर्गेषु वनेषूपवनेषू च।।
श्मशाने दुर्गमे घोरे संग्रामे। शत्रुसंकटे।।
ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ कुं कुं कुं मां सां खां पां लां क्षां ऊँ हृीं हृीं ऊँ ऊँ हृीं बां धां मां सां रक्षां कुरु। ऊँ हृीं हृीं ऊँ स: हुँ ऊँ ऊँ क्षौं वां लां धां मां सां रक्षां कुरु।
ऊँ ऊँ हुँ पुलं रक्षां कुरु।
ऊँ नमो विपरीतप्रत्यंगिरायै विद्यराज्ञि त्रैलोक्यवशंकरि तुष्टिपुष्टिकरि सर्वपीड़ापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वशस्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा।
परमतन्त्रमन्त्रयन्त्रविषचूर्ण-सर्वप्रयोगादीन्येषां निवर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेह्यतु कलिपातिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति मनसा वाचा कर्मणा ये देवासुरराक्षसास्तियग्योनि-सर्वहिंसका विरूपकं कुर्वन्ति मम मन्त्रतन्त्रयन्त्रविषचूर्ण-सर्वप्रयोगादीनात्महस्तेन य: करोति करिष्यति कारयिष्यति तान् सर्वानन्येषां निवर्तयित्वा पातय कारय मस्तके स्वाहा।।।
इति श्री विपरीत प्रत्यिंगरा सम्पूर्णम्।।

*वगला प्रत्यंगिरा दिग्बन्धन:-*

ॐ ऐं ह्लीं श्रीं श्यामा माम् पूर्वतः पातु,ॐ ऐं ह्लीं श्रीं आग्नेयां पातु तारिणी।।
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं महाविद्या दक्षिणे पातु,ॐ ऐं ह्लीं श्रीं नैऋत्यां षोडशी तथा।।
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं भुवनेशी पश्चिमायाम,ॐ ऐं ह्लीं श्रीं वायव्यां बगलामुखी।।
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं उत्तरे छिन्नमस्ता च,
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं ऐश्यान्याम धूमावती तथा।।
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं उर्ध्व तु, कमला पातुॐ ऐं ह्लीं श्रीं अन्तरिक्षं सर्वदेवताः।।
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं अधस्ताच्चैव मातंगी
ॐ ऐं ह्लीं श्रीं सर्वदिङ्गबगलामुखी।

।।इति दिग बंधन।।
विपरीत_प्रत्यंगिरा_साधना◆

●मनुष्य का जीवन लगातार विविध संघर्षों के बीच बीतता है संघर्ष कई प्रकार के होते हैं और समस्याएं भी कई प्रकार की होती हैं । कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं जब व्यक्ति समस्याओं और बाधाओं के बीच बुरी तरह से घिर जाता है और उसे आगे बढ़ने के लिए कोई मार्ग दिखाई नहीं देता है।
●साधना के क्षेत्र में वह सर्वश्रेष्ठ साधना जो ऐसी विपरीत परिस्थिति में साधक को चक्रव्यू से निकालकर विजयी बनाती है वह साधना है प्रत्यंगिरा साधना ।
प्रत्यंगिरा साधना बेहद उग्र साधना होती है और इस साधना की काट केवल वही व्यक्ति कर सकता है जिसने स्वयं प्रत्यंगिरा साधना कर रखी हो ।

◆महा विपरीत प्रत्यंगिरा

महा विपरीत प्रत्यंगिरा एक ऐसी साधना है जो हर प्रकार के तंत्र प्रयोग को वापस लौटाने में सक्षम है और विपरीत प्रत्यंगिरा के द्वारा लौटाई गई तांत्रिक शक्तियां गलत कर्म करने वाले साधक को उचित दंड अवश्य देती है

शिव प्रत्यंगिरा
काली प्रत्यंगिरा

विष्णु प्रत्यंगिरा

गणेश प्रत्यंगिरा

नरसिंह प्रत्यंगिरा

सहित विभिन्न दैवीय शक्तियों की प्रत्यंगिरा विद्याएं हैं जो आप सक्षम गुरु से प्राप्त करके साधना को संपन्न कर सकते हैं ।

यहां विशेष रूप से ध्यान रखने योग्य बात यह है की प्रत्यंगिरा साधना बेहद उग्र साधना में गिनी जाती है, इसलिए छोटे बच्चे , बालिकाएं , महिलाएं और कमजोर मानसिक स्थिति वाले पुरुष तथा साधक साधना को गुरु के सानिध्य में उनकी अनुमति से ही संपन्न करें ।

💕💕ॐशिवगोरक्षॐ 💕💕

माता प्रत्यंगिरा के, स्तोत्र, कवच, अष्टोत्तरशतनाम का पाठ, ग्रहबाधा, शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म ( जो उसी पर वापस चला जाता है), राजकिय बाधा, रोगबाधा, कोई भी तंत्र, कालाजादू (टूणा), खोया पद,पारिवारिक क्लेश आदि समाप्त करने हेतु निम्न पाठ माता की तस्वीर लाकर, 16 उपचार पूजन एक बार करें, फिर पंचोपचार पूजन नित्य करके धूप दीप जलाकर पाँच पाठ पाँच दिन तक कमसे कम करें-!
इनके कर्ई रूप है जैसे, शिव प्रत्यंगिरा, विष्णु प्रत्यंगिरा, बगलामुखी प्रत्यंगिरा, महाकाली प्रत्यंगिरा, महालक्ष्मी प्रत्यंगिरा, कोशिकी आदि आदि,,, विपरीत प्रत्यंगिरा, प्रत्यंगिरा का ही दूसरा रूप है! इनकी साधना से तंत्र के षट्कर्म प्रथक- प्रथक पूजन सामग्री एवं कार्यानुसार ही हवनद्रव्य होवे है,, साधना माता की अति कठिन है, गुरु दिक्षित हो एवं गुरु सानिध्य में ही साधना करनी चाहिए, साधना में जरा सी त्रुटि रहने पर भयंकर परिणाम होते हैं!*

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*👉नोट~~~~ आज परिध योग में पापड़ का दान करना शुभफलदायी है।*
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*✍ पंचागकर्ता~~~इन्द्रकृष्ण भारद्वाज(बीकानेर)*

*मोबाइल नम्बर ---- +919314147672 9214247672*j

*Email. --- Astroojhaji@gmail.com*
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*श्रीसारस्वत पञ्चाङ्ग™----------®**👉पंचाग का पठन एवं श्रवण अति शुभ माना जाता है इसीलिए भगवान श्रीराम भी पंचांग का श्रवण ...
12/10/2025

*श्रीसारस्वत पञ्चाङ्ग™----------®*

*👉पंचाग का पठन एवं श्रवण अति शुभ माना जाता है इसीलिए भगवान श्रीराम भी पंचांग का श्रवण करते थे। पंचांग को नित्य पढ़ने और सुनने से देवताओं की कृपा, कुंडली के ग्रहो के शुभ फल मिलते है। इसलिए हर मनुष्य को जीवन में शुभ फल की प्राप्ति के लिए नित्य पंचांग को देखना और पढ़ना चाहिए।*

*🐚🌺📜आज का पञ्चाङ्ग📜🌺🐚*

🔅 आज का दिनाँक 12 अक्टूबर 2025
🔅 दिन - रविवार
🔅 विक्रम संवत - 2082
🔅 शाकः संवत - 1947
🔅 संवत्सर नाम - सिद्धार्थी
🔅 अयन - दक्षिणायन
🔅 ऋतु - शरद
🔅 मास - कार्तिक
🔅 पक्ष - कृष्णपक्ष
🔅 तिथि - षष्ठी
🔅 नक्षत्र - मृगशिरा
🔅 योग - वरियान
🔅 दिशाशूल - पश्चिम दिशा मे
🔅 सूर्योदय - 06:35 मिनट पर
🔅 सूर्यास्त - 18:11 मिनट पर
🔅 चंद्रोदय - 22:32 मिनट पर
🔅 चंद्रास्त - 12:20 मिनट पर
🔅 राहुकाल - 16:44 - 18:11 अशुभ
🔅 अभिजित -12:02 -12:50 शुभ
🔅 तिथिविशेष - रवियोग ,
*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*--*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-***

*🔱⚜ भाग्योदय के लिए क्या करें⚜🔱*

*👉यदि आप है वास्तु दोष से परेशान तो जरूर करें यह प्रभावशाली उपाय:--------------*

*🌻वास्तु का शाब्दिक अर्थ निवास स्थान होता है। इसके सिद्धांत वातावरण में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश तत्वों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करने में मदद करते हैं। माना जाता है कि वास्तु शास्त्र हमारे जीवन को सुगम बनाने एवं कुछ अनिष्टकारी शक्तियों से रक्षा करने में हमारी मदद करता है। एक तरह से वास्तु शास्त्र हमें नकारात्मक ऊर्जा से दूर सुरक्षित वातावरण में रखता है।*

*🌻इस धरती पर दो प्रकार की ऊर्जा है नकारात्मक और सकारात्मक। वास्तु का पूरा सिद्धान्त इन्हीं दो ऊर्जाओं पर टिका हुआ है। भवन से नकारात्मक ऊर्जा को निकाला जाता है एंव सकारात्मक ऊर्जा को घर में प्रवेश करने का उपाय बताया जाता है। यही वास्तु शास्त्र का सिद्धान्त है।*

*👉वास्तु दोष को दूर करने के लिए करें इन उपायों का प्रयोग:-----*

*★घर का यदि रसोईघर गलत स्थान पर हो तो घर में वास्तु दोष हो सकता है। घर के मुख्य द्वार पर काले घोड़े की यू आकार की नाल लगाने से वास्तु दोष दूर होता है। ऐसा करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है ।*

*★घर के मुख्य द्वार पर अगर स्वास्तिक बनाते हैं तो घर का वास्तु दोष दूर होता है।*

*★व्यक्ति को कभी भी पश्चिम की ओर सिर करके नहीं सोना चाहिए बल्कि दक्षिण दिशा में सोने से व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव आता है। यदि व्यक्ति दक्षिण दिशा में सोता है तो घर में कभी भी वास्तु दोष नहीं होता है ।*

*★घर में कूड़ा इकट्ठा होने से या भारी मशीनें रखने से वास्तु दोष हो सकता है । इसलिए इसे दूर करने के लिए उत्तर पूर्व दिशा में कूड़ेदान रखें।*

*★9 दिन तक अखंड रामायण का पाठ करने से घर से वास्तु दोष खत्म हो जाता है।*

*★यदि व्यक्ति 9 दिन तक लगातार राम चरित्र मानस का पाठ करता है तो घर से वास्तु दोष दूर हो जाता है।*

*★हाटकेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन करने से घर का वास्तु सही हो जाता है ।*

*★वास्तु विज्ञान के अनुसार घर में अगर वास्तु दोष हो तो घर के उत्तर पूर्व कोने में कलश रखना सबसे अच्छा माना जाता है। इस बात का जरूर ध्यान रखें कि कलश कहीं से भी टूटा हुआ नहीं होना चाहिए ।*

*★घर के टॉयलेट की दिशा यदि पूर्व कोने में हो तो हमेशा यह याद रखें टॉयलेट सीट उत्तर या दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके होनी चाहिए । ऐसा करने से नकारात्मक ऊर्जा घर से दूर चली जाती है ।*

*★यदि व्यक्ति अपने घर की उत्तर दिशा की दीवारों पर हल्का हरा रंग करवाता है घर में धन हमेशा बना रहता है और घर से वास्तु दोष भी दूर होता है ।*

*★वास्तु दोष दूर करने के लिए घर का ईशान कोण हमेशा साफ रहना चाहिए |*

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*👉नोट~~~~ आज वरियान योग में कम्बल का दान करना शुभफलदायी है।*
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*श्रीसारस्वत पञ्चाङ्ग™----------®**👉पंचाग का पठन एवं श्रवण अति शुभ माना जाता है इसीलिए भगवान श्रीराम भी पंचांग का श्रवण ...
11/10/2025

*श्रीसारस्वत पञ्चाङ्ग™----------®*

*👉पंचाग का पठन एवं श्रवण अति शुभ माना जाता है इसीलिए भगवान श्रीराम भी पंचांग का श्रवण करते थे। पंचांग को नित्य पढ़ने और सुनने से देवताओं की कृपा, कुंडली के ग्रहो के शुभ फल मिलते है। इसलिए हर मनुष्य को जीवन में शुभ फल की प्राप्ति के लिए नित्य पंचांग को देखना और पढ़ना चाहिए।*

*🐚🌺📜आज का पञ्चाङ्ग📜🌺🐚*

🔅 आज का दिनाँक 11 अक्टूबर 2025
🔅 दिन - शनिवार
🔅 विक्रम संवत - 2082
🔅 शाकः संवत - 1947
🔅 संवत्सर नाम - सिद्धार्थी
🔅 अयन - दक्षिणायन
🔅 ऋतु - शरद
🔅 मास - कार्तिक
🔅 पक्ष - कृष्णपक्ष
🔅 तिथि - पंचमी
🔅 नक्षत्र - रोहिणी
🔅 योग - व्यतिपात
🔅 दिशाशूल - पूर्व दिशा मे
🔅 सूर्योदय - 06:35 मिनट पर
🔅 सूर्यास्त - 18:12 मिनट पर
🔅 चंद्रोदय - 21:28 मिनट पर
🔅 चंद्रास्त - 11:14 मिनट पर
🔅 राहुकाल - 09:29 - 10:56 अशुभ
🔅 अभिजित -12:02 -12:50 शुभ
🔅 तिथिविशेष - सर्वार्थसिद्धि योग , अमृतसिद्धि योग, रोहिणी व्रत
*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*--*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-***

*🔱⚜ भाग्योदय के लिए क्या करें⚜🔱*

*👉कार्तिक मास विशेष :--*

*◆कार्तिक मास महात्म्य*

*◆व्रत एवं स्नान के नियम*

*🌻भगवान नारायण के शयन और प्रबोधन से चातुर्मास्य का प्रारम्भ और समापन होता है उत्तरायण को देवकाल और दक्षिणायन को आसुरिकाल माना जाता है दक्षिणायन में सत्गुणों के क्षरण से बचने और बचाने के लिए हमारे शास्त्रों में व्रत और तप का विधान है सूर्य का कर्क राशि पर आगमन दक्षिणायन का प्रारम्भ माना जाता है और कातिक मास इस अवधि में ही होता है पुराण आदि शास्त्रों में कार्तिक मास का विशेष महत्व है यूँ तो हर मास का अलग अलग महत्व है परन्तु व्रत, तप की दृष्टि से कार्तिक मास की महता अधिक है शास्त्रों में भगवान विष्णु और विष्णु तीर्थ के ही समान कर्तिक् मास को श्रेष्ट और दुर्लभ कहा गया है शास्त्रों में ये मास परम कल्याणकारी कहा गया है।*

*🌻सूर्य भगवान जब तुला राशि पर आते है तो कार्तिक मास का प्रारम्भ होता है इस मास का माहत्म्य पद्मपुराण तथा स्कन्दपुराण में विस्तार पूर्वक मिलता है। कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है इस मास को धर्म,अर्थ काम और मोक्ष को देने वाला बताया गया है नारायण भगवान ने स्वयं इसे ब्रम्हा को, ब्रम्हा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को कार्तिक मास के सर्वगुण सम्पन्न माहात्म्य के संदर्भ में बताया है।*

*💐इस संसार में प्रतेयक मनुष्य सुख शांति और परम आनंद की कामना करता है परन्तु प्रश्न यह है की दुखों से मुक्ति कैसे मिले? इसके लिए हमारे शास्त्रों में कई प्रकार उपाय बताए गए है परन्तु कार्तिक मास की महिमा अत्यंत उच्च बताई गयी है।*

*👉कार्तिक मास व्रत एवं स्नान के नियम:-*

*🌻कार्तिक मास में जो भी व्रत आदि रखता है उसे सदा एक पहर रात बचते ही उठ जाना चाहिए फिर स्तोत्र आदि के द्वारा अपने इष्ट देव की स्तुति करते हुए दिन के बाकी कामों को करना चाहिए। गाँव अथवा नगर के अनुसार दैनिक कर्म – मल-मूत्र त्याग आदि कर उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। इसके साथ ही दाँत व जिह्वा की शुद्धि के लिए वृक्ष के समीप जाकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए:-*

*आयुर्बल यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च ।*
*ब्रह्म प्रज्ञां च मेघां च त्वं नो देहि वनस्पते ।।*

*अर्थात👉 हे वनस्पति! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा एवं धारणाशक्ति प्रदान करें. इस प्रकार कहकर वृक्ष से दाँतुन लेनी चाहिए. दूध वाले वृक्षों की दाँतुन लेना वर्जित माना गया है. (वर्तमान समय में दाँतुन नहीं मिलती तो जिस तरह व्यक्ति दाँत साफ करते आया है वैसे ही करे) दाँतों को विधिपूर्वक शुद्ध करके मुँह को जल से धोना चाहिए. इसके बाद कार्तिक का व्रत करने वाले को विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।*

*🌻स्नान के बाद नए अथवा स्वच्छ वस्त्र धारण करके तिलक लगाना चाहिए फिर अपनी गोत्र विधि के अनुसार अथवा अपने घर के नियमानुसार संध्या उपासना करनी चाहिए. जब तक सूर्योदय ना हो जाए तब तक गायत्री मंत्र का जाप करते रहना चाहिए। संध्योपासना के अंत में विष्णु सहस्त्रनाम आदि का पाठ करना चाहिए, फिर व्यक्ति को अपनी दिनचर्या आरंभ करनी चाहिए जैसे वह जो भी काम करता हो उस पर जाना चाहिए। मध्यान्ह में दाल के अलावा शेष अन्न का भोजन करना चाहिए। जो व्यक्ति अतिथियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण करता है वह भोजन अमृततुल्य होता है।*

*🌻मुख शुद्धि के लिए तुलसी का सेवन करना उत्तम है. उसके बाद शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करना चाहिए. सायंकाल में पुन: भगवान के मन्दिर जाकर संध्या करके यथाशक्ति दीपदान करना चाहिए. भगवान विष्णु अथवा अपने देवता को प्रणाम करके आरती उतारनी चाहिए. प्रथम प्रहर में कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए. प्रथम प्रहर के बीत जाने पर शयन करना चाहिए. इस प्रकार जो व्यक्ति एक महीने तक शास्त्र अनुसार विधि का पालन करते हुए कार्तिक मास में स्नान-दान करता है, उसे भगवान का सालोक्य प्राप्त होता है।*

*👉कार्तिक मास में निम्न वस्तुओं का त्याग करना चाहिए:-*

*🌻तेल लगाना, दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करना, तेल खाना, अधिक बीज वाले फलों का सेवन, चावल तथा दाल – ये खाद्य पदार्थ कार्तिक मास में नहीं खाने चाहिए. इसके अलावा गाजर, बैंगन, बासी खाना, मसूर, कांसे के बर्तन में भोजन, कांजी, दुर्गंधित पदार्थ, किसी भी समुदाय का अन्न अर्थात भण्डारा, शूद्र का अन्न, सूतक का अन्न, श्राद्ध का अन्न – यह कार्तिक व्रत करने वाले को त्याग देने चाहिए।*

*🌻कार्तिक में केले और आंवले के फल का दान करना चाहिए. शीत से कष्ट पाने वाले निर्धन और ब्राह्मण को वस्त्र दान देना चाहिए. जो व्यक्ति इस माह भगवान को तुलसीदल समर्पित करता है, उसे मुक्ति मिलती है. जो कार्तिक की एकादशी को निराहार रहकर व्रत करता है, वह पूर्व जन्मों के पापों से छुटकारा पा लेता है. जो राह चलकर आये हुए थके व्यक्ति को अन्न देता है और भोजन के समय उसे भोजन कराकर संतुष्ट करता है, उससे अनन्य पुण्यों का फल मिलता है. कार्तिक में भगवान विष्णु की परिक्रमा करने वाले को पग-पग पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है. कार्तिक में भगवान के मन्दिरों में चूना-सफाई आदि करवाकर उन्हें सुन्दर बनाने में सहयोग देने वाले और उनमें भगवान के निमित्त नवीन वस्त्र – अलंकार भेंट करने वाले को विष्णु के सामीप्य का आनन्द अनुभव होता है.!*

*💐कार्तिक मास में प्याज, सिंघाड़ा, सेज, बेर, राई, नशीली वस्तुएँ और चिवड़ा – इन सभी का उपयोग भी वर्जित है. कार्तिक व्रत करने वाले व्यक्ति को देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री और महात्माओं की निन्दा नहीं करनी चाहिए. कार्तिक मास में नरक चतुर्दशी को (छोटी दीवाली) शरीर में तेल लगाना चाहिए. इसके अलावा व्रती मनुष्य को अन्य किसी भी दिन तेल नहीं लगाना चााहिए. व्रत करने वाले को कार्तिक में चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मण द्वेषी और वेद बहिष्कृत लोगों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।*

*👉कार्तिक मास स्नान के नियम:-*

*🌻कार्तिक स्नान आश्विन माह की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर अगले माह कार्तिक माह की पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस पवित्र स्नान को आरंभ करने से पहले आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी आने पर भगवान विष्णु को प्रणाम कर कार्तिक व्रत करने की आज्ञा लेनी चाहिए। इस तरह से आज्ञा लेने से भगवान प्रसन्न होते हैं और अपने भक्त पर कृपा कर उसे आत्मिक बल तथा मनोबल प्रदान करते हैं. साथ ही ईश्वर अपने भक्त को विधिपूर्वक कार्तिक व्रत करने की सद्बुद्धि देते हैं।*

*🌻सभी बारह मासों में मार्गशीर्ष मास को अत्यन्त पुण्यदायक कहा गया है, उससे भी अधिक पुण्य देने वाला वैशाख मास कहा गया है. प्रयाग में माघ मास का अधिक महत्व है तथा इससे भी महान तथा अधिक फलदायी कार्तिक मास को कहा गया है. जब ब्रह्मा जी ने एक तरफ सभी प्रकार के दान, व्रत तथा नियम रखे और दूसरी ओर कार्तिक का स्नान रखकर तौला तो कार्तिक स्नान का पलड़ा ही भारी पाया।*

*🌻भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए आश्विन की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक प्रतिदिन गंगा जी में स्नान करना चाहिए. यदि गंगा जी नहीं है तब किसी भी नदी, तालाब अथवा पोखर आदि में कार्तिक स्नान करना चाहिए. यदि कुछ भी नहीं है तब नियमित रुप से घर पर ही बालटी अथवा जिस बीबी पात्र में स्नान करना है उसमें गंगा जी सहित सभी पवित्र नदियों की कल्पना करके स्नान करना चाहिए।*

*💐देवी पक्ष अर्थात भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की महारात्रि आने तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए। श्रीगणेश जी को प्रसन्न करने के लिए आश्विन कृष्ण चतुर्थी से लेकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तक नियमपूर्वक स्नान करना चाहिए। भगवान जनार्दन को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए।*

*🌻जो मनुष्य जाने-अनजाने कार्तिक मास में नियम से स्नान करते हैं, उन्हें कभी यम-यातना को नहीं देखना पड़ता. कार्तिक मास में तुलसी के पौधे के नीचे राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे भाव के साथ पूजा करनी चाहिए. यदि आंवले का पेड़ है तब उसके नीचे भी राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे श्रद्धा भाव से पूजन करना चाहिए।*

*विधिपूर्वक स्नान करने के लिए जब दो घड़ी रात बाकी बच जाए तब तुलसी की मिट्टी, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय या गंगा तट अथवा पवित्र नदी के किनारे जाकर पैर धोने चाहिए तथा गंगा जी के साथ अन्य पवित्र नदियों का ध्यान करते हुए विष्णु, शिव आदि देवताओं का ध्यान करना चाहिए. उसके बाद नाभि तक जल में खड़े होकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।*

*कार्तिकेsहं करिष्यामि प्रात: स्नानं जनार्दनं ।*
*प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ।।*

*अर्थात👉 हे जनार्दन देवेश्वर ! लक्ष्मी सहित आपकी प्रसन्नता के लिए मैं कार्तिक प्रात: स्नान करुँगा।*

*👉उसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण करें:-*

*गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ।*
*नम: कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।।।*
*नमस्तेsस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोsस्तुते ।।*

*अर्थात👉 आप मेरे द्वारा दिये गये इस अर्घ्य को श्रीराधाजी सहित स्वीकार करें. हे हरे! आप कमलनाभ को नमस्कार है, जल में शयन करने वाले आप नारायण को नमस्कार है. इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिए. आपको बारम्बार नमस्कार है।*

*🌻व्यक्ति किसी भी जलाशय में स्नान करे, उसे स्नान करते समय गंगा जी का ही ध्यान करना चाहिए. सबसे पहले मृत्तिका (मिट्टी) आदि से स्नान कर ऋचाओं द्वारा अपने मस्तक पर अभिषेक करें. अघमर्षण और स्नानांग तर्पण करें तथा पुरुष सूक्त द्वारा अपने सिर पर जल छिड़्के. इसके बाद जल से बाहर निकलकर दुबारा अपने मस्तक पर आचमन करना चाहिए और कपड़े बदलने चाहिए. कपड़े बदलने के बाद तिलक आदि लगाना चाहिए।*

*💐जब कुछ रात बाकी रह जाए तब स्नान किया जाना चाहिए क्योंकि यही स्नान उत्तम कहलाता है तथा भगवान विष्णु को पूर्ण रूप से संतुष्ट करता है. सूर्योदय काल में किया गया स्नान मध्यम स्नान कहलाता है. कृत्तिका अस्त होने से पहले तक का स्नान उत्तम माना जाता है. बहुत देर से किया गया स्नान कार्तिक स्नान नहीं माना जाता है।*

*👉मनीषियों द्वारा चार प्रकार के स्नान कहे गए हैं:-*

*1. वायव्य स्नान*
*2. वारुण स्नान*
*3. ब्राह्म स्नान तथा*
*4. दिव्य स्नान*

*◆वायव्य स्नान👉 जिस स्नान को गोधूलि द्वारा किया जाए वह वायव्य स्नान कहलाता है।*

*◆वारुण स्नान 👉 जो स्नान समुद्र आदि के जल से किया जाए वह वारुण स्नान कहलाता है।*

*◆ब्राह्म स्नान 👉 वेद मन्त्रों के उच्चारण कर के जो स्नान किया जाता है उसे ब्राह्म स्नान कहते हैं।*

*◆दिव्य स्नान 👉 मेघों तथा सूर्य की किरणों द्वारा जो जल शरीर पर गिरता है उसे दिव्य स्नान कहा जाता है।*

*🌻ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के लिए मन्त्रोचारण करते हुए स्नान का विधान है. स्त्री तथा शूद्र को बिना मंत्रोच्चार के स्नान करना चाहिए. प्राचीनकाल में कार्तिक मास में पुष्कर का स्पर्श पाकर नन्दा परम धाम को प्राप्त हुई थी. राजा प्रभंजन भी कार्तिक मास में पुष्कर में स्नान करने से व्याघ्र योनि से मुक्त हुए थे. अत: कार्तिक मास में जो मनुष्य प्रात:काल उठकर तीर्थ में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है।*

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*👉नोट~~~~ आज व्यतिपात योग में चावल का दान करना शुभफलदायी है।*
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*✍ पंचागकर्ता~~~इन्द्रकृष्ण भारद्वाज(बीकानेर)*

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*यह पंचांगबीकानेर की अक्षांश रेखांश परआधारित है।*
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