06/08/2025
❗हिमालयवासी गुरुसत्ता से साक्षात्कार❗
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परम पूज्य गुरुदेव के बाल्यकाल में ही पन्द्रह वर्ष की आयु के बाद आए वसंत पर्व के ब्रह्ममुहूर्त में पूजा की कोठरी में, एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ। उस दिव्य प्रकाश से सारी कोठरी जगमगा उठी। प्रकाश के मध्य एक योगी का सूक्ष्म छाया शरीर उभरा। इनका स्थूल शरीर एक ऐसे कृशकाय सिद्धपुरुष के रूप में है, जो अनादिकाल से एकाकी, नग्न, मौन, निराहार रहकर अपनी तप-ऊर्जा द्वारा अपने को अधिकाधिक प्रचण्ड-प्रखर बनाता चला आ रहा है। एक दिगम्बर देहधारी हिमराशि के मध्य खड़ी दुर्बल काया-यह तो स्थूल रूप में उपलब्ध उनका एकमात्र चित्र है, जो गुरुदेव की पहली हिमालययात्रा के समय उनके आग्रह पर स्वयं स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी ने उनके समक्ष प्रस्तुत किया। यही चित्र गायत्री परिवार में दृश्य प्रतीक के रूप में आज भी उपलब्ध है।
किन्तु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है, उनका सूक्ष्म अस्तित्व, जिसमें वे गति, काल दिशा से परे सतत परिभ्रमण करते व अन्यान्य ऋषि-सत्ताओं की तरह प्रचण्ड प्राणधारी आत्माओं को मार्गदर्शन देते दिखाई देते हैं। वे ही अपने सूक्ष्म रूप में दिव्य प्रकाश के रूप में गुरुदेव के समक्ष आये एवं उनके कौतूहल को समाप्त करते हुए बोले- "हमारे-तुम्हारे जन्म-जन्मांतरों के संबंध हैं। तुम्हारे पिछले जन्म एक से एक बढ़कर रहे हैं, किन्तु प्रस्तुत जीवन और भी विलक्षण है। इस जन्म में समस्त अवतारी सत्ताओं के समतुल्य पुरुषार्थ करना है, भारतीय संस्कृति के नवोन्मेष हेतु एक विशाल संगठन देवमानवों का खड़ा करना है तथा इसके लिए प्रचण्ड तप-पुरुषार्थ करना है।"
पूज्य गुरुदेव सन् 1985 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'हमारी वसीयत और विरासत' में लिखते हैं कि "हमने तो कभी गुरु की खोज नहीं की, फिर यह अकारण अनुकम्पा किसलिए ?" अदृश्य से इस प्रकटीकरण ने उनके अंदर असमंजस पैदा किया। उनके इस असमंजस को, चिन्तन चेतना को उस सूक्ष्म शरीरधारी सत्ता ने पढ़ लिया व कहा कि "देवात्माएँ जिनके साथ सम्बन्ध जोड़ती हैं, उन्हें परखती हैं, उनकी अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करती हैं। शक्तिसम्पन्न महामानव अकारण अपनी सामर्थ्य किसी निरर्थक व्यक्ति के निमित्त नहीं गँवाते। सूक्ष्म शरीरधारी होने के नाते जो काम हम नहीं कर सकते, वह स्थूलशरीर के माध्यम से तुम से कराएँगे। समय की विषमताओं को मिटाने के लिए तुम्हारा प्रयोग करेंगे। देखने में तो यों तुम्हारा दृश्यजीवन साधारण व्यक्ति के समान होगा, पर कर्त्तव्य सभी असाधारण होंगे, तुमसे सीमित आयु में हम कई सौ वर्ष का कार्य करा लेंगे व समय आने पर तुम्हें वापस बुला लेंगे ताकि हमारी ही तरह युगसंधि वेला में प्रचण्ड पुरुषार्थ सम्पन्न कर प्रत्यक्ष शरीरधारी देवमानवों को नवयुग की पृष्ठभूमि बनाने हेतु पर्याप्त शक्ति मिले। दृश्य कर्त्तव्य जो तुम्हें करना है, उसके लिए पर्याप्त आत्मबल, ब्रह्मवर्चस चाहिए, जो तप द्वारा ही संभव हो सकता है।"
अपनी गुरुसत्ता व अपने बीच वार्तालाप के इस प्रसंग को पूज्य गुरुदेव ने स्वयं अपने निकटतम कार्यकर्त्ताओं को वार्तालाप के दौरान सुनाया था। जो समयानुसार प्रकाशित होना था, उसे वे समय-समय पर बताते रहे। लिपिबद्ध यह अभिव्यक्ति उन्हीं की अनुभूति है। कई प्रसंग ऐसे हैं, जो प्रकाशित नहीं हुए, क्योंकि उन पर विराम लगा दिया गया था। अब उनके निर्देशानुसार ही उनका अनावरण किया जा रहा है।
स्वयं पूज्य गुरुदेव कहते थे कि हमने मात्र जिज्ञासुओं के समाधान हेतु रामकृष्ण परमहंस, समर्थ रामदास, कबीर के रूप में सम्पन्न कर्त्तव्य का अपनी कलम से उल्लेख किया है, पर हमें मात्र इन्हीं तीन बन्धनों में बाँधने न लगे। इन विवेचनों से तात्पर्य यही है कि जो भी पहले बन पड़ा, वह प्रकट व अप्रकट रूप से कई अवतारी सत्ताओं के द्वारा बन पड़े कार्यों के समकक्ष था व आगे जो किया जाना था इससे भी कई गुना था। "आगे जब भी हमारा मूल्यांकन किया जाएगा तो लोग समझेंगे कि हमने कितने महापुरुषों के रूप में जीवन इस अस्सी वर्ष की आयु में ही जिया है। इतना कुछ करके पहले से ही रख दिया है, सब कुछ अपनी परोक्ष सत्ता के मार्गदर्शन में किया, वर्षों शोधकर्ता उसका मूल्यांकन करके स्वयं को बड़भागी मानते रहेंगे।"
24 लक्ष के 24 गायत्री महापुरश्चरण करने का निर्देश -
महान् मार्गदर्शक सत्ता का पहला आदेश था-चौबीस लक्ष के चौबीस गायत्री महापुरश्चरण अगले दिनों सम्पन्न करना। उन्होंने कहा- "चाहे कितनी भी प्रतिकूलताएँ आएँ, तुम्हें लक्ष्य अवश्य पूरा करना है। इस बीच कुछ समय स्वतंत्रता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ सकती है, पर नियम-भंग मत होने देना। जो भी समयाक्षेप उधर हो, उसकी पूर्ति कड़ी तपस्या करके बाद में कर लेना है ताकि इसकी पूर्ति पर तुमसे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जा सकें। इस बीच चार बार हिमालय बुलाने की बात उन्होंने कही। कभी एक वर्ष के लिए, कभी कम अवधि के लिए।" हिमालय बुलाया जाना इसलिए जरूरी था कि वह सिद्ध आत्माओं की साधनास्थली है। वह ऐसा पारस है, जिसका स्पर्श मात्र कर व्यक्ति तपे कुन्दन की तरह निखर जाता है।
स्थूल हिमालय तो हिमाच्छादित पहाड़ भर है, जो पाकिस्तान से लेकर बर्मा की सीमा तक फैला है, पर उनके गुरुदेव का आशय उस हिमालय से था, जो उसका हृदय माना जाता है, उत्तराखण्ड का वह क्षेत्र जो दुर्गम है तथा यमुनोत्री ग्लेशियर से लेकर नन्दादेवी तक जिसका विस्तार है। यहीं वे ऋषिसत्ताएँ निवास करती हैं, जिनका आध्यात्मिक प्रकाश अभी भी भारतीय संस्कृति के मूल्यों को जिन्दा रखें हुए है।
कभी पं. मदनमोहन मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु भूमिपूजन हेतु यहाँ से स्वामी कृष्णाश्रम जी को बुलाया था। परमहंस योगानन्द जी की पुस्तक 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी' में लाहिड़ी महाशय के गुरु महावतार बाबा का जो उल्लेख किया गया है, वे भी यहीं सूक्ष्मशरीर धरकर रहते थे। थियॉसाफी की संस्थापिका मैडम ब्लावट्स्की के अनुसार अदृश्य सिद्धपुरुषों की पार्लियामेंट इसी दुर्गम क्षेत्र में है, जिसे अध्यात्म चेतना का 'ध्रुवकेन्द्र' माना गया है। यहीं सभी सूक्ष्मशरीरधारी ऋषिसत्ताएँ निवास करती हैं तथा यहीं देवताओं की क्रीड़ास्थली भी है। पृथ्वी पर कभी स्वर्ग रहा होगा तो वह यहीं रहा होगा, ऐसी पूज्य गुरुदेव की अपनी बार-बार की हिमालय यात्रा के बाद मान्यता रही।
हिमालय यात्रा कब करनी है, इसका निर्देश समय-समय पर सूक्ष्मप्रेरणा के रूप में किए जाने की बात कह कर उस परोक्षसत्ता ने तीसरा निर्देश दिया कि जन्म-जन्मान्तरों से पुण्य संग्रह करती आ रही देवसत्ताओं की पक्षधर जाग्रतात्माओं को संगठित कर एक माला में पिरोया जाना है। वे ही नवयुग निर्माण, सतयुग की वापसी में प्रमुख भूमिका निबाहेंगी। इसके लिए उन्होंने पूजा गृह में जल रही दीपक ज्योति को लक्ष्य कर 'अखण्ड ज्योति' नाम से समय आने पर विचारक्रांति को सरंजाम पूरा करने वाली एक पत्रिका आरंभ करने की बात कही व कहा कि उस दीपक को अब सतत जलाते रहना। इसके प्रकाश से तुम्हें प्रेरणा मिलती रहेगी एवं समष्टिगत प्रवाह से वे सभी विचार प्राप्त होते रहेंगे, जिनके माध्यम से अगले दिनों अध्यात्म तंत्र का परिष्कार, नवयुग का सूत्रपात होना है। "अखण्ड दीपक ही समय-समय पर परोक्ष जगत से आने वाले दैवी मार्गदर्शन को तुम तक पहुँचाएगा, अतः जहाँ भी रहो, इसे अपने पास पूजागृह में रखना। इसका दर्शन मात्र लोगों का कल्याण कर देगा।"
चौथा मार्गदर्शन था चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरणों की समाप्ति पर एक विशाल सहस्रकुण्डी महायज्ञ आयोजित करना ताकि दैवी सत्ता की अंशधारी आत्माएँ एक स्थान पर एकत्र हो सकें। इन्हीं में से गायत्री परिवार रूप संगठन का बीजांकुर उभरने व कालान्तर में वृक्ष का रूप लेने की बात वे बता गए। यह भी कह गए कि समय-समय पर वे बताते रहेंगे कि उन्हें कौन-सा कदम उठाना है ? कब-कहाँ स्थान परिवर्तन करना है, क्या कार्यक्रम कहाँ से आरम्भ करना है। वे तो मात्र एक समर्पित शिष्य की तरह अपना कर्त्तव्य निबाहते रहें, शक्ति उन्हें सतत उनके द्वारा प्राप्त होती रहेगी।
दिव्य प्रकाशधारी सत्ता ने निर्देश दिया कि जो आत्मबल का उपार्जन अगले दिनों होगा, उसका नियोजन प्रतिकूलताओं से जूझने, नवसृजन का आधार खड़ा करने तथा देवताओं की, ऋषियों की प्राणशक्ति का अंश लेकर जन्मी जागृत आत्माओं का एक परिवार खड़ा करने के निमित्त करना है। उनका मूक निर्देश था कि "प्रस्तुत वेला परिवर्तन की है। इसमें अगणित अभावों की एक साथ पूर्ति करनी है, साथ ही एक साथ चढ़-दौड़ी अनेकानेक विपत्तियों से जूझना है। इसके लिए व्यापक स्तर पर ऋषि सत्ताओं द्वारा जो मोर्चेबन्दी पहले की जाती रही है, उसकी झलक-झाँकी भी तुम्हें दिखाएँगे तथा तुम्हें किस प्रकार यह सब करना है, यह भी सतत बताते रहेंगे। आगे उन्होंने बताया कि - "हम लोगों की तरह तुम्हें भी सूक्ष्मशरीर के माध्यम से अति महत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। इसके लिए पूर्वाभ्यास हिमालय यात्रा द्वारा सम्पन्न होगा।" (अखण्ड-ज्योति अप्रैल १९८५ पृष्ट ९)
संभवतः गुरुदेव के सूक्ष्म शरीरधारी मार्गदर्शक ने यही उचित समझा कि अपने सुयोग्य शिष्य से उसके उपासनागृह में साक्षात्कार कर उसके अंदर छिपे महामानव का, अवतारी सत्ता का उसे परिचय करा दिया जाए ताकि भविष्य में जो किया जाना है, उसका पूरा खाका उसके दिमाग में बैठ सके। समस्त मानव जाति का व विश्व का कल्याण उन्हें जिस प्रयोजन में दीखा, उसे पूरा करने के लिए प्रकाशपुंज के रूप में आए व तप-साधना का आदर्श ही नहीं, अटूट विश्वास और प्रचण्ड साहस, पर्याप्त मनोबल देकर चले गए। दिव्य सत्ताओं का प्यार-अनुदान भी विचित्र होता है। वसंत पंचमी के उस ब्रह्ममुहूर्त में गुरुदेव ने अपना तप, आत्मबल शिष्य पर उड़ेलकर उसकी चेतना को झकझोर दिया, आत्मबोध कराया एवं शिष्य ने अपना आपा, अस्तित्व ही उन्हें समर्पित कर दिया।
समर्पण में स्वयं की इच्छा कैसी ? जो मार्गदर्शक की इच्छा वही अपनी इच्छा। तर्क की वहाँ कोई गुंजाइश ही नहीं। कठपुतली तो बाजीगर के इशारे पर नाचती है। पोली वंशी कृष्ण के मुँह से लगी, वही अलापती चली गयी जो तान छेड़ी गई। यह समर्पण ही गुरुदेव को वह सारी शक्ति सामर्थ्य दे गया, जिसकी परिणति आज इतने बड़े युगान्तरकारी मिशन संगठन व विश्वव्यापी समुदाय के रूप में दिखाई देती है। धन्य है वह गुरु, धन्य है ऐसा शिष्य।
--'ब्रह्मकमल' स्मारिका से साभार 🌺