Divya Ayurved Clinic And Research Center

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14/04/2018

:) ग्रीष्म ऋतुचर्या का दर्शन और प्रयोग :)

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आयुर्वेद में ऋतुचर्या किन सिद्धांतों को ध्यान में रखकर तय की गयी होगी? लगभग 5000 साल पहले तय की गयी ऋतुचर्या क्या आज भी उपयोगी है? संक्षेप में देखें तो पहली बात यह है आयुर्वेद का लोक-पुरुष-साम्य सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि पुरुष लोक के समान है (च.शा.5.3: पुरुषोऽयं लोकसम्मितः) इस सिद्धांत के प्रकाश में देखने पर लोक या पृथ्वी के वातावरण का सीधा सीधा प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ता है क्योंकि लोक और पुरुष में समानता (च.शा.5.3: लोकपुरुषयोः सामान्यम्) होने से सामान्य-विशेष का सिद्धांत कार्य करता है| अर्थात सामान भावों को सामान भावों से मिलाने पर उस भाव की वृद्धि और असमान भावों को मिलाने पर ह्रास होता है| सत्य बुद्धि तभी प्रकट होती है या अकल तभी आती है जब स्वयं के अंदर प्रकृति को व प्रकृति के अंदर स्वयं को देखा जाये (च.शा.5.7): सर्वलोकमात्मन्यात्मानं च सर्वलोके सममनुपश्यतः सत्या बुद्धिः समुत्पद्यते| यहाँ पर लोक से तात्पर्य पूरी दुनिया के वातावरण से है जिसमें छः धातुयें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तथा आत्मा शामिल हैं (च.शा.5.7): षड्धातुसमुदायो हि सामान्यतः सर्वलोकः| इस सूची में आत्मा का शामिल होना आश्चर्यजनक नहीं मानना चाहिये क्योंकि पौधे, प्राणी और सम्पूर्ण जीवन भी लोक में शामिल है| उपरोक्त साम्य के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस प्रकार चंद्रमा, सूर्य, और वायु क्रम से विसर्ग, आदान, विक्षेप क्रियाओं से जगत का धारण करते हैं ठीक उसी प्रकार सोमांश कफ, सूर्य जैसा पित्त, तथा वायु देह का धारण करते हैं (सु.सू.21.8): विसर्गोदानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा| धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा||

इन आयुर्वेदिक सिद्धांतों को आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो पर्यावरण और पारिस्थिक तंत्र के साथ मानव के रिश्तों की अनवरत सार-संभाल या अनुकूलन ही ऋतुचर्या है। इसे साधारण शब्दों में यों समझें कि यदि हवा, पानी, तापक्रम, मिट्टी, पेड़-पौधों में ऋतु के अनुसार परिवर्तन होते हैं तो हमें भी उसके अनुसार जीवन-शैली और खान-पान और पहनावे में परिवर्तन करना पड़ता है| यह परिवर्तन या अनुकूलन ही धातुसाम्य रखता है। यही अनागत रोगों का प्रतिकार या विकार-अनुत्पत्ति में सहायक है।

आज की चर्चा मई-मध्य से जुलाई-मध्य के ग्रीष्मकाल पर है, जिसके मुख्य शास्त्रीय स्रोत चरकसंहिता (च.सू.6.27-32), सुश्रुतसंहिता (सु.उ.64.40-45) एवं अष्टांगहृदय (अ.हृ.सू.3.26-41) हैं। प्रकाशित समकालीन वैज्ञानिक शोध और आयुर्वेदाचार्यों का अनुभवजन्य ज्ञान भी यहाँ समाहित है। संहिताओं में उपलब्ध जानकारी का मूल स्रोत लगभग आठवीं शताब्दी ईसापूर्व से लेकर सातवीं शताब्दी के मध्य का है। अतः ऋतुचर्या पर उपलब्ध कुछ सलाह या निर्देश ऐसे भी हैं जिनकी समकालीन सार्थकता को सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है।

रोचक बात यह है कि आयुर्वेद की ऋतुचर्या का वर्णन विश्व में सबसे प्राचीन है और इस बात के प्रमाण हैं कि इस विद्या को प्राचीन चीन एवं ग्रीक चिकित्सा पद्धतियों सहित विश्व की अन्य चिकित्सा पद्धतियों ने भारत से सीखा और समाहित किया। आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में ऋग्वेद, अथर्ववेद, चरक और सुश्रुत आदि द्वारा हिप्पोक्रेट्स (460-370 ईसा पूर्व) और गैलेन (129-210 ईस्वी) से कम से कम 1500 वर्ष पूर्व स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिये ऋतुचर्या, दिनचर्या, रात्रिचर्या, स्वस्थवृत्त, सद्वृत्त, आहार एवं रसायन के महत्त्व को बहुत विस्तृत रूप से प्रतिपादित व वर्णित किया गया था।

ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें अत्यन्त तीक्ष्ण होने से वातावरण के तापमान को बढ़ा देती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण और द्रव्यों से जल का अंश धीरे-धीरे कम होने लगता है। यही कारण है कि इस ऋतु में कफ का क्षय तथा वात की वृद्धि होती जाती है। बल में कमी तथा अग्नि सामान्य रहती है। यहाँ यह बताना उपयोगी होगा कि विश्व के 245 शहरों के आँकड़े बताते हैं कि हीटवेव या लू के कारण प्रतिवर्ष 12000 से अधिक लोग मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अर्बन हीट आइलैंड इफ़ेक्ट के कारण प्रायः आसपास के क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में तापमान 3.5 से 12 डिग्री सेंटीग्रेड तक अधिक होने लगता है। इसके कारण लगभग 3 मिलियन लोगों की मृत्यु प्रतिवर्ष होती है। भारत में मई 1998 की ऐतिहासिक हीट वेव जिसमें देश ने दो सप्ताह तक गंभीर गर्मी की लहर का अनुभव किया, वह तत्समय में पिछले 50 वर्षों में सबसे खतरनाक थी। जलवायु परिवर्तन की दशा में भारत सहित पूरी दुनिया में हीट वेव की आवृत्ति, तीव्रता और अवधि में बढ़ोत्तरी, और परिणामस्वरूप मृत्यु बढ़ने की आशंका है। भारत में वर्ष 2009-2010 का सूखा और गर्मी की लहर रूस की रिकार्ड-तोड़ गर्मी के टक्कर की थी। भारत के 640 जिलों में से हीट वेव के सन्दर्भ में 10 बहुत अधिक और 97 बहुत जोखिम वाले जिलों की श्रेणी में आते हैं। सामान्य जोखिम तो देश भर में है। शोध से ज्ञात होता है कि किसी दिन तापमान में 10 डिग्री फैरेनहीट की बढ़त उसी दिन हृदय रोगों, स्ट्रोक, श्वसन रोग, निमोनिया, निर्जलीकरण, गर्मी से स्ट्रोक, मधुमेह और गुर्दे की विफलता सहित कई बीमारियों के लिये अस्पताल में भर्ती होने का खतरा बढ़ जाता है। गर्मी की बढ़त से वर्ष 2100 तक वैश्विक जी.डी.पी. के 20 प्रतिशत तक हानि की आशंका है। ऋतुचर्या प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न जोखिम को कम करने की रणनीति है।

ग्रीष्म ऋतु में कठोर शारीरिक श्रम, व्यायाम व सहवास आदि की अति से बचना चाहिये। धूप में अधिक देर तक समय नहीं गुजारना चाहिये। लवण, कटु एवं अम्ल रसों की प्रधानता वाले द्रव्य, शुष्कताकारक व उष्ण पदार्थों का उपयोग छोड़ देना श्रेयस्कर है। अल्कोहल का प्रयोग भी नहीं करना चाहिये, यदि करें तो बहुत कम मात्रा में, और उसमें भी बहुत पानी मिलाकर ही उपयोग करें। अन्यथा शोथ, शिथिलता, दुर्बलता, दाह व मोह जैसी समस्यायें उत्पन्न होती हैं।

पेय पदार्थों में रायता एवं खाण्ड (खट्टे, मीठे, नमकीन द्रव्यों का घोल) इक्षुशर्करा या खाण्ड मिला हुआ सुंगधित एवं शीतल पानक या पन्ना लाभकारी है। मंथ अर्थात घी-युक्त सत्तू का शीतल जल में बनाया गया हल्का गाढ़ा घोल जिसमें इक्षुशर्करा, खाण्ड या शहद भी मिलाई जा सकती है, लिया जा सकता है। केला या महुआ के पत्तों से ठंडा होने से ढके हुये मिट्टी के नये बर्तन में अम्ल-रस युक्त पन्ना या शर्बत भी कुछ समय रखकर पिया जा सकता है। मधु, द्राक्षा (दाख या मुनक्का), फालसा, आमलकी (आँवला) खण्ड (खांड़) को शीतल जल में मथ कर पंचसार बनाया जाता है। इसे मिट्टी के सकोरे में पीने का आनंद लीजिये। स्वाद हालाँकि व्यक्तिगत मामला है, पर पंचसार में अगर सैन्धव लवण की चुटकी मार दें तो मेरी दृष्टि में इससे स्वादिष्ट, तृप्तिकर, पौष्टिक और शीतल पेय दुनियाभर में उपलब्ध नहीं है। यह उच्चकोटि का एंटीऑक्सीडेंट होने के कारण ऑक्सीडेटिव-स्ट्रेस को कम करने वाला स्वादिष्ट रसायन भी है। पाढ़ल के पुष्पों से सुगंधित, पुदीना या कर्पूरयुक्त शीतल जल पिया जा सकता है। रात में भैंस के दूध में खाण्ड मिलाकर ठंडा कर पिया जा सकता है। बाजारू कृत्रिम शीतल पेय से छुटकारा पाना ही श्रेयस्कर है|
खाद्य पदार्थों में ग्रीष्म ऋतु में मधुर रस प्रधान, स्वादिष्ट, शीतल और स्निग्ध अन्नपान हितकारी होता है। उदाहरण के लिये, शालि-चावल के भात में घी या दूध में मिलाकर खाना बहुत स्वादिष्ट लगता है। यह ध्यान देना आवश्यक है कि किसी भी ऋतु में प्रत्येक भोजन में सभी छः रसों का होना आवश्यक है। ग्रीष्म ऋतु में शीतल, स्निग्ध और मधुर रस प्रधान स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों को प्रधानता देते हुये अन्य रसों को भी थोड़ी मात्रा में ग्रहण करना चाहिये।

ग्रीष्म ऋतु में शरीर में चन्दन का लेप करना, सूक्ष्म व लघुवस्त्र पहनना व माला धारण करना लाभकारी रहता है। शीतल घरों में निवास, विशेषकर ऐसे कक्ष जिनमें जलधारा प्रवाहित हो रही हो, ऐसी शिल्पकलाकृतियों से सज्जित कक्ष जिनमें से मंद जलधारा प्रवाहित हो रही हो, में विश्राम करने का ग्रीष्मकालीन आनन्द अवर्णनीय है। रात्रि में सोने हेतु चन्द्रमा की शीतल किरणों से ठंडी हुई घर की छत पर सोने का आनन्द भी लिया जा सकता है। हालाँकि शहरों में औद्योगिक व यातायातीय वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या है। प्रदूषित वायु में निलंबित श्वसनीय विविक्त कणों की मात्रा भारत की परिवेशी वायु गुणवत्ता को हानिकारक स्तर पर ले जा रही है। अतः खुले स्थान पर वहीं सोयें जहाँ प्रदूषण मानक स्तरों के अंदर हो। ऐसी आशंका है कि वायु प्रदूषण वर्ष 2050 तक लगभग 6.6 मिलियन समय पूर्व मृत्यु के लिये उत्तरदायी होगा। प्रदूषित वायु में पीएम-2.5 कणों के कारण विश्वभर में 33 लाख लोगों की मृत्यु होती है, इनमें से अधिकाँश एशिया महाद्वीप में हैं। भारत में विश्व की 24 प्रतिशत वार्षिक बाल मृत्य दर मुख्य रूप से श्वसन तंत्र में संकमण के कारण होती है। वर्ष 2010 में घरों के अन्दर वायु प्रदूषण के कारण 3.9 मिलियन लोगों की मृत्यु होने का आकलन किया गया है। वर्ष 2015 में प्रकाशित एक महत्वपूर्ण शोध में यह पाया गया है कि लगभग 66 करोड़ भारतीय, जो भारत की आधी जनसंख्या है, उन क्षेत्रों में निवास करती है जहाँ निलंबित विविक्त कणों के कारण प्रदूषण का स्तर राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों से अधिक है। वायु प्रदूषण के कारण कार्डियोपल्मोनरी रोग, फेफड़ों के कैंसर आदि अनेक रोग होते हैं। अतः हमें अपनी दिनचर्या को इस प्रकार ढालना चाहिये कि प्रदूषणकारी तत्वों के संपर्क में कम से कम आयें।

ग्रीष्म ऋतु में हालाँकि व्यायाम और कठोर शारीरिक श्रम वर्जित हैं, परंतु तालाबों, नदियों अैर वापी या बावड़ियों के समीप रह कर शीतलता का लाभ लिया जा सकता है। दोपहर की तेज धूप में सघन वितान वाले विशालकाय शाल, तमाल, ताल आदि प्रजातियों के वृक्षों की छाया में, जहां सूर्य की किरणें न पहुंच पायें, रहा जा सकता है। प्रातः उपवन में घूमते हुये फूलों एवं जलाशयों का आनन्द लिया जा सकता है। मनोहारी उपवन में पक्षियों के कलरव के मध्य मीठी व तोतली बोली बोलनेवाले बाल-बच्चे धमा-चौकडी कर रहे हों तो आनंद ही आनंद है। परिवार के प्रिय सदस्यों और अन्तरंग मित्रों का साथ सुखद रहता है। चन्दन के पानी से शीतल किये हुये कमल या ताड़ के पत्तों से बने पंखों की मंद शीतल हवा और उनसे गिरते हुये जल के कणों का आनंद अवश्य लेना चाहिये। इन सब बातों का ध्यान रखकर ग्रीष्म ऋतु में स्वयं को दोष संचय से बचाते हुये को स्वस्थ व सुखी रखा जा सकता है।

ग्रीष्म ऋतु में सीधी धूप से बचना, स्वाभाविक रूप से शीतल कक्षों में निवास, कृत्रिम एयर-कंडीशनिंग का यथासंभव सीमित उपयोग, भारी शारीरिक श्रम से बचना, प्रदूषण से बचना, लवण, कटु एवं अम्ल रस तथा गर्म तासीर वाले शुष्कता उत्पन्न करने वाले पदार्थों से बचना या कम से कम मात्र में सेवन करना, अल्कोहल से बचना, प्रदूषित जल व सड़े-गले खाद्य पदार्थों से सदैव बचना आवश्यक है। स्वच्छता के साथ रसोई में पकाया गया भोजन ही लेना चाहिये। शीतल पेय ग्रीष्म ऋतु में लाभकारी होते हैं, किंतु कृत्रि़म शीतल पेय का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। ऋतुचर्या का समकालीन महत्त्व कम नहीं हुआ बल्कि यह हमारी बिगड़ती जा रही जीवनशैली के कारण होने वाले गैर-संचारी रोगों से बचाव का रास्ता है। इन सब बातों का ध्यान रखकर ग्रीष्म ऋतु में स्वयं को दोष संचय से बचाते हुये को स्वस्थ व सुखी रखा जा सकता है।

ग्रीष्म ऋतुचर्या के मूल सन्दर्भ--

1. च.सू.6.27-32: मयूखैर्जगतः स्नेहं ग्रीष्मे पेपीयते रविः। स्वादु शीतं द्रवं स्निग्धमन्नपानं तदा हितम्।। शीतं सशर्करं मन्थं जाङ्गलान्मृगपक्षिणः। घृतं पयः सशाल्यन्नं भजन् ग्रीष्मे न सीदति।। मद्यमल्पं न वा पेयमथवा सुबहूदकम्। लवणाम्लकटूष्णानि व्यायामं च विवर्जयेत्।। दिवा शीतगृहे निद्रां निशि दन्द्रांशुशीतले। भजेच्चन्दनदिग्धाङ्गः प्रवाते हर्म्यमस्तके।। व्यजनैः पाणिसंस्पर्शैश्चन्दनोदकशीतलैः। सेव्यमानो भजेदास्यां मुक्तामणिविभूषितः।। काननानि च शीतानि जलानि कुसुमानि च। ग्रीष्मकाले निषेवेत मैथुनाद्विरतो नरः।।

2. सु.उ.64.40-45: व्यायाममुष्णमायासं मैथुनं परिशोषि च।। रसांश्चाग्निगुणोद्रि क्तान् निदाघे परिवर्जयेत्। सरांसि सरितो वापीर्वनानि रुचिराणि च।। चन्दनानि परार्ध्यानि स्रजः सकमलोत्पलाः। तालवृन्तानिलाहारांस्तथा शीतगृहाणि च।। घर्मकाले निषेवेत वासांसि सुलघूनि च। शर्कराखण्डदिग्धानि सुगन्धीनि हिमानि च।। पानकानि च सेवेत मन्थांश्चापि सशर्करान्। भोजनं च हितं शीतं सघृतं मधुरद्रवम्।। शृतेन पयसा रात्रौ शर्करामधुरेण च। प्रत्यग्रकुसुमाकीर्णे शयने हर्म्यसंस्थिते।। शयीत चन्दनार्द्राङ्गः स्पृश्यमानोऽनिलैः सुखैः।

3. अ.हृ.सू.3.26-41: तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुर्ग्रीष्मे संक्षिपतीव यत्।। प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते। अतोऽस्मिन्पटुकट्वम्लव्यायामार्ककरांस्त्यजेत्।। भजेन्मधुरमेवान्नं लघु स्निग्धं हिमं द्र वम्। सुशीततोयसिक्ताङ्गो लिह्यात्सक्तून् सशर्करान्।। मद्यं न पेयं पेयं वा स्वल्पं सुबहुवारि वा। अन्यथा शोषशैथिल्यदाहमोहान् करोति तत्।। कुन्देन्दुधवलं शालिमश्नीयाज्जाङ्गलैः पलैः। पिबेद्र सं नातिघनं रसालां रागखाण्डवौ।। पानकं पञ्चसारं वा नवमृद्भाजने स्थितम्। मोचचोचदलैर्युक्तं साम्लं मृन्मयशुक्तिभिः।। पाटलावासितं चाम्भः सकर्पूरं सुशीतलम्। शशाङ्ककिरणान् भक्ष्यान् रजन्यां भक्षयन् पिबेत्।। ससितं माहिषं क्षीरं चन्द्र नक्षत्रशीतलम्। अभ्रङ्कषमहाशाल तालरुद्धोष्णरश्मिषु।। वनेषु माधवीश्लिष्टद्रा क्षास्तबकशालिषु। सुगन्धिहिमपानीयसिच्यमान पटालिके।। कायमाने चिते चूतप्रवालफललुम्बिभिः। कदलीदलकह्लारमृणाल कमलोत्पलैः।। कोमलैः कल्पिते तल्पे हसत्कुसुमपल्लवे। मध्यंदिनेऽकतापार्तः स्वप्याद्धारागृहेऽथवा।। पुस्तस्त्रीस्तनहस्तास्य प्रवृत्तोशीरवारिणि। निशाकरकराकीर्णे सौधपृष्ठे निशासु च।। आसना स्वस्थचित्तस्य चन्दनार्द्र स्य मालिनः। निवृत्तकामतन्त्रस्य सुसूक्ष्मतनुवाससः।। जलार्द्र तालवृन्तानि विस्तृताः पद्मिनीपुटाः। उत्क्षेपाश्च मृदूत्क्षेपा जलवर्षिहिमानिलाः।। कर्पूरमल्लिकामाला हाराः सहरिचन्दनाः। मनोहरकलालापाः शिशवः सारिकाः शुकाः।। मृणालवलयाः कान्ताः प्रोत्फुल्लकमलोज्ज्वलाः। जङ्गमा इव पद्मिन्यो हरन्ति दयिताः क्लमम्।।

05/04/2018

अगर आप बहुत मोटे हैं तो कुछ सलाह है आपके लिये आचार्य चरक की... अपने आयुर्वेदाचार्य की सलाह से उपयोग करिये इस रणनीति का--

वातघ्नान्यन्नपानानि श्लेष्ममेदोहराणि च| रूक्षोष्णा बस्तयस्तीक्ष्णा रूक्षाण्युद्वर्तनानि च||
गुडूचीभद्रमुस्तानां प्रयोगस्त्रैफलस्तथा| तक्रारिष्टप्रयोगश्च प्रयोगो माक्षिकस्य च||
विडङ्गं नागरं क्षारः काललोहरजो मधु| यवामलकचूर्णं च प्रयोगः श्रेष्ठ उच्यते||
बिल्वादिपञ्चमूलस्य प्रयोगः क्षौद्रसंयुतः| शिलाजतुप्रयोगश्च साग्निमन्थरसः परः||
प्रशातिका प्रियङ्गुश्च श्यामाका यवका यवाः| जूर्णाह्वाः कोद्रवा मुद्गाः कुलत्थाश्चक्रमुद्गकाः ||
आढकीनां च बीजानि पटोलामलकैः सह| भोजनार्थं प्रयोज्यानि पानं चानु मधूदकम्||
अरिष्टांश्चानुपानार्थे मेदोमांसकफापहान्| अतिस्थौल्यविनाशाय संविभज्य प्रयोजयेत्||
प्रजागरं व्यवायं च व्यायामं चिन्तनानि च| स्थौल्यमिच्छन् परित्यक्तुं क्रमेणाभिप्रवर्धयेत्||
---च.सू.21.21-28

Food and drinks that alleviate vata and reduce kapha and meda, e***a with sharp, ununctuous and hot drugs, therapeutic powder massage, use of guduchi (Tinospora cordifolia), musta (Cyperus rotundus), triphala, i.e., haritaki-Terminalia chebula, bibhitaki (Terminalia belerica) and amalaki (Emblica officinalis), takrarishta (a fermented medicinal preparation of buttermilk) and honey are recommended for the management of obesity. Formulation prepared from vidanga (Embelia ribes), nagara (Zingiber officinale), yavakshara (alkali of barley), ash powder of black iron along with honey, powder of yava (Hordeum vulgarae) and amalaki (Emblica officinalis) is also an excellent weight-loss drug. Similarly, Bilvadi panchamula (five major roots) mixed with honey and shilajatu along with the juice of agnimantha (Clerodendrum phlomidis) are also very effective preparations for weight-loss.

A diet consisting of prashatika (Setaria italica), priyangu (Aglaia roxburghiana), shyamaka (Echinochloa frumentaea), yavaka (small variety of Hordeum vulgarae), yava (Hordeum vulgare), jurnahva (Sorghum vulgare), kodrava (Paspalum scrobiculatum), mudga (Phaseolus mungo), kulattha (Dolichos biflorus), chakramudgaka, adhaki (Cajanus cajan) along with patola (Trichosanthes cucumerina) and amalaki (Emblica officinalis) is very effective in tackling obesity and maintaining good health. Honey water and alcoholic preparations may be taken as postprandial drinks that help in reducing excessive fat and muscle tissues, while also alleviating kapha dosha.

One desirous of reducing obesity should indulge more and more in wakefulness, sexual activities, as well as physical and mental exercises.

03/03/2018

आख़िर कितना खायें? ;) आयुर्वेद आहारमात्रा विज्ञान पर 18 प्रश्नोत्तर :) :)

1. भोजन कितना खायें? भोजन मात्रापूर्वक ही खाना चाहिये और यह मात्रा प्रत्येक व्यक्ति की तत्समय में अग्नि की स्थिति पर निर्भर करती है (च.सू.5.3): मात्राशी स्यात् आहारमात्रा पुनरग्निबलापेक्षिणी| Take food in appropriate quantity, neither more nor less, and that depends on the strength of digestive power.

2. भोजन की उचित मात्रा क्या है? भोजन की उचित मात्रा वही है जो सामान्यतया मन और शरीर के लिये पचड़ा खड़ा किये बिना उचित समय में पच जाये (च.सू.5.4): यावद्ध्यस्याशनमशितमनुपहत्य प्रकृतिं यथाकालं जरां गच्छति तावदस्य मात्राप्रमाणं वेदितव्यं भवति|| The proper quantity of food shall be known as the one that when eaten, gets digested in reasonable timespan without disturbing the normalcy.

3. क्या भोजन की मात्रा केवल अग्नि देखकर निर्धारित की जाती है? नहीं, खाद्य-पदार्थों की मात्रा का निर्धारण द्रव्यों और अग्नि दोनों को देखकर किया जाता है। (च.सू.27.340-341): अल्पादानेगुरूणांचलघूनांचातिसेवने। मात्राकारणमुद्दिष्टंद्रव्याणांगुरुलाघवे॥ गुरूणामल्पमादेयंलघूनांतृप्तिरिष्यते। मात्रांद्रव्याण्यपेक्षन्ते मात्राचाग्निमपेक्षते॥ Heavy articles should be consumed in small measures and light ones in large quantities. Food articles should thus be consumed in proper measure and the proper measure should be in accordance with the strength of the individual’s agni.

4. आसानी से पचने वाले अर्थात लघु या देर से पचने वाले अर्थात गुरु आहार कौन से हैं? शालि-चावल, साठी-चावल, मूंग आदि हालांकि स्वभाव से हल्के हैं, किन्तु मात्रा की अपेक्षा रखते हैं। इसी तरह पीठी से बने पदार्थ, गन्ने के रस से बने पदार्थ, दूध से बने पदार्थ, तिल, उड़द जलीय और दलदली भूमि में पाये जाने वाले जानवरों का मांस आदि स्वाभाविक रूप से पचने में भारी हैं और मात्रा की अपेक्षा रखते हैं (च.सू.5.5): तत्र शालिषष्टिकमुद्गलावकपिञ्जलैणशशशरभशम्बरादीन्याहारद्रव्याणि प्रकृतिलघून्यपि मात्रापेक्षीणि भवन्ति| तथा पिष्टेक्षुक्षीरविकृतितिलमाषानूपौदकपिशितादीन्याहारद्रव्याणि प्रकृतिगुरूण्यपि मात्रामेवापेक्षन्ते|| The shali rice, shashtika rice, green gram, (many species of animals that are now not allowed to be harmed under Wildlife Protection Act, 1972) and such other food-articles, although light by nature, these too depend on the proper quantity. Likewise, food preparations of flour, derivatives of sugar-cane juice and their dishes, milk and milk preparations, sesame, black gram, flesh of animals living in marshy and aquatic ecosystems (now illegal to kill under Wildlife Protection Act, 1972) are naturally heavy to digest foods.

5. हल्के और भारी खाद्य-पदार्थों का आहार की मात्रा से क्या सम्बन्ध है? असल में तात्पर्य यह नहीं मान लेना चाहिये कि खाद्य पदार्थ में भारीपन या हल्कापन अकारण ही बताया गया है। हल्के खाद्य पदार्थों में वायु और अग्नि के गुणों की प्रबलता है और भारी वस्तुओं में और जला के गुणों की एक प्रबलता है। तदनुसार, हल्के खाद्य पदार्थ अपनी सहज गुणवत्ता के कारण अग्नि को बढ़ाने वाले होते हैं, और उन्हें संतुष्टिदायक स्तर तक खाने पर भी हानिकारक नहीं होते। दूसरी तरफ भारी प्रकृति वाले खाद्य पदार्थ अग्नि को बढ़ाने वाले नहीं होते क्योंकि उनकी अग्नि के गुणों से असमानता है। यदि वे अत्यधिक मात्रा में लिये जाते हैं तो वे हानिकारक हो जाते हैं, जब तक कि शारीरिक व्यायाम से अग्नि बल न बढ़ाया गया हो। इसलिये, व्यक्ति विशेष के लिये आहार की सही मात्रा का पता पचाने के शक्ति से लगाया जाता है (च.सू.5.6): न चैवमुक्ते द्रव्ये गुरुलाघवमकारणं मन्येत, लघूनि हि द्रव्याणि वाय्वग्निगुणबहुलानि भवन्ति; पृथ्वीसोमगुणबहुलानीतराणि, तस्मात् स्वगुणादपि लघून्यग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यल्पदोषाणि चोच्यन्तेऽपि सौहित्योपयुक्तानि, गुरूणिपुनर्नाग्निसन्धुक्षणस्वभावान्यसामान्यात्, अतश्चातिमात्रं दोषवन्ति सौहित्योपयुक्तान्यन्यत्र व्यायामाग्निबलात्; सैषाभवत्यग्निबलापेक्षिणी मात्रा|| From this one should not assume that heaviness or lightness in a food-item is mentioned without a reason. The light food items have a predominance of the qualities of vayu and agni. The heavy items have a predominance of the qualities of prithvi and jala. Accordingly, the light food-items are stimulants of agni due to their innate quality, and are understood to be less harmful even if they are eaten to ones contentment. On the other, heavy items are non-stimulant of agni by nature, due to their dissimilarity of qualities with agni. Thus, they trigger impairment if taken in excess quantity, unless there is strong agni achieved by physical exercise. Therefore, the accurate quantity of diet is ascertained by the strength of agni.

6. यदि भोजन की मात्रा अग्नि पर निर्भर है तो क्या इसका तात्पर्य यह है कि खाद्य-पदार्थ के गुणों का भोजन की मात्रा से कोई लेना-देना नहीं है? ऐसा नहीं है कि भोजन की मात्रा खाद्य-पदार्थ के गुण पर निर्भर नहीं करती| खाद्य-पदार्थ के लघुत्व व गुरुत्व को देखते हुये यह सलाह है कि भारी पदार्थ तृप्ति के एक-तिहाई या आधे तक लिया जाना चाहिये| हल्के पदार्थ भी बहुत ज्यादा मात्र में अग्नि के लिये अहितकर होते हैं, अतः अग्नि को दुरुस्त बनाए रखने के लिये हल्के खाद्य-पदार्थ भी ठूंस-ठूंस कर गले तक नहीं भरा जाना चाहिये (च.सू.5.7): न च नापेक्षते द्रव्यं; द्रव्यापेक्षया च त्रिभागसौहित्यमर्धसौहित्यं वा गुरूणामुपदिश्यते, लघूनामपि चनातिसौहित्यमग्नेर्युक्त्यर्थम्|| It is not that the proper quantity of food does not depend on the food-item itself. Depending on the food-item itself, it is suggested that heavy food items should be taken in one third or one half of the contentment; even the light ones should not be taken in surfeit in order to maintain the strength of agni.

7. खाने-पीने से कितना पेट भरें? भोजन करने वाले व्यक्ति अपने पेट की पूरी क्षमता को तीन हिस्सों में बांट लेना चाहिये| इनमें से एक तिहाई ठोस भोजन के लिये, एक तिहाई तरल भोजन और बाकी तीसरा हिस्सा वात, पित्त व कफ के लिये छोड़ दिया जाना चाहिये। भोजन में इस नियम का पालन करने वाले व्यक्ति को अनुचित मात्रा में आहार से उत्पन्न प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ते (च.वि.2.3): त्रिविधं कुक्षौ स्थापयेदवकाशांशमाहारस्याहारमुपयुञ्जानः; तद्यथा- एकमवकाशांशं मूर्तानामाहारविकाराणाम्, एकं द्रवाणाम्, एकं पुनर्वातपित्तश्लेष्मणाम्; एतावतीं ह्याहारमात्रामुपयुञ्जानो नामात्राहारजं किञ्चिदशुभं प्राप्नोति|| The person consuming food should divide the whole capacity of his stomach into three parts: one third space to solid food, one third to liquid food and the remaining third to be left for the vata, pitta and kapha. Person following this rule in food intake, is not afflicted by adverse arising out of inappropriate quantity of diet.

8. भोजन की मात्रा को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है? क्योंकि यथोचित मात्रा में लिया गया भोजन निश्चित रूप से बल, वर्ण, प्रसन्नता और दीर्घायु प्रदान करता है (च.सू.5.8): मात्रावद्ध्यशनमशितमनुपहत्य प्रकृतिं बलवर्णसुखायुषा योजयत्युपयोक्तारमवश्यमिति|| The food taken in appropriate quantity undoubtedly provides strength, complexion, happiness and longevity, without disrupting the normalcy.

9. क्या कड़क भूख लगी हो तो भी गुरु-लघु का पचड़ा सम्हालना जरूरी है? हाँ, इसीलिये पीठी से बने पदार्थ, चावल, चिउड़ा आदि गुरु खाद्य-पदार्थों को, भूख लगी होने पर भी, उचित मात्रा में ही लेना चाहिये| भोजन कर लेने के बाद इन द्रव्यों को पुनः नहीं खायें (च.सू.5.9): गुरु पिष्टमयं तस्मात्तण्डुलान् पृथुकानपि| न जातु भुक्तवान् खादेन्मात्रां खादेद्बुभुक्षितः|| गुरु पदार्थों के कम खाने और लघु पदार्थों के अधिक खाने में जो गुरुता या लघुता होती है, उसमें केवल मात्रा ही कारण होती है| इसीलिये, गुरु द्रव्यों को कम और लघु द्रव्यों को तृप्तिदायक स्तर तक लेना चाहिये।

10. क्या ऐसा कोई व्यक्ति है जिसे मात्रापूर्वक भोजन करने के लिये द्रव्य की गुरुता-लघुता पर ध्यान देना विशेष रूप से आवश्यक है? ऐसे लोग जो दुर्बल, कम शारीरिक परिश्रम करने वाले, प्रायः अस्वस्थ रहने वाले, सुकुमारिता और ऐयाशी जीवन-शैली वाले हैं, उन्हें खाद्य-पदार्थों की गुरुता-लघुता का खास ध्यान रखना बहुत जरूरी है (च.सू.27.343): गुरुलाघवचिन्तेयंप्रायेणाल्पबलान्प्रति। मन्दक्रियाननारोग्यान्सुकुमारान्सुखोचितान्॥ The consideration of heaviness and lightness of food articles is particularly important for those who are generally weak, indolent, unhealthy, fragile or in a delicate condition of health, and those given to luxury.

11. क्या ऐसा कोई व्यक्ति भी है जिसे मात्रापूर्वक भोजन करने के लिये द्रव्य की गुरुता-लघुता देखने की जरूरत नहीं है? जिनकी अग्नि दीप्त है, जो कठिन अर्थात जल्दी न पचने वाले द्रव्यों को नियमित लेने के आदी हैं, जो नियमित श्रम करने के आदी है, बड़े पेट वाले हैं, उनके लिये हल्के या भारी भोजन की चिंता करने की जरूरत नहीं है (च.सू.27.344): दीप्ताग्नयःखराहाराःकर्मनित्यामहोदराः। येनराःप्रतितांश्चिन्त्यंनावश्यंगुरुलाघवम्॥ For those whose agni is strong, are accustomed to food items that are hard to digest, are adapted to hard labor and have a large capacity to consume and digest, the consideration of heavy and light food is not essential.

12. मात्रा पूर्वक भोजन करने का विशेष लाभ क्या है? भोजन सही मात्रा में ही करना चाहिये क्योंकि यह त्रिदोषों को पीड़ित किये बिना आयु में वृद्धि करता है। आराम से पच कर गुदा तक पहुँच जाता है। अग्नि या पाचन-शक्ति को नष्ट नहीं करता, बिना दिक्कत पच जाता है। इसीलिये समुचित मात्रा में, न कम न अधिक, भोजन करना चाहिये। इसे मात्रापूर्वक भोजन का सिद्धांत या ठूँस-ठूँस कर न खाने का सिद्धांत भी कहते हैं (च.वि.1.24.3): मात्रावदश्नीयात् मात्रावद्धि भुक्तं वातपित्तकफानपीडयदायुरेव विवर्धयति केवलं सुखं गुदमनुपर्येति न चोष्माणमुपहन्ति अव्यथं च परिपाकमेति तस्मान्मात्रावदश्नीयात्।

13. यह कैसे जानें कि सही मात्रा में खाना खाया है? भोजन की मात्रा वही उपयुक्त है जिसके कारण पेट पर अनुचित दबाव नहीं पड़े, दिल के सामान्य क्रियाकलाप में अवरोध न खड़ा हो, छाती के किनारों पर कोई दबाव नहीं बने, पेट में अत्यधिक भारीपन न हो, संतुष्टिदायक हो, भूख और प्यास को शांत करे, और खाने के बाद आदमी को खड़े होने, बैठने, घूमने-फिरने, सांस लेने, हँसने व काम करने में सुख का अनुभव हो, सुबह के भोजन का शाम तक और शाम के भोजन का सुबह तक अच्छी तरह पाचन हो जाये, तथा बल और वर्ण की वृद्धि हो (च.वि.2.6): कुक्षेरप्रणीडनमाहारेण, हृदयस्यानवरोधः, पार्श्वयोरविपाटनम्, अनतिगौरवमुदरस्य, प्रीणनमिन्द्रियाणां, क्षुत्पिपासोपरमः स्थानासनशयनगमनोच्छ्वासप्रश्वास -हास्यसङ्कथासु सुखानुवृत्तिः, सायं प्रातश्च सुखेन परिणमनं, बलवर्णोपचयकरत्वं च; इति मात्रावतो लक्षणमाहारस्य भवति|

14. आवश्यकता के कम भोजन लेने से क्या नुकसान है? हीनमात्रा वाले भोजन को बल, वर्ण, शरीर के घटकों की बढ़त का नाश करने वाला, अतृप्तिकारक, उदावर्त रोग का कारक, आयु को घटाने वाला, वीर्यनाशक, ओज का क्षय करने वाला, शरीर, मन, बुद्धि, व इन्द्रियों के लिये हानिकारक, सार नष्ट करने वाला, शरीर को श्रीहीन या तेजरहित करने वाला और सभी वात विकारों का घर कहा जाता है (च.वि.2.7 आंशिक): हीनमात्रमाहारराशिं बलवर्णोपचयक्षयकरमतृप्तिकरमुदावर्तकरमनायुष्यवृष्यमनौजस्यं शरीरमनोबुद्धीन्द्रियोपघातकरं सारविधमनमलक्ष्म्यावहमशीतेश्च वातविकाराणामायतनमाचक्षते| The food taken in deficient quantity results in reduction in strength, complexion and nourishment of body tissues, non–satisfaction, altered peristalsis and misplacement of vayu, impairments in life-functions, body tissues (sara), sexual stamina (virility) and ojas (vitality), damage to the body, mind, intellect, and sense organs, bringing inauspiciousness and making the person home to all vata disorders.

15. क्या कभी हीनमात्रा में आहार लेना भी उचित है? हाँ, मन्दाग्नि वाले या रोगी व्यक्ति के लिये हीन मात्रा में आहार ठीक रहता है, परन्तु स्वस्थ व्यक्ति के लिये नहीं (सु.उ.64.64): मन्दाग्नये रोगिणे च मात्राहीनः प्रशस्यते।।

16. आवश्यकता के अधिक भोजन लेने से क्या नुकसान है? जो व्यक्ति ठोस भोजन से तृप्त होकर पुनः पेय पदार्थों से तृप्ति करता है, उसके सब दोष कुपित हो जाते हैं (च.वि.2.7 आंशिक):
अतिमात्रं पुनः सर्वदोषप्रकोपणमिच्छन्ति कुशलाः| यो हि मूर्तानामाहारजातानां सौहित्यं गत्वा द्रवैस्तृप्तिमापद्यते भूयस्तस्यामाशयगता वातपित्तश्लेष्माणोऽभ्यवहारेणातिमात्रेणातिप्रपीड्यमानाः सर्वे युगपत् प्रकोपमापद्यन्ते, ते प्रकुपितास्तमेवाहारराशिमपरिणतमाविश्य कुक्ष्येकदेशमन्नाश्रिता विष्टम्भयन्तः सहसा वाऽप्युत्तराधराभ्यां मार्गाभ्यां प्रच्यावयन्तः पृथक् पृथगिमान् विकारानभिनिर्वर्तयन्त्यतिमात्रभोक्तुः| तत्र वातः शूलानाहाङ्गमर्दमुखशोषमूर्च्छाभ्रमाग्निवैषम्यपार्श्वपृष्ठकटिग्रहसिराकुञ्चनस्तम्भना-नि करोति, पित्तं पुनर्ज्वरातीसारान्तर्दाहतृष्णामदभ्रमप्रलपनानि, श्लेष्मा तु छर्द्यरोचकाविपाकशीतज्वरालस्यगात्रगौरवाणि|| Person who eats and drinks beyond satiation will have all the three doshas in his stomach vitiated due to their getting compressed by the excess food. Vitiated doshas in the undigested food get localized into parts of the stomach, which then either obstruct the movements in the abdomen or suddenly get eliminated through upper and lower channels of the alimentary canal. They produce distinct features in the person as follows: Vata causes colic pain, distension of the abdomen, body ache, dryness of the mouth, fainting, giddiness, variability in digestive power, rigidity in flanks, back and waist and contraction (spasm) and hardening of vessels. Pitta causes fever, diarrhea, burning sensation inside body, thirst, intoxicated state, giddiness and delirium. And, Kapha causes vomiting, anorexia, indigestion, fever with cold, laziness and heaviness in the body.

17. क्या कुछ ऐसी परिस्थितियाँ जब मात्रापूर्वक लिया गया भोजन भी नहीं पचता? चिन्ता, शोक, भय, क्रोध, कष्टकारी बिस्तर और नींद न आने के कारण समुचित मात्रा में लिया गया हितकारी भोजन भी नहीं पचता (च.वि. 2.9): मात्रयाऽप्यभ्यवहृतं पथ्यं चान्नं न जीर्यति| चिन्ताशोकभयक्रोधदुःखशय्याप्रजागरैः|| कहने का तात्पर्य यह है कि भोजन न केवल हितकर व समुचित मात्रा में खाना चाहिये, बल्कि आवश्यक यह भी है कि तमाम हबड़-दबड़ और पचड़ों से दूर होकर प्रसन्नतापूर्वक खाने का आनंद लिया जाना चाहिये। अन्यथा उत्तम आहार भी बीमार कर देता है।

18. क्या केवल भोजन की मात्रा को ठीक कर लेने से पूर्ण स्वस्थ रहा जा सकता है? बिलकुल नहीं| पहली बात यह है कि अकेले आहार सम्हालने से स्वास्थ्य नहीं सम्हल जाता। जीवन और मृत्यु के मध्य सात रक्षा कवच—आहार, विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, पंचकर्म, रसायन व वाजीकर और औषधि—भी आवश्यक हैं| अनन्यता के सिद्धांत के अनुसार आहार, विहार, सद्वृत्त, स्वस्थवृत्त, रसायन व वाजीकर, पंचकर्म और औषधि एक-दूसरे के विकल्प नहीं बल्कि पूरक हैं| दूसरी, बात यदि आहार की करें तो आहार के सभी लाभकारी प्रभावों को केवल मात्रा के आधार पर प्राप्त करना संभव नहीं है, क्योंकि भोजन से संबंधित अनेक अन्य कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है| उनमें से आहारमात्रा केवल एक ही पहलू है। आहार के विविध पहलुओं को भी साधना जरूरी है (च.वि.2.4): न च केवलं मात्रावत्त्वादेवाहारस्य कृत्स्नमाहारफलसौष्ठवमवाप्तुं शक्यं, प्रकृत्यादीनामष्टानामाहारविधिविशेषायतनानां प्रविभक्तफलत्वात्|| It is not possible to derive all the beneficial effects of any diet only on the basis of the quantity of food consumed because the other seven factors (discussed in the preceding chapter, such as prakriti (nature of food) etc.) have their own individual role to play.

10/02/2018

:) व्यायाम औषधि है :)

व्यायाम-औषधि-है (एक्सरसाइज इज मेडिसिन) का नारा दुनिया की कुछ संस्थाओं अब अपने नाम से पंजीकृत कर लिया है| किन्तु प्रमाण-आधारित बात यह है कि विश्व को व्यायाम का विचार आयुर्वेद की देन हैl
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में चरक और सुश्रुत द्वारा हिप्पोक्रेट्स (460-370 ईसा पूर्व) और गैलेन (129-210 ईस्वी) से बहुत पहले आठवीं शताब्दी ईशा पूर्व स्वास्थ्य और चिकित्सा के लिये व्यायाम के महत्त्व को बहुत विस्तृत रूप से परिभाषित किया गया था।
सिंधु घाटी सभ्यता में ईसा से 3300 वर्ष पूर्व स्वास्थ्य तथा व्यायाम के संदर्भ में प्रमाण उपलब्ध हुये हैं। यह बात दीगर है कि यूरोपीय और अमेरिकी लेखकों में से अधिकांश आयुर्वेद की इस सच्चाई को स्वीकार करने या समझ सकने में अक्षम रहे हैं। देश के तथाकथित विद्वान इतिहासकारों ने भी लम्बे समय तक इस तथ्य की वस्तुनिष्ठ व्याख्या नहीं किया। हो सकता है कि अन्तराष्ट्रीय कार्यशालाओं में निमंत्रण न मिलने की आशंका और परिणामस्वरूप मलाई बिगड़ने के भय ने इतिहास की वस्तुनिष्ठता से समझौता करने के लिये मज़बूर किया हो।

जो भी हो, यह बात अब निर्विवाद है कि चरक का काल आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व तथा सुश्रुत का काल छठी शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है। आयुर्वेद के सिद्धांतों से स्पष्ट होता है की व्यायाम न केवल स्वस्थ्य व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा में उपयोगी है अपित व्यायाम स्वयं में एक चिकित्सा की विधि भी है। चरकसंहिता के सूत्रस्थान में व्यायाम पर विस्तृत वर्णन और परिभाषा वस्तुतः विश्व में व्यायाम की सबसे प्राचीन उपलब्ध परिभाषा है। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि व्यायाम की संहिताकालीन व्याख्या तथा समकालीन वैज्ञानिक शोध के निष्कर्षों में अद्भुत समानता है। चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता और अष्टांगहृदय में स्वस्थ शरीर और मन को स्वस्थ रखने हेतु व्यायाम, योग और स्वास्थ्यवृत्त का बड़ा सुन्दर संयोजन उपलब्ध है। व्यायाम की परिभाषा, भली प्रकार से किये गये व्यायाम के परिणाम, त्रुटिपूर्ण व्यायाम के दुष्परिणामों आदि का विस्तृत वर्णन है। व्यायाम के अयोग्य व्यक्ति या वे परिस्थितियों जिनमें व्यायाम नहीं किया जाना चाहिये, इस सबका सारगर्भित विश्लेषण है।
व्यायाम को आचार्य चरक ने बीस प्रकार के कफ रोगों के उपचार के रूप में वर्णित किया है। चरकसंहिता के सूत्रस्थान में व्यायाम शब्द को 46 बार, निदानस्थान में 8 बार, विमानस्थान में 10 बार, शारीरस्थान में 6 बार तथा सिद्धिस्थान में 11 बार एवं चिकित्सास्थान में 38 बार प्रयोग किया गया है। कुल मिलाकर यदि देखा जाये तो चरकसंहिता में 119 बार व्यायाम शब्द का प्रयोग हुआ है। सुश्रुतसंहिता में व्यायाम शब्द का प्रयोग सूत्रस्थान में 23 बार, निदान स्थान में 5 बार, शरीरस्थान में 3 बार, चिकित्सास्थान में 23 बार, कल्पस्थान में 1 बार तथा उत्तर तंत्र में 18 बार प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार वाग्भट ने अष्टांगहृदय के सूत्रस्थान में 19 बार, निदानस्थान में 3 बार, चिकित्सा स्थान में 5 बार और उत्तरस्थान में 3 बार व्यायाम शब्द का प्रयोग दिग्दर्शित किया है।

इससे स्पष्ट है कि आचार्यों ने स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा एवं रोगी को रोगमुक्त करने के संदर्भ में व्यायाम की स्पष्ट भूमिका को दिग्दर्शित किया है।
“व्यायामः स्थैर्यकराणां” चरकसंहिता का एक ऐसा महावाक्य है (च.सू.25.40) जिसका सन्दर्भ विशेष में अर्थ यह है शरीर को स्थिरता देने में व्यायाम सर्वश्रेष्ठ है। व्यायाम को औषधि भी माना गया है (व्यायामः औषधम्। -यजुर्विद आयुर्वेद सूत्र 1.7)। महर्षि चरक द्वारा दी गयी सलाह की मदद से विश्व भर में लोगों द्वारा शारीरिक श्रम न करने के कारण होने वाली बीमारियों से निपटने में नष्ट हो रहे 54 बिलियन डॉलर का अनावश्यक खर्च बचाया जा सकता है। दुनिया के 142 देशों के लिये उपलब्ध उच्चकोटि के आंकड़े, जो दुनिया की 93.2 प्रतिशत आबादी के प्रतिनिधि-आंकड़े हैं, से पता चलता है कि शारीरिक निष्क्रियता के कारण होने वाली बीमारियों जैसे कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक, टाइप-2 मधुमेह, स्तन कैंसर, पेट के कैंसर आदि के उपचार में लगाने वाली सीधी लागत लगभग 54 बिलियन डॉलर है। इसके अलावा, शारीरिक निष्क्रियता से होने वाली मौतों के कारण 13.7 बिलियन डॉलर उत्पादकता घटने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। यही कारण है कि एक बार आज की चर्चा पुनः व्यायाम पर केन्द्रित है|

वर्ष 2016 में विश्व-प्रसिद्ध शोध पत्रिका लैंसेट में 10 लाख से अधिक लोगों के संदर्भ में एकत्र आंकड़ों के आधार पर प्रकाशित एक मेटाएनलिसिस से ज्ञात होता है कि प्रायः कुर्सी में बैठे-बैठे काम करने वाले लोग यदि रोजाना 60 से 75 मिनट व्यायाम करें तो उनके असमय मरने का जोखिम कम हो जाता है। मोटापा प्रबंध के लिये समुचित खानपान के साथ ही सप्ताह में कम से कम 150 मिनट का व्यायाम लाभकारी है। लगभग 14 लाख लोगों के मध्य किये गये अध्ययन के आँकड़े बताते हैं कि व्यायाम 26 प्रकार के कैंसर का जोखिम घटाता है। व्यायाम हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर, मनोरोग सहित कम से कम 22 प्रकार के गैर-संचारी रोगों से बचाव की प्रमाण-आधारित औषधि है। जैसा कि पूर्व में कहा गया है, वास्तव में गैर-संचारी रोग विश्व में 6.3 ट्रिलियन डालर का वित्तीय बोझ डाल रहे हैं, और वर्ष 2030 तक 13 ट्रिलियन डालर तक बढ़ने की आशंका है। गैर-संचारी रोगों के कारण 3.6 करोड़ लोग सालाना दुनिया से चले जाते हैं।

शारीरक श्रम जो स्थिरता और बल बढ़ाने वाला हो वह व्यायाम कहलाता है। इसे समुचित मात्रा में किया जाना चाहिये (च.सू. 7.31): शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी। देहव्यायामसंख्याता मात्रया तां समाचरेत्।। महर्षि सुश्रुत का कथन है कि शरीर को थकाने वाला कार्य ही व्यायाम है (सु.चि. 24.38): शरीरायासजननं कर्म व्यायामसंज्ञितम्। तत् कृत्वा तु सुखं देहं विमृद्नीयात् समन्ततः।। शरीर में पसीना आना, श्वसन का बढ़ना, शरीर के अंगों का हल्का होना, और दिल की धड़कन बढ़ना, समुचित व्यायाम के लक्षण है (च.सू. 7.31-1): स्वेदागमः श्वासवृद्धिर्गात्राणां लाघवं तथा। हृदयाद्युपरोधश्च इति व्यायामलक्षणम्।।

व्यायाम से हल्कापन, कार्य करने की क्षमता, मजबूती, दुःख सहने की क्षमता, शरीर में दोषों की साम्यता, और अग्नि में बढ़ोतरी होती है (च.सू. 7.32): लाघवं कर्मसामर्थ्यं स्थैर्यं दुःखसहिष्णुता। दोषक्षयोऽग्निवृद्धिश्च व्यायामादुपजायते।। सुश्रुत का कथन है कि (सु.चि. 24.39-40): शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता। दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा।। श्रमक्लमपिपासोष्णशीतादीनां सहिष्णुता। आरोग्यं चापि परमं व्यायामादुपजायते।। अर्थात, व्यायाम करने से शरीर की पुष्टि, कान्ति, सौष्ठवपूर्ण अंग, बढ़िया भूख, आलस्य समाप्त होना, स्थिरता, हल्कापन, तथा शरीर की शुद्धि होती है। श्रम, क्लम, प्यास, गर्मी, सर्दी सहने की क्षमता बढ़ती है और व्यायाम से परम आरोग्य उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह लिया जाये कि बैठे-बैठे बढ़िया गुरु भोजन ग्रहण और खटिया-कुर्सी तोड़ते रहना हमारे स्वास्थ्य के अच्छा नहीं है। अपनी आधी ताक़त के शारीरिक श्रम और व्यायाम करना मन-मस्तिष्क, प्राण और शरीर के लिये उपयोगी है।

अष्टांगहृदय में चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता में दिये गये कथनों को समाहित करते हुये कहा गया है (अ.सू. 2.10-14) लाघवं कर्मसामर्थ्यं दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः। विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते।। वातपित्तामयी बालो वृद्धोऽजीर्णी च तं त्यजेत्। अर्धशक्त्या निषेव्यस्तु बलिभिः स्निग्धभोजिभिः।। शीतकाले वसन्ते च मन्दमेव ततोऽन्यदा। तं कृत्वाऽनुसुखं देहं मर्दयेच्च समन्ततः।। तृष्णा क्षयः प्रतमको रक्तपित्तं श्रमः क्लमः। अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते।। व्यायामजागराध्वस्त्रीहास्यभाष्यादि साहसम्। गजं सिंह इवाकर्षन् भजन्नति विनश्यति।।

अति-व्यायाम के कारण थकान, शरीर निढाल होना, दुर्बलता, प्यास, आन्तरिक रक्त प्रवाह, श्वास लेने में कठिनाई, अंधेरा छा जाना, खांसी, बुखार और उबकाई होती है (च.सू. 7.33): श्रमः क्लमः क्षयस्तृष्णा रक्तपित्तं प्रतामकः। अतिव्यायामतः कासो ज्वरश्छर्दिश्च जायते।। कहने का तात्पर्य यह है कि अति-उत्साह में शरीर की मर्यादा का उल्लंघन करके या अपने शरीर की औक़ात को भूलकर कसरत व्यायाम आदि में अति करने से हानि होती है।
अधिक सैक्स, अधिक भार ढोने या अधिक चलने से जो लोग दुर्बल हो गये हैं या गुस्सा, शोक, डर व श्रम से पीड़ित हैं, बालक, बूढ़े, वातपीड़ित, ऊंची आवाज में बहुत बोलने वाले, भूखे या प्यासे हों, उन्हें व्यायाम करना करना ठीक नहीं रहता| अतः यदि संभव हो तो इन समस्याओं से मुक्त होकर ही व्यायाम करना चाहिये (च.सू. 7.35-1,2): अतिव्यवायभाराध्वकर्मभिश्चातिकर्शिताः। क्रोधशोकभयायासैः क्रान्ता ये चापि मानवाः।। बालवृद्धप्रवाताश्च ये चोच्चैर्बहुभाषकाः। ते वर्जयेयुर्व्यायामं क्षुधितास्तृषिताश्च ये।।

व्यायाम को परिभाषित करते हुये महर्षि सुश्रुत ने लिखा है कि जो घूमना-फिरना शरीर के लिये बहुत पीड़ाकारी न हो वह आयु, बल, मेधा तथा अग्निवर्धक होता है और इन्द्रियों के लिये बोधकारी होता है (सु.चि. 24.80): यत्तु चङ्क्रमणं नातिदेहपीडाकरं भवेत्। तदायुर्बलमेधाग्निप्रदमिन्द्रि यबोधनम्।। वस्तुतः व्यायाम शरीर के बल के आधे तक ही करना चाहिये: वलस्यार्धेन कर्तव्यो व्यायामो (सु.चि. 24.47)। व्यायाम करने वाले आदमी को उसके दुश्मन भी डर के मारे नहीं तंग करते| बुढ़ापा भी सहसा नहीं चढ़ बैठता (सु.चि.24.41-42): न च व्यायामिनं मर्त्यमर्दयन्त्यरयो बलात्|| न चैनं सहसाऽक्रम्य जरा समधिरोहति|

पाषाणयुग में मानव रोज 4000 कैलोरी ऊर्जा शारीरिक-श्रम में खर्च देता था| शोध से ज्ञात होता है कि सप्ताहांत में एक या दो बार किया गया शारीरिक व्यायाम भी बीमारी से बचाता है| व्यायाम धूम्रपानकर्ताओं में भी कैंसर व हृदयरोग का खतरा 30 प्रतिशत तक कम कर देता है| व्यायाम करने वाले लोगों में विरुद्ध आहार का असर भी कम ही होता है| कमर दर्द और गर्दन के दर्द को रोकने में शारीरिक गतिविधि एकमात्र लगातार उपयोगी कारक साबित हुआ है| शारीरिक श्रम व बुढ़ापे में स्वास्थ्य के बीच गहरा रिश्ता है|
इसलिये प्रतिदिन व्यायाम कीजिये और स्वस्थ रहिये|

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