Astrology paid service

Astrology paid service To get astro and ta**ra solutions from your problems of personal life, family, careers, marriage, lo

श्री भैरव जयंती विशेष 12 नवंबर 2025बटुक एवं काल भैरव कार्य सिद्धि एवं शत्रु नाशक प्रयोग                                 ...
11/11/2025

श्री भैरव जयंती विशेष 12 नवंबर 2025

बटुक एवं काल भैरव कार्य सिद्धि एवं शत्रु नाशक प्रयोग

।।श्री काल-भैरव।।

भगवान भैरव की महिमा अनेक शास्त्रों में मिलती है। भैरव जहाँ शिव के गण के रूप में जाने जाते हैं, वहीं वे दुर्गा के अनुचारी माने गए हैं। भैरव की सवारी कुत्ता है। चमेली फूल प्रिय होने के कारण उपासना में इसका विशेष महत्व है। साथ ही भैरव रात्रि के देवता माने जाते हैं और इनकी आराधना का खास समय भी मध्य रात्रि में 12 से 3 बजे का माना जाता है।

शास्त्रों के अनुसार भगवान शिव के दो स्वरूप बताए गए हैं। एक स्वरूप में महादेव अपने भक्तों को अभय देने वाले विश्वेश्वरस्वरूप हैं वहीं दूसरे स्वरूप में भगवान शिव दुष्टों को दंड देने वाले कालभैरव स्वरूप में विद्यमान हैं। शिवजी का विश्वेश्वरस्वरूप अत्यंत ही सौम्य और शांत हैं यह भक्तों को सुख, शांति और समृद्धि प्रदान करता है।वहीं भैरव स्वरूप रौद्र रूप वाले हैं, इनका रूप भयानक और विकराल होता है। इनकी पूजा करने वाले भक्तों को किसी भी प्रकार डर कभी परेशान नहीं करता। कलयुग में काल के भय से बचने के लिए कालभैरव की आराधना सबसे अच्छा उपाय है। कालभैरव को शिवजी का ही रूप माना गया है। कालभैरव की पूजा करने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार का डर नहीं सताता है।

भैरव शब्द का अर्थ ही होता है- भीषण, भयानक, डरावना।

भैरव को शिव के द्वारा उत्पन्न हुआ या शिवपुत्र माना जाता है। भगवान शिव के आठ विभिन्न रूपों में से भैरव एक है। वह भगवान शिव का प्रमुख योद्धा है। भैरव के आठ स्वरूप पाए जाते हैं। जिनमे प्रमुखत: काला और गोरा भैरव अतिप्रसिद्ध हैं।

रुद्रमाला से सुशोभित, जिनकी आंखों में से आग की लपटें निकलती हैं, जिनके हाथ में कपाल है, जो अति उग्र हैं, ऐसे कालभैरव को मैं वंदन करता हूं।- भगवान कालभैरव की इस वंदनात्मक प्रार्थना से ही उनके भयंकर एवं उग्ररूप का परिचय हमें मिलता है।

कालभैरव की उत्पत्ति की कथा शिवपुराण में इस तरह प्राप्त होती है-

एक बार मेरु पर्वत के सुदूर शिखर पर ब्रह्मा विराजमान थे, तब सब देव और ऋषिगण उत्तम तत्व के बारे में जानने के लिए उनके पास गए। तब ब्रह्मा ने कहा वे स्वयं ही उत्तम तत्व हैं यानि कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च हैं। किंतु भगवान विष्णु इस बात से सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि वे ही समस्त सृष्टि से सर्जक और परमपुरुष परमात्मा हैं। तभी उनके बीच एक महान ज्योति प्रकट हुई। उस ज्योति के मंडल में उन्होंने पुरुष का एक आकार देखा। तब तीन नेत्र वाले महान पुरुष शिवस्वरूप में दिखाई दिए। उनके हाथ में त्रिशूल था, सर्प और चंद्र के अलंकार धारण किए हुए थे। तब ब्रह्मा ने अहंकार से कहा कि आप पहले मेरे ही ललाट से रुद्ररूप में प्रकट हुए हैं। उनके इस अनावश्यक अहंकार को देखकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए और उस क्रोध से भैरव नामक पुरुष को उत्पन्न किया। यह भैरव बड़े तेज से प्रज्जवलित हो उठा और साक्षात काल की भांति दिखने लगा।

इसलिए वह कालराज से प्रसिद्ध हुआ और भयंकर होने से भैरव कहलाने लगा। काल भी उनसे भयभीत होगा इसलिए वह कालभैरव कहलाने लगे। दुष्ट आत्माओं का नाश करने वाला यह आमर्दक भी कहा गया। काशी नगरी का अधिपति भी उन्हें बनाया गया। उनके इस भयंकर रूप को देखकर बह्मा और विष्णु शिव की आराधना करने लगे और गर्वरहित हो गए।

लौकिक और अलौकिक शक्तियों के द्वारा मानव जीवन में सफलता पायी जा सकती है, लेकिन शक्तियां जहां स्थिर रहती है, वहीं अलौकिक शक्तियां हर पल, हर क्षण मनुष्य के साथ-साथ रहती है। अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने का श्रोत मात्र देवी देवताओं की साधना, उपासना शीघ्र फलदायी मानी गई है।

कालभैरव भगवान शिव के पांचवें स्वरूप है तो विष्णु के अंश भी है। इनकी उपासना मात्र से ही सभी प्रकार के दैहिक, दैविक, मानसिक परेशानियों से शीघ्र मुक्ति मिलती है। कोई भी मानव इनकी पुजा, आराधना, उपासना से लाभ उठा सकता है। आज इस विषमता भरे युग में मानव को कदम-कदम पर बाधाओं, विपत्तियों और शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में मंत्र साधना ही इन सब समस्याओं पर विजय दिलाता है। शत्रुओं का सामना करने, सुख-शान्ति समृद्धि में यह साधना अति उत्तम है।

शिव पुराण में वर्णित है--

भैरव: पूर्ण रूपोहि शंकर परात्मन: भूगेस्तेवैन जानंति मोहिता शिव भामया:।

देवताओं ने श्री कालभैरव की उपासना करते हुए बताया है कि काल की तरह रौद्र होने के कारण यह कालराज है। मृत्यु भी इनसे भयभीत रहती है। यह कालभैरव है इसलिए दुष्टों और शत्रुओं का नाश करने में सक्षम है। तंत्र शास्त्र के प्रव‌र्त्तक आचार्यो ने प्रत्येक उपासना कर्म की सिद्धि के लिए किए जाने वाले जप पाठ आदि कर्र्मो के आरंभ में भगवान भैरवनाथ की आज्ञा प्राप्त करने का निर्देश किया है।

अतिक्रूर महाकाय, कल्पानत-दहनोपय,भैरवाय नमस्तुभ्यमेनुझां दातुमहसि।

इससे स्पष्ट है कि सभी पुजा पाठों की आरंभिक प्रक्रिया में भैरवनाथ का स्मरण, पूजन, मंत्रजाप आवश्यक होते है। श्री काल भैरव का नाम सुनते ही बहुत से लोग भयभीत हो जाते है और कहते है कि ये उग्र देवता है। अत: इनकी साधना वाम मार्ग से होती है इसलिए यह हमारे लिए उपयोगी नहीं है। लेकिन यह मात्र उनका भ्रम है। प्रत्येक देवता सात्विक, राजस और तामस स्वरूप वाले होते है, किंतु ये स्वरूप उनके द्वारा भक्त के कार्र्यो की सिद्धि के लिए ही धरण किये जाते है। श्री कालभैरव इतने कृपालु एवं भक्तवत्सल है कि सामान्य स्मरण एवं स्तुति से ही प्रसन्न होकर भक्त के संकटों का तत्काल निवारण कर देते है।

तंत्राचार्यों का मानना है कि वेदों में जिस परम पुरुष का चित्रण रुद्र में हुआ, वह तंत्र शास्त्र के ग्रंथों में उस स्वरूप का वर्णन 'भैरव' के नाम से किया गया, जिसके भय से सूर्य एवं अग्नि तपते हैं। इंद्र-वायु और मृत्यु देवता अपने-अपने कामों में तत्पर हैं, वे परम शक्तिमान 'भैरव' ही हैं। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है।

तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं।

वामकेश्वर तंत्र की योगिनीहदयदीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं-

'विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌ सृष्टि-स्थिति-संहारकारी परशिवो भैरवः।'

भ- से विश्व का भरण, र- से रमश, व- से वमन अर्थात सृष्टि को उत्पत्ति पालन और संहार करने वाले शिव ही भैरव हैं। तंत्रालोक की विवेक-टीका में भगवान शंकर के भैरव रूप को ही सृष्टि का संचालक बताया गया है।

श्री तंत्वनिधि नाम तंत्र-मंत्र में भैरव शब्द के तीन अक्षरों के ध्यान के उनके त्रिगुणात्मक स्वरूप को सुस्पष्ट परिचय मिलता है, क्योंकि ये तीनों शक्तियां उनके समाविष्ट हैं

'भ' अक्षरवाली जो भैरव मूर्ति है वह श्यामला है, भद्रासन पर विराजमान है तथा उदय कालिक सूर्य के समान सिंदूरवर्णी उसकी कांति है। वह एक मुखी विग्रह अपने चारों हाथों में धनुष, बाण वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।

'र' अक्षरवाली भैरव मूर्ति श्याम वर्ण हैं। उनके वस्त्र लाल हैं। सिंह पर आरूढ़ वह पंचमुखी देवी अपने आठ हाथों में खड्ग, खेट (मूसल), अंकुश, गदा, पाश, शूल, वर तथा अभय धारण किए हुए हैं।

'व' अक्षरवाली भैरवी शक्ति के आभूषण और नरवरफाटक के सामान श्वेत हैं। वह देवी समस्त लोकों का एकमात्र आश्रय है। विकसित कमल पुष्प उनका आसन है। वे चारों हाथों में क्रमशः दो कमल, वर एवं अभय धारण करती हैं।

स्कंदपुराण के काशी- खंड के 31वें अध्याय में उनके प्राकट्य की कथा है।

गर्व से उन्मत ब्रह्माजी के पांचवें मस्तक को अपने बाएं हाथ के नखाग्र से काट देने पर जब भैरव ब्रह्म हत्या के भागी हो गए, तबसे भगवान शिव की प्रिय पुरी 'काशी' में आकर दोष मुक्त हुए।

ब्रह्मवैवत पुराण के प्रकृति खंडान्तर्गत दुर्गोपाख्यान में आठ पूज्य निर्दिष्ट हैं- महाभैरव, संहार भैरव, असितांग भैरव, रूरू भैरव, काल भैरव, क्रोध भैरव, ताम्रचूड भैरव, चंद्रचूड भैरव। लेकिन इसी पुराण के गणपति- खंड के 41वें अध्याय में अष्टभैरव के नामों में सात और आठ क्रमांक पर क्रमशः कपालभैरव तथा रूद्र भैरव का नामोल्लेख मिलता है।

तंत्रसार में वर्णित आठ भैरव असितांग, रूरू, चंड, क्रोध, उन्मत्त, कपाली, भीषण संहार नाम वाले हैं।

भैरव कलियुग के जागृत देवता हैं। शिव पुराण में भैरव को महादेव शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। इनकी आराधना में कठोर नियमों का विधान भी नहीं है। ऐसे परम कृपालु एवं शीघ्र फल देने वाले भैरवनाथ की शरण में जाने पर जीव का निश्चय ही उद्धार हो जाता है।

भैरव के नाम जप मात्र से मनुष्य को कई रोगों से मुक्ति मिलती है। वे संतान को लंबी उम्र प्रदान करते है। अगर आप भूत-प्रेत बाधा, तांत्रिक क्रियाओं से परेशान है, तो आप शनिवार या मंगलवार कभी भी अपने घर में भैरव पाठ का वाचन कराने से समस्त कष्टों और परेशानियों से मुक्त हो सकते हैं।

जन्मकुंडली में अगर आप मंगल ग्रह के दोषों से परेशान हैं तो भैरव की पूजा करके पत्रिका के दोषों का निवारण आसानी से कर सकते है। राहु केतु के उपायों के लिए भी इनका पूजन करना अच्छा माना जाता है। भैरव की पूजा में काली उड़द और उड़द से बने मिष्‍ठान्न इमरती, दही बड़े, दूध और मेवा का भोग लगानालाभकारी है इससे भैरव प्रसन्न होते है।

भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। तंत्र के ये जाने-माने महान देवता काशी के कोतवाल माने जाते हैं। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अपनी अनेक समस्याओं का निदान कर सकते हैं। भैरव कवच से असामायिक मृत्यु से बचा जा सकता है।

खास तौर पर कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से आपको अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल सकती है। भारत भर में कई परिवारों में कुलदेवता के रूप में भैरव की पूजा करने का विधान हैं।

वैसे तो आम आदमी, शनि, कालिका माँ और काल भैरव का नाम सुनते ही घबराने लगते हैं, ‍लेकिन सच्चे दिल से की गई इनकी आराधना आपके जीवन के रूप-रंग को बदल सकती है। ये सभी देवता आपको घबराने के लिए नहीं बल्कि आपको सुखी जीवन देने के लिए तत्पर रहते है बशर्ते आप सही रास्ते पर चलते रहे।

भैरव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण करके उनके कर्म सिद्धि को अपने आशीर्वाद से नवाजते है। भैरव उपासना जल्दी फल देने के साथ-साथ क्रूर ग्रहों के प्रभाव को समाप्त खत्म कर देती है। शनि या राहु से पीडि़त व्यक्ति अगर शनिवार और रविवार को काल भैरव के मंदिर में जाकर उनका दर्शन करें। तो उसके सारे कार्य सकुशल संपन्न हो जाते है।

शिव के अवतार श्री कालभैरव अपने भक्तों पर तुरंत प्रसन्न हो जाते हैं। साथ ही इनकी आराधना करने पर हमारे कई बुरे गुण स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं। आदर्श और उच्च जीवन व्यतीत करने के लिए कालभैरव से भी शिक्षा ली जा सकती हैं।

जीवन प्रबंधन से जुड़े कई संदेश श्री भैरव देते हैं-

भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप माना गया है। भगवान शंकर के इस अवतार से हमें अवगुणों को त्यागना सीखना चाहिए। भैरव के बारे में प्रचलित है कि ये अति क्रोधी, तामसिक गुणों वाले तथा मदिरा के सेवन करने वाले हैं। इस अवतार का मूल उद्देश्य है कि मनुष्य अपने सारे अवगुण जैसे- मदिरापान, तामसिक भोजन, क्रोधी स्वभाव आदि भैरव को समर्पित कर पूर्णत: धर्ममय आचरण करें। भैरव अवतार हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हर कार्य सोच-विचार कर करना ही ठीक रहता है। बिना विचारे कार्य करने से पद व प्रतिष्ठा धूमिल होती है।

श्रीभैरवनाथसाक्षात् रुद्र हैं। शास्त्रों के सूक्ष्म अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वेदों में जिस परमपुरुष का नाम रुद्र है, तंत्रशास्त्रमें उसी का भैरव के नाम से वर्णन हुआ है।

तन्त्रालोक की विवेकटीका में भैरव शब्द की यह व्युत्पत्ति दी गई है- बिभíत धारयतिपुष्णातिरचयतीतिभैरव: अर्थात् जो देव सृष्टि की रचना, पालन और संहार में समर्थ है, वह भैरव है। शिवपुराणमें भैरव को भगवान शंकर का पूर्णरूप बतलाया गया है। तत्वज्ञानी भगवान शंकर और भैरवनाथमें कोई अंतर नहीं मानते हैं। वे इन दोनों में अभेद दृष्टि रखते हैं।

भैरव शब्द के तीन अक्षरों भ-र-वमें ब्रह्मा-विष्णु-महेश की उत्पत्ति-पालन-संहार की शक्तियां सन्निहित हैं। नित्यषोडशिकार्णव की सेतुबन्ध नामक टीका में भी भैरव को सर्वशक्तिमान बताया गया है-भैरव: सर्वशक्तिभरित:।शैवोंमें कापालिकसम्प्रदाय के प्रधान देवता भैरव ही हैं। ये भैरव वस्तुत:रुद्र-स्वरूप सदाशिवही हैं। शिव-शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की उपासना कभी फलीभूत नहीं होती। यतिदण्डैश्वर्य-विधान में शक्ति के साधक के लिए शिव-स्वरूप भैरवजीकी आराधना अनिवार्य बताई गई है।

रुद्रयामल में भी यही निर्देश है कि तन्त्रशास्त्रोक्तदस महाविद्याओंकी साधना में सिद्धि प्राप्त करने के लिए उनके भैरव की भी अर्चना करें। उदाहरण के लिए कालिका महाविद्याके साधक को भगवती काली के साथ कालभैरवकी भी उपासना करनी होगी। इसी तरह प्रत्येक महाविद्या-शक्तिके साथ उनके शिव (भैरव) की आराधना का विधान है। दुर्गासप्तशतीके प्रत्येक अध्याय अथवा चरित्र में भैरव-नामावली का सम्पुट लगाकर पाठ करने से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आते हैं, इससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। श्रीयंत्रके नौ आवरणों की पूजा में दीक्षाप्राप्तसाधक देवियों के साथ भैरव की भी अर्चना करते हैं।

अष्टसिद्धि के प्रदाता भैरवनाथके मुख्यत:आठ स्वरूप ही सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं पूजित हैं। इनमें भी कालभैरव तथा बटुकभैरव की उपासना सबसे ज्यादा प्रचलित है। काशी के कोतवाल कालभैरवकी कृपा के बिना बाबा विश्वनाथ का सामीप्य नहीं मिलता है। वाराणसी में निíवघ्न जप-तप, निवास, अनुष्ठान की सफलता के लिए कालभैरवका दर्शन-पूजन अवश्य करें। इनकी हाजिरी दिए बिना काशी की तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं होती। इसी तरह उज्जयिनीके कालभैरवकी बडी महिमा है। महाकालेश्वर की नगरी अवंतिकापुरी(उज्जैन) में स्थित कालभैरवके प्रत्यक्ष मद्य-पान को देखकर सभी चकित हो उठते हैं।

धर्मग्रन्थों के अनुशीलन से यह तथ्य विदित होता है कि भगवान शंकर के कालभैरव-स्वरूपका आविर्भाव मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की प्रदोषकाल-व्यापिनीअष्टमी में हुआ था, अत:यह तिथि कालभैरवाष्टमी के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन भैरव-मंदिरों में विशेष पूजन और श्रृंगार बडे धूमधाम से होता है। भैरवनाथके भक्त कालभैरवाष्टमी के व्रत को अत्यन्त श्रद्धा के साथ रखते हैं। मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रदोष-व्यापिनी अष्टमी के दिन कालभैरवकी पूजा, दर्शन तथा व्रत करने से भीषण संकट दूर होते हैं और कार्य-सिद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है। पंचांगों में इस अष्टमी को कालाष्टमी के नाम से प्रकाशित किया जाता है।

ज्योतिषशास्त्र की बहुचíचत पुस्तक लाल किताब के अनुसार शनि के प्रकोप का शमन भैरव की आराधना से होता है। भैरवनाथके व्रत एवं दर्शन-पूजन से शनि की पीडा का निवारण होगा। कालभैरवकी अनुकम्पा की कामना रखने वाले उनके भक्त तथा शनि की साढेसाती, ढैय्या अथवा शनि की अशुभ दशा से पीडित व्यक्ति इस कालभैरवाष्टमीसे प्रारम्भ करके वर्षपर्यन्तप्रत्येक कालाष्टमीको व्रत , भैरवनाथकी उपासना करें।

कालाष्टमीमें दिन भर उपवास रखकर सायं सूर्यास्त के उपरान्त प्रदोषकालमें भैरवनाथकी पूजा करके प्रसाद को भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है।

मन्त्रविद्याकी एक प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि से महाकाल भैरव का यह मंत्र मिला है-

ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकालभैरवाय नम:।

इस मंत्र का 21हजार बार जप करने से बडी से बडी विपत्ति दूर हो जाती है।।

साधक भैरव जी के वाहन श्वान (कुत्ते) को नित्य कुछ खिलाने के बाद ही भोजन करे।

साम्बसदाशिवकी अष्टमूíतयोंमें रुद्र अग्नि तत्व के अधिष्ठाता हैं। जिस तरह अग्नि तत्त्‍‌व के सभी गुण रुद्र में समाहित हैं, उसी प्रकार भैरवनाथभी अग्नि के समान तेजस्वी हैं। भैरवजीकलियुग के जाग्रत देवता हैं। भक्ति-भाव से इनका स्मरण करने मात्र से समस्याएं दूर होती हैं।

इनका आश्रय ले लेने पर भक्त निर्भय हो जाता है। भैरवनाथअपने शरणागत की सदैव रक्षा करते हैं

सामान्य व्यक्ति भक्ति भाव से इनकी पूजा कर इनकी कृपा प्राप्त कर सकता है, किंतु इनकी साधना के लियर पहले इनकी दीक्षा लें उसके बाद ही साधना करें।

क्योंकि भैरव जयंती के दिन श्री भैरव जी का प्राकट्य हुआ था इसलिए इनका बाल स्वरुप भी अति पूजनीय और अति शीघ्र फल देने वाला है।

इनकी प्रसन्नता हेतु इनके कवच, मन्त्र का जप और अष्टोत्तरशत नाम का पाठ अति फलदायी है।

यदि ये प्रयोग 41 दिन तक कर लिया जाये तो व्यक्ति का असम्भव लगने वाला कठिन से कठिन कार्य भी श्री बटुक भैरव की कृपा से अति शीघ्र सिद्ध हो जाता है।

श्री वटुक भैरव अष्टोत्तर शतनाम का विशेष महत्व है ।इसके 21 पाठ मन्त्र सहित विधि सहित कोई नित्य करें तो ये सिद्ध हो जाता है और फिर जाग्रत रूप से कार्य करता है।रोग दोष आधी व्याधि का नाश करता है।इससे अभिमन्त्रित भस्म जल किसी रोगी पर छिड़कने से रोग दूर हो जाता है किसी पर कोई ऊपरी बाधा हो तो वो दूर हो जाती है।बहुत ही अच्छा और कृपा
करने वाला है।कलियुग में अन्य देवता तो समय आने पर फल देते है पर भगवान वटुक भैरव जिस दिन से इन्हें पूजो उसी दिन से अपना प्रभाव दिखाने लगते है।

बटुक भैरव रक्षार्थ है और देवी के पुत्र स्वरूप है।

तांत्रोक्त भैरव कवच

ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः |
पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु ||
पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा |
आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः ||
नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे |
वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः ||
भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा |
संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ||
ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः |
सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः ||
रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु |
जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च ||
डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः |
हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः ||
पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः |
मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा ||
महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा |
वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा ||

इस आनंददायक कवच का प्रतिदिन पाठ करने से प्रत्येक विपत्ति में सुरक्षा प्राप्त होती है| यदि योग्य गुरु के निर्देशन में इस कवच का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाए तो साधक सर्वत्र विजयी होकर यश, मान, ऐश्वर्य, धन, धान्य आदि से पूर्ण होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है|

भैरव अष्टोत्तरशत नाम स्तोत्र:-

व ध्यान –वन्दे बालं स्फटिक-सदृशम्, कुन्तलोल्लासि-वक्त्रम्।दिव्याकल्पैर्नव-मणि-मयैः, किंकिणी-नूपुराढ्यैः॥दीप्ताकारं विशद-वदनं, सुप्रसन्नं त्रि-नेत्रम्।हस्ताब्जाभ्यां बटुकमनिशं, शूल -दण्डौ दधानम्॥

अर्थात् भगवान् श्री बटुक-भैरव बालक रुपी हैं। उनकी देह-कान्ति स्फटिक की तरह है। घुँघराले केशों से उनका चेहरा प्रदीप्त है। उनकी कमर और चरणों में नव मणियों के अलंकार जैसे किंकिणी, नूपुर आदि विभूषित हैं। वे उज्जवल रुपवाले, भव्य मुखवाले, प्रसन्न-चित्त और त्रिनेत्र-युक्त हैं। कमल के समान सुन्दर दोनों हाथों में वे शूल औरदण्ड धारण किए हुए हैं।

भगवान श्री बटुक-भैरव के इस सात्विक ध्यान से सभी प्रकार की अप-मृत्यु का नाश होता है, आपदाओं का निवारण होता है, आयु की वृद्धि होती है, आरोग्य और मुक्ति-पद लाभ होता है।

मानसिक पूजन करे :-ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये घ्रापयामि नमः।
ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये निवेदयामि नमः।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमद् आपदुद्धारण-बटुक-भेरव-प्रीतये समर्पयामि नमः।

ॐ भैरवो भूत-नाथश्च, भूतात्मा भूत-भावनः।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्र-पालश्च, क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट् ॥
श्मशान-वासी मांसाशी, खर्पराशी स्मरान्त-कृत्।
रक्तपः पानपः सिद्धः, सिद्धिदः सिद्धि-सेवितः॥
कंकालः कालः-शमनः, कला-काष्ठा-तनुः कविः।
त्रि-नेत्रो बहु-नेत्रश्च, तथा पिंगल-लोचनः॥
शूल-पाणिः खड्ग-पाणिः, कंकाली धूम्र-लोचनः।
अभीरुर्भैरवी-नाथो, भूतपो योगिनी – पतिः॥
धनदोऽधन-हारी च, धन-वान् प्रतिभागवान्।
नागहारो नागकेशो, व्योमकेशः कपाल-भृत्॥
कालः कपालमाली च, कमनीयः कलानिधिः।
त्रि-नेत्रो ज्वलन्नेत्रस्त्रि-शिखी च त्रि-लोक-भृत्॥
त्रिवृत्त-तनयो डिम्भः शान्तः शान्त-जन-प्रिय।
बटुको बटु-वेषश्च, खट्वांग -वर – धारकः॥
भूताध्यक्षः पशुपतिर्भिक्षुकः परिचारकः।
धूर्तो दिगम्बरः शौरिर्हरिणः पाण्डु – लोचनः॥
प्रशान्तः शान्तिदः शुद्धः शंकर-प्रिय-बान्धवः।
अष्ट -मूर्तिर्निधीशश्च, ज्ञान- चक्षुस्तपो-मयः॥
अष्टाधारः षडाधारः, सर्प-युक्तः शिखी-सखः।
भूधरो भूधराधीशो, भूपतिर्भूधरात्मजः॥
कपाल-धारी मुण्डी च , नाग- यज्ञोपवीत-वान्।
जृम्भणो मोहनः स्तम्भी, मारणः क्षोभणस्तथा॥
शुद्द – नीलाञ्जन – प्रख्य – देहः मुण्ड -विभूषणः।
बलि-भुग्बलि-भुङ्- नाथो, बालोबाल –
पराक्रम॥
सर्वापत् – तारणो दुर्गो, दुष्ट- भूत- निषेवितः।
कामीकला-निधिःकान्तः, कामिनी वश-कृद्वशी॥
जगद्-रक्षा-करोऽनन्तो, माया – मन्त्रौषधी -मयः।
सर्व-सिद्धि-प्रदो वैद्यः, प्रभ – विष्णुरितीव हि॥
॥फल-श्रुति॥

अष्टोत्तर-शतं नाम्नां, भैरवस्य महात्मनः।
मया ते कथितं देवि, रहस्य सर्व-कामदम्॥
य इदं पठते स्तोत्रं, नामाष्ट – शतमुत्तमम्।
न तस्य दुरितं किञ्चिन्न च भूत-भयं तथा॥
न शत्रुभ्यो भयंकिञ्चित्, प्राप्नुयान्मानवः क्वचिद्।
पातकेभ्यो भयं नैव, पठेत् स्तोत्रमतः सुधीः॥
मारी-भये राज-भये, तथा चौ राग्निजे भये।
औत्पातिके भये चैव, तथा दुःस्वप्नज भये॥
बन्धने च महाघोरे, पठेत् स्तोत्रमनन्य-धीः।
सर्वं प्रशममायाति, भयं भैरव – कीर्तनात्॥

॥ क्षमा-प्रार्थना ॥
आवाहन न जानामि, न जानामि विसर्जनम्।
पूजा-कर्म न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर॥
मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वर।
मया यत्-पूजितं देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥

श्री बटुक-बलि-मन्त्रः

घर के बाहर दरवाजे के बायीं ओर दो लौंग तथा गुड़ की डली रखें । निम्न तीनों में से किसी एक मन्त्र २१ का उच्चारण करें, आपके घर के विघ्न बाधा और उपद्रव शांत होंगे।

१. ॥ॐ ॐ ॐ एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारण-बटुक-भैरव-नाथ, सर्व-विघ्नान् नाशय नाशय, इमं स्तोत्र-पाठ-पूजनं सफलं कुरु कुरु सर्वोपचार-सहितं बलि मिमं गृह्ण गृह्ण स्वाहा, एष बलिर्वं बटुक-भैरवाय नमः॥

२. ॥ॐ ह्रीं वं एह्येहि देवी-पुत्र, श्री मदापद्धुद्धारक-बटुक-भैरव-नाथ कपिल-जटा-भारभासुर ज्वलत्पिंगल-नेत्र सर्व-कार्य-साधक मद्-दत्तमिमं यथोपनीतं बलिं गृह्ण् मम् कर्माणि साधय साधय सर्वमनोरथान् पूरय पूरय सर्वशत्रून् संहारय ते नमः वं ह्रीं ॐ॥

३. ॥ॐ बलि-दानेन सन्तुष्टो, बटुकः सर्व-सिद्धिदः रक्षां करोतु मे नित्यं, भूत-वेताल-सेवितः॥

पाठ से पहले एक माला वटुक मन्त्र की सभी पाठो के बाद एक माला वटुक भैरव की अनिवार्य है, ॐ के बाद ह्रीं लगाकर करें।

प्रत्येक पाठ के पहले और बाद में वटुक भैरव मन्त्र का सम्पुट लगाये।

तेल का दीपक के सामने पाठ करे।और वहीँ एक लड्डू या गुड़ रख ले पूजा होने पर पूजा समर्पण करे और उसके बाद उस लड्डू को घर से बाहर
रख आये या कोई कुत्ता मिले उसे खिला दे कोई न मिले तो चौराहे पर रख दे। ये बलिद्रव्य होता है।

आसन से उठने से पहले आसन के नीचे की भूमि मस्तक से लगाये फिर आसन से उठे ऐसा न करने पर पूजा का आधा फल इंद्र ले लेता है।

1. शत्रु नाश् उपाय :

मित्रों, काफी मित्रों ने पूछा की आज यानि भैरव अष्टमी पर क्या करें तो ये प्रयोग आप आज शाम अपने घर या भैरव मंदिर में कर सकते हैं।

1-यदि आप भी अपने शत्रुओं से परेशान हैं तो आज शाम ये उपाए करें और अपने शत्रुओं से मुक्ति पायें।

एक सफ़ेद कागज़ पर भैरव मंत्र जपते हुए काजल से शत्रु या शत्रुओं के नाम लिखें और उनसे मुक्त करने की प्रार्थना करते हुए एक छोटी सी शहद की शीशी जो 15₹ की किसी भी कंपनी की मिल जाएगी में ये कागज़ मोड़ के डुबो दें व् ढक्कन बंद कर किसी भी भैरव मंदिर या शनि मंदिर में गाड़ दें। यदि संभव न हो तो किसी पीपल के नीचे भी गाड़ सकते हैं। कुछ दिनों में शत्रु स्वयं कष्ट में होगा और आपको छोड़ देगा।

मंत्र जप पूरी प्रक्रिया के दौरान करते रहना होगा। अर्थात नाम लिखने से लेकर गाड़ने तक।
मंत्र:

ॐ क्षौं क्षौं भैरवाय स्वाहा।
ॐ न्यायागाम्याय शुद्धाय योगिध्येयाय ते नम:।
नम: कमलाकांतय कलवृद्धाय ते नम:।

2.शत्रुओं से छुटकारा पाने हेतु एक लघु प्रयोग:-

इस प्रयोग से एक बार से ही शत्रु शांत हो जाता है और परेशान करना छोड़ देता है पर यदि जल्दी न सुधरे तो पांच बार तक प्रयोग कर सकते हैं।

ये प्रयोग शनी, राहु एवं केतु ग्रह पीड़ित लोगों के लिए भी बहुत फायदेमंद है।

इसके लिए किसी भी मंगलवार या शनिवार को भैरवजी के मंदिर जाएँ और उनके सामने एक आटे का चौमुखा दीपक जलाएं। दीपक की बत्तियों को रोली से लाल रंग लें। फिर शत्रु या शत्रुओं को याद करते हुए एक चुटकी पीली सरसों दीपक में डाल दें। फिर निम्न श्लोक से उनका ध्यान कर 21बार निम्न मन्त्र का जप करते हुए एक चुटकी काले उड़द के दाने दिए में डाले। फिर एक चुटकी लाल सिंदूर दिए के तेल के ऊपर इस तरह डालें जैसे शत्रु के मुंह पर डाल रहे हों। फिर 5 लौंग ले प्रत्येक पर 21 21 जप करते हुए शत्रुओं का नाम याद कर एक एक कर दिए में ऐसे डालें जैसे तेल में नहीं किसी ठोस चीज़ में गाड़ रहे हों। इसमें लौंग के फूल वाला हिस्सा ऊपर रहेगा।

फिर इनसे छुटकारा दिलाने की प्रार्थना करते हुए प्रणाम कर घर लौट आएं।

ध्यान :-

ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तम शशिश्कलधरम मुण्डमालं महेशम्।

दिग्वस्त्रं पिंगकेशं डमरुमथ सृणिखडगपाशाभयानि।।

नागं घण्टाकपालं करसरसिरुहैर्बिभ्रतं भीमद्रष्टम।

दिव्यकल्पम त्रिनेत्रं मणिमयविलसदकिंकिणी नुपुराढ्यम।।

मन्त्र:-

ॐ ह्रीं भैरवाय वं वं वं ह्रां क्ष्रौं नमः।

यदि भैरव मन्दिर न हो तो शनि मन्दिर में भी ये प्रयोग कर सकते हैं।

दोनों न हों तो पूरी क्रिया घर में दक्षिण मुखी बैठ कर भैरव जी का पूजन कर उनके समक्ष कर लें और दीपक मध्य रात्रि में किसी चौराहे पर रख आएं। चौराहे पर भी ये प्रयोग कर सकते हैं। परन्तु याद रहे चौराहे पर करेंगे तो कोई देखे न वरना कोई टोक सकता है जादू टोना करने वाला भी समझ सकता है। चौराहें पर करें तो चुपचाप बिना पीछे देखे घर लौट आएं हाथ मुंह धोकर ही किसी से बात करें।

यदि एक बार में शत्रु पूर्णतः शांत न हो तो 5 बार तक एक एक हफ्ते बाद कर सकते हैं।

उक्त प्रयोग शत्रु के उच्चाटन हेतु भी कर सकते हैं पर उसमे बत्ती मदार के कपास की बनेगी और दीपक शत्रु के मुख्य द्वार के सामने जलाना होगा।

किसी प्रकार की जानकारी ,कुंडली विश्लेषण या समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।

।।जय श्री राम।।

हमसे जुड़ने और लगातार नए एवं सरल उपयो के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें:-

https://www.facebook.com/Astrology-paid-service-552974648056772/

हमारे ब्लॉग को सब्सक्राइब करें:-

http://jyotish-ta**ra.blogspot.com

।। देव्यथर्वशीर्षम् ।।शाक्तपरम्परा में देव्याथर्वशीर्ष पाठ का अत्यधिक महत्व है। इस अथर्वशीर्ष के पाठ करने से, इसके साथ ह...
04/11/2025

।। देव्यथर्वशीर्षम् ।।

शाक्तपरम्परा में देव्याथर्वशीर्ष पाठ का अत्यधिक महत्व है। इस अथर्वशीर्ष के पाठ करने से, इसके साथ ही अन्य चारों अथर्वशीर्ष गणपति, शिव, नारायण एवं सूर्य अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है। देवीभागवत महापुराण के अनुसार महाशक्ति पराम्बा ही ब्रह्म का स्वरूप हैं। इन्हीं की शक्ति से भगवान् ब्रह्मा विश्व की उत्पत्ति करते हैं, भगवान् विष्णु सृष्टि का पालन करते हैं तथा भगवान् शिव जगत् का संहार करते हैं, अर्थात् सृजन पालन एवं संहार करने वाली पराशक्ति ही हैं और यही दस महाविद्या स्वरूप में अधिष्ठित हैं। इस अथर्वशीर्ष के पाठात्मक अनुष्ठान से पापों का नाश, महासंकट से मुक्ति, भगवत्प्राप्ति, वाणी की सिद्धि एवं भगवत् साक्षात्कार की प्राप्ति होती है । नवार्णमन्त्र “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इसी अथर्वशीर्ष में प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष का पाठ समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति करता है।

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ॥ १॥
साब्रवीत् - अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ॥ २॥
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ॥ ३॥

ॐ सभी देवता देवी के समीप गये और विनम्र भाव से पूछने लगे-हे महादेवि ! तुम कौन हो ? ॥ देवी ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ । मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है।

मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य-जगत् मैं ही हूँ ।

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ॥ ४॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ॥ ५॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ॥ ६ ॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति ॥७॥

वेद और अवेद भी मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ ।

मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ ।

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को मापने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु ( वामन), ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ।

देवों को उत्तम हवि पहुँचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञादि में (यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि वृत्ति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति प्राप्त करता है ।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥८॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं, वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥९॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप वैष्णवीं सुष्टुतैतु ॥१०॥
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥११॥
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥१२॥

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है । महादेवी एवं कल्याणी को सदा नमस्कार है । गुणसाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी प्रकृति देवी को नमस्कार है। दैनिक हम उन्हें प्रणाम करते हैं उन अग्निके समान वर्णवाली, तप से चमकने वाली, दीप्तिमती, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली हे देवि ! तुम्हें नमस्कार है ।

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनुतुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देने वाली वाणीरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमें आशीष प्रदान करें ।

काल को भी समाप्त करने वाली, वेदों द्वारा जिसकी स्तुति होती है, विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ।

हम महालक्ष्मीको जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणीका ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमें सन्मार्गमें प्रवृत्त करें ।

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ १३॥
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥ १४॥
एषाऽऽत्मशक्ति: । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ॥ १५ ।।
नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ॥ १६ ॥

हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा - वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल-वर्ण और माया (ह्रीं) - यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ।

ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष, और बाण धारण करने वाली हैं । ये श्रीमहाविद्या हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है ।

भगवती ! आपको नमस्कार है । माता ! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो ।

सैषाष्टौ वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः । सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च । सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः। सैषा सत्वरजस्तमांसि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । कलाका-ष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ॥
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ॥ १७॥
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् ।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥१८॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्ध चेतस:।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥१९॥

( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वसु हैं, वही ये एकादश रुद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले
विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस) असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज- तम हैं, वही ये ब्रह्म-विष्णु-रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इन्द्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष प्रदान करने वाली, अन्तरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं ।

वियत्-आकाश (ह) तथा 'ई'कार से युक्त, वीतिहोत्र -अग्नि (र) सहित, अर्धचन्द्र से सुशोभित जो देवीका बीज है, वह सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (हीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान का सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता) है। ॐकारके समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है। संक्षेपमें इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान- क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।) ।

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥२०॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥२१॥

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू - काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र' - दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् 'ऐ' से युक्त (यै) और 'विच्चे' यह नवार्णमन्त्र उपासकों को परमानन्द एवं मोक्षप्रदाता है ।

[इस मन्त्रका अर्थ- हे चैतन्यस्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सत्यस्वरूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम निरन्तर आपका ध्यान करते हैं । हे महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।]

हृदय कमल के मध्य रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूप वाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र धारण करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ ।

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥ २२ ॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया । यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता । यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या । यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा । एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥२३॥
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ २४ ॥

महाभयका नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली और महान् करुणा की साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अन्त नहीं मिलता- इसलिये जिसे अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता-इसलिये जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है-इसलिये जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही समस्त रूपों में सजी हुई है-इसलिये जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिये अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती हैं ।

सब मन्त्रोंमें 'मातृका' – मूलाक्षररूप से रहनेवाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं ।

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥ २५ ॥

इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजप-फलमाप्नोति । इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति - शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति । शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ।

दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥ २६ ॥

उन दुर्विज्ञेय, दुराचारनाशिनी और संसारसागर से पार लगाने वाली दुर्गादेवीको इस जगत् से भयभीत हुआ मैं नमस्कार करता हूँ ।

इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के पाठ का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष के बिना पाठ किये ही जो प्रतिमास्थापन आदि करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता । इस अथर्वशीर्ष का १०८ बार जप करने से इसका पुरश्चरण होता है। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवीके कृपा से बड़े से बड़े संकट को पार कर जाता है ।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्-सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवता सान्निध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

इसका सायंकाल में पाठ करने वाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल में पाठ करने वाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं तथा प्रातः दोनों समय पाठ करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में (तुरीय) सन्ध्या के समय जप करने से वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। नूतन प्रतिमा के समक्ष जप करने से देवता की सन्निधि प्राप्त होती है। प्राण-प्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। अमृतसिद्धियोग में देवी के सान्निध्य में जप करने से वह साधक महामृत्यु से पार हो जाता है। जो इस विधि को जानता है वह महामृत्यु से पार हो जाता है। इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या का वचन है।

।। इस प्रकार देवी अथर्वशीर्ष के माहात्म्य के विषय में बतलाया गया है । यह अथर्वशीर्ष विद्या सर्वमोक्ष प्रदायिनी तथा कल्याण करने वाली है ।

।।जय श्री राम।।

7579400465
8909521616(whats ap)

हमसे जुड़ने और लगातार नए एवं सरल उपयो के लिए हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें:-
https://www.facebook.com/Astrology-paid-service-552974648056772/

हमारे ब्लॉग को सब्सक्राइब करें:-
http://jyotish-ta**ra.blogspot.com

Address

Haldwani
263139

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Astrology paid service posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Share

Share on Facebook Share on Twitter Share on LinkedIn
Share on Pinterest Share on Reddit Share via Email
Share on WhatsApp Share on Instagram Share on Telegram