30/11/2025
हार्ट अटैक ‘किस्मत’ से नहीं, ‘किचन’ से आ रहा है। क्या आपने कभी सोचा है?हमारे पूर्वज देसी घी, मक्खन, कोल्हू के तेल आदि खाने में उपयोग करते थे, फिर भी उनका हृदय 90 साल तक बिना रुके धड़कता था। आज हम ‘कोलेस्ट्रॉल फ्री’ और ‘हार्ट हेल्दी’ तेल खा रहे हैं, फिर भी 30 साल के युवाओं का हृदय रुक रहा है।
गड़बड़ हमारे ‘भाग्य’ में नहीं, हमारे ‘भोजन’ में है। इतिहास: भोजन या मशीनी कचरा? जिस ‘रिफाइंड तेल’ को आज हम स्वास्थ्य मानकर खरीद रहे हैं, 100 साल पहले तक उसे ‘खाद्य पदार्थ’ माना ही नहीं जाता था।
असली कहानी केवल ‘मशीनों में ग्रीस’ लगाने जैसे अन्य कार्यों में होती थी, यह एक ‘औद्योगिक कचरा’ था, लेकिन मुनाफे के लिए कचरे को ‘भोजन’ बना दिया गया। विज्ञान: तेल नहीं, ‘तरल प्लास्टिक’इस तेल को बनाने की प्रक्रिया जान लेंगे तो रूह कांप जाएगी:
बीजों को 200°C पर उबाला जाता है (सारे पोषक तत्व नष्ट)।हेग्जेन (पेट्रोलियम) से धोया जाता है।ब्लीच से इसका रंग और गंध उड़ाई जाती है।नतीजा?एक ऐसा “मृत तरल” (Dead Liquid) जो शरीर में पचता नहीं, बल्कि नसों (arteries) में जाकर “प्लास्टर” की तरह जम जाता है।असली षड्यंत्र: संस्कृति पर वारयह केवल सेहत का मुद्दा नहीं था, यह “भारत की रीढ़” को तोड़ने का षड्यंत्र था।
उन्होंने हमारे गो‑वंश पर आक्रमण कर कत्लखानों द्वारा उसे beef का उत्पाद बना दिया, जिससे हमें शुद्ध घी न मिले और कोल्हू भी इसी के चपेट में आकर बंद हो गए, जिससे हमें शुद्ध तेल भी मिलना बंद हो गया; इनकी चाह यह थी कि हम पूर्णतः इम्पोर्ट निर्भर रहें।उद्देश्य साफ था: “न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी” (न घी होगा, न स्वस्थ भारत होगा)। इसलिए अपने पूर्वजों की बुद्धि पर भरोसा करो, टीवी विज्ञापनों पर नहीं।
कोल्हू घानी (सरसों, तिल, नारियल, मूंगफली) अपनाएं।देसी गाय का घी अमृत है, वह नसों को ब्लॉक नहीं, क्लीन करता है; यह स्वास्थ्य फैक्ट्री के पैकेट में नहीं, ‘प्रकृति’ की गोद में मिलता है।यह प्रयास केवल आपको उस ‘मूल’ से जोड़ने का है, ताकि आप ‘आजीवन ग्राहक’ बनने के बजाय ‘आजीवन स्वस्थ’ रह सकें, आजीवन निरोगी रह सकें।
साभार: विवेक सिंह
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