03/11/2025
आज सुबह — वही बेचैनी जो ज़िंदगी को चलाती है
हम डॉक्टरों की ज़िंदगी अक्सर दो दुनियाओं के बीच चलती है —
एक, जो लगातार गतिशील है;
दूसरी, जो शांति की तलाश में है।
पर क्या मैं सच में इनमें से किसी को खोज रहा हूँ?
शायद नहीं।
अब तक का मेरा जीवन, मेरे साहस, महत्वाकांक्षा और कर्म का परिणाम है —
सफलताएँ और असफलताएँ, दोनों उसी यात्रा का हिस्सा हैं।
मैं गढ़ा जा रहा हूँ, या बिखर रहा हूँ — यह मेरे बस में नहीं।
यह दुनिया निरंतर बदल रही है, और उसमें मैं खुद को एक निर्माण स्थल की तरह महसूस करता हूँ —
जहाँ सृजन चल रहा है।
मैं बस एक ईंट हूँ उस दीवार की।
पर इस जागरूकता को थामे रखना आसान नहीं।
दिन और रात के इस चक्र में धीरे-धीरे यह एहसास मिटता जाता है,
और वह ईंट खुद को पूरी दीवार समझने लगती है।
यात्रा का आनंद गंतव्य में खो जाता है।
शांति लक्ष्य बन जाती है, और बेचैनी असहनीय।
पर यही ‘बेचैनी’ जब हम टालने लगते हैं,
जीवन सिमटने लगता है —
सुविधा विवेक पर हावी हो जाती है, और दृष्टि धुंधली।
दार्शनिक इसे मृगतृष्णा कहते हैं।
लेकिन फिर यह हमारी चेतना में स्थिर क्यों नहीं होती?
क्यों यह भ्रम ही हमें सबसे वास्तविक लगता है?
शायद अनुभव इसे समझाए — या शायद कभी नहीं।
विडंबना यह है कि यही झूठ दुनिया को चलाता है।
हम सब उसी के पीछे भागते हैं,
जैसे कुत्ते कारों के पीछे भागते हैं —
और जब पकड़ भी लेते हैं, तो समझ नहीं आता कि करें क्या। (जोकर, द डार्क नाइट)
माइकल जैक्सन की यह पंक्तियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं —
> “इंसान की चाहत होती है सच्चाई को छूने की,
और उसे इस तरह व्यक्त करने की कि अपने अनुभव — चाहे दुःख हों या आनंद —
जीवन को अर्थ दें, और शायद दूसरों के जीवन को भी छू जाएँ।
यही कला का सर्वोच्च रूप है।”
शायद यही बेचैनी — यही अशांति — असल में सबसे सच्ची है।
— डॉ. प्रतीक तिवारी
नेत्र रोग विशेषज्ञ | अंतर्दृष्टि नेत्रालय
💭 एक ऐसी सुबह का चिंतन, जो साधारण नहीं थी।