Siddharth Joshi

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15/03/2023

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निर्जला एकादशी 21 जून 2021 विशेष〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️एकादशी व्रत हिन्दुओ में सबसे अधिक प्रचलित व्रत माना जाता है। वर्ष में...
21/06/2021

निर्जला एकादशी 21 जून 2021 विशेष
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एकादशी व्रत हिन्दुओ में सबसे अधिक प्रचलित व्रत माना जाता है। वर्ष में चौबीस एकादशियाँ आती हैं, किन्तु इन सब एकादशियों में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली समझी जाती है क्योंकि इस एक एकादशी का व्रत रखने से वर्ष भर की एकादशियों के व्रत का फल प्राप्त होता है। निर्जला-एकादशी का व्रत अत्यन्त संयम साध्य है। इस युग में यह व्रत सम्पूर्ण सुख भोग और अन्त में मोक्ष दायक कहा गया है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है।

निर्जला एकादशी का महत्त्व
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ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को निर्जला एकादशी का व्रत किया जाता है। निर्जला यानि यह व्रत बिना जल ग्रहण किए और उपवास रखकर किया जाता है। इसलिए यह व्रत कठिन तप और साधना के समान महत्त्व रखता है। हिन्दू पंचाग अनुसार वृषभ और मिथुन संक्रांति के बीच शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है। इस व्रत को भीमसेन एकादशी या पांडव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि भोजन संयम न रखने वाले पाँच पाण्डवों में एक भीमसेन ने इस व्रत का पालन कर सुफल पाए थे। इसलिए इसका नाम भीमसेनी एकादशी भी हुआ।

हिन्दू धर्म में एकादशी व्रत का मात्र धार्मिक महत्त्व ही नहीं है, इसका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के नज़रिए से भी बहुत महत्त्व है। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु की आराधना को समर्पित होता है। इस दिन जल कलश, गौ का दान बहुत पुण्य देने वाला माना गया है। यह व्रत मन को संयम सिखाता है और शरीर को नई ऊर्जा देता है। यह व्रत पुरुष और महिलाओं दोनों द्वारा किया जा सकता है। वर्ष में अधिकमास की दो एकादशियों सहित 26 एकादशी व्रत का विधान है। जहाँ साल भर की अन्य 25 एकादशी व्रत में आहार संयम का महत्त्व है। वहीं निर्जला एकादशी के दिन आहार के साथ ही जल का संयम भी जरुरी है। इस व्रत में जल ग्रहण नहीं किया जाता है यानि निर्जल रहकर व्रत का पालन किया जाता है।

ऐसी धार्मिक मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मात्र निर्जला एकादशी का व्रत करने से साल भर की पच्चीस एकादशी का फल पा सकता है। यहाँ तक कि अन्य एकादशी के व्रत भंग होने के दोष भी निर्जला एकादशी के व्रत से दूर हो जाते हैं। कुछ व्रती इस दिन एक भुक्त व्रत भी रखते हैं यानि सांय दान-दर्शन के बाद फलाहार और दूध का सेवन करते हैं।

निर्जला एकादशी पूजा विधि
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इस व्रत में एकादशी तिथि के सूर्योदय से अगले दिन द्वादशी तिथि के सूर्योदय तक जल और भोजन का त्याग किया जाता है। इसके बाद दान, पुण्य आदि कर इस व्रत का विधान पूर्ण होता है। धार्मिक महत्त्व की दृष्टि से इस व्रत का फल लंबी उम्र, स्वास्थ्य देने के साथ-साथ सभी पापों का नाश करने वाला माना गया है। एकादशी के दिन सर्वप्रथम भगवान विष्णु की विधिपूर्वक पूजा करें। पश्चात् 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करे। इस दिन व्रत करने वालों को चाहिए कि वह जल से कलश भरे व सफ़ेद वस्त्र को उस पर ढककर रखें और उस पर चीनी तथा दक्षिणा रखकर ब्राह्मण को दान दें। तदोपरान्त नियमानुसार नारायण कवच का पाठ करें। पाठ के बाद भगवान नारायण की आरती करें।

विधि – उत्तर दिशा में मुख करके बैठ जाएं। तत्पश्चात 3 बार आचमन करके आसन एवं देह की शुद्धि करके ॐ ॐ नमः पादयोः। ॐ नं नमो जान्वोः। ॐ मों नमः ऊर्वो:। ॐ नां नमः उदरे। ॐ रां नमो हृदि। ॐ यं नमो उरसि। ॐ णां नमो मुखे। ॐ यं नमः शिरसि।

ॐ ॐ नमो दक्षिणतर्जन्यां, ॐ नं नमो दक्षिणमध्यमायां ,ॐ मों नमो दक्षिणानामिकायां, ॐ भं नमो दक्षिणकनिष्ठिकायाम् ॐ गं नमो वामकनिष्ठिकायाम्, ॐ वं नमो वामानामिकायाम्, ॐ तें नमो वाममध्मायाम्, ॐ वां नमो वामतर्जन्याम्, ॐ सुं नमः दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि, ॐ दें नमो दक्षिणांगुष्ठाधःपर्वणि, ॐ वां नमो वामान्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि, ॐ यं नमो वामान्गुष्ठाधः पर्वणि –

इन मंत्रो से तत्तदंगों में न्यास करके निम्नलिखित मन्त्र से दिग्बन्धन करें –

ॐ मः अस्त्राय फट् प्राच्याम् ,ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेय्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् दक्षिणस्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् नैर्ऋत्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् प्र्तीच्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्याम्, ॐ मः अस्त्राय फट् कौबेर्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् ईशान्याम्, ॐ मः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वायाम्,ॐ मः अस्त्राय फट् अधरायाम्, इसके बाद पाठ आरंभ करें

॥ नारायणकवचम् ॥
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राजोवाच ।

यया गुप्तः सहस्राक्षः सवाहान्रिपुसैनिकान् ।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ॥1॥

भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम् ।
यथाऽऽततायिनः शत्रून् येन गुप्तोऽजयन्मृधे ॥2॥

श्रीशुक उवाच ।

वृतः पुरोहितस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते ।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु ॥3॥

विश्वरूप उवाच ।

धौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ्मुखः ।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः ॥4॥

नारायणमयं वर्म सन्नह्येद्भय आगते ।
दैवभूतात्मकर्मभ्यो नारायणमयः पुमान् |
पादयोर्जानुनोरूर्वोरुदरे हृद्यथोरसि ॥5॥

मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत् ।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा ॥6॥

करन्यासं ततः कुर्याद्द्वादशाक्षरविद्यया ।
प्रणवादियकारान्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु ॥7॥

न्यसेद्धृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि ।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत् ॥8॥

वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु ।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद्बुधः ॥9॥

सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत् ।
ॐ विष्णवे नम इति ॥10॥

आत्मानं परमं ध्यायेद्ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम् ।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत् ॥11॥

ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां
न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे ।
दरारिचर्मासिगदेषुचाप-
पाशान्दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥12॥

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्ति-
र्यादोगणेभ्यो वरुणस्य पाशात् ।
स्थलेषु मायावटुवामनोऽव्यात्
त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ॥13॥

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः
पायान्नृसिंहोऽसुरयूथपारिः ।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं
दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ॥14॥

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः
स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः ।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे
सलक्ष्मणोऽव्याद्भरताग्रजोऽस्मान् ॥15॥

मामुग्रधर्मादखिलात्प्रमादा-
न्नारायणः पातु नरश्च हासात् ।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः
पायाद्गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ॥16॥

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवा-
द्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।
देवर्षिवर्यः पुरुषार्चनान्तरात्
कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ॥17॥

धन्वन्तरिर्भगवान्पात्वपथ्या-
द्द्वन्द्वाद्भयादृषभो निर्जितात्मा ।
यज्ञश्च लोकादवताञ्जनान्ता-
द्बलो गणात्क्रोधवशादहीन्द्रः ॥18॥

द्वैपायनो भगवानप्रबोधा-
द्बुद्धस्तु पाखण्डगणप्रमादात् ।
कल्किः कलेः कालमलात्प्रपातु
धर्मावनायोरुकृतावतारः ॥19॥

मां केशवो गदया प्रातरव्या-
द्गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः ।
नारायणः प्राह्ण उदात्तशक्ति-
र्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ॥20॥

देवोऽपराह्णे मधुहोग्रधन्वा
सायं त्रिधामावतु माधवो माम् ।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे
निशीथ एकोऽवतु पद्मनाभः ॥21॥

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः
प्रत्युष ईशोऽसिधरो जनार्दनः ।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते
विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ॥22॥

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि
भ्रमत्समन्ताद्भगवत्प्रयुक्तम् ।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमाशु
कक्षं यथा वातसखो हुताशः ॥23॥

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि ।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-भूतग्रहांश गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे
निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि ।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षो-
भूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ॥24॥

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृ-
पिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् ।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो
भीमस्वनोऽरेहृदयानि कम्पयन् ॥25॥

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्य-
मीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।
चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय
द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ॥26॥

यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत्केतुभ्यो नृभ्य एव च ।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य वा ॥27॥

सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् ।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयःप्रतीपकाः ॥28॥

गरुडो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः ।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ॥29॥

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः ।
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान्पान्तु पार्षदभूषणाः ॥30॥

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् ।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ॥31॥

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् ।
भूषणायुधलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ॥32॥

तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः ।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ॥33॥

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्ता-
दन्तर्बहिर्भगवान्नारसिंहः।
प्रहापयंलोकभयं स्वनेन
स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ॥34॥

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारायणात्मकम् ।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ॥35॥

एतद्धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।
पदा वा संस्पृशेत्सद्यः साध्वसात्स विमुच्यते ॥36॥

न कुतश्चिद्भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् ।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ॥37॥

इमां विद्यां पुरा कश्चित्कौशिको धारयन् द्विजः ।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरुधन्वनि ॥38॥

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा ।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ॥39॥

गगनान्न्यपतत्सद्यः सविमानो ह्यवाक्षिराः ।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ॥40॥

श्रीशुक उवाच ।

य इदं शृणुयात्काले यो धारयति चादृतः ।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ॥41॥

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः ।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ॥42॥

॥ इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे नारायणवर्मकथनंनामाष्टमोऽध्यायः ॥

निर्जला एकादशी के दान
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इस एकादशी का व्रत करके यथा सामर्थ्य अन्न, जल, वस्त्र, आसन, जूता, छतरी, पंखी तथा फलादि का दान करना चाहिए। इस दिन विधिपूर्वक जल कलश का दान करने वालों को वर्ष भर की एकादशियों का फल प्राप्त होता है। इस एकादशी का व्रत करने से अन्य तेईस एकादशियों पर अन्न खाने का दोष छूट जाएगा तथा सम्पूर्ण एकादशियों के पुण्य का लाभ भी मिलेगा। इस प्रकार जो इस पवित्र एकादशी का व्रत करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर अविनाशी पद प्राप्त करता है। भक्ति भाव से कथा श्रवण करते हुए भगवान का कीर्तन करना चाहिए।

निर्जला एकादशी व्रत की कथा
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निर्जला एकादशी व्रत का पौराणिक महत्त्व और आख्यान भी कम रोचक नहीं है। जब सर्वज्ञ वेदव्यास ने पांडवों को चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया था।

युधिष्ठिर ने कहा- जनार्दन! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हे राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवती नन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं|

तब वेदव्यासजी कहने लगे- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है। द्वादशी के दिन स्नान करके पवित्र हो और फूलों से भगवान केशव की पूजा करे। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे।

यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव, ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि भीमसेन एकादशी को तुम भी न खाया करो परन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी।

भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा- यदि तुम नरक को दूषित समझते हो और तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और तो दोनों पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन नहीं करना।

भीमसेन बोले महाबुद्धिमान पितामह! मैं आपके सामने सच कहता हूँ। मुझसे एक बार भोजन करके भी व्रत नहीं किया जा सकता, तो फिर उपवास करके मैं कैसे रह सकता हूँ। मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुनि ! मैं पूरे वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करुँगा।

व्यासजी ने कहा- भीम! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।’

एकादशी व्रत करने वाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाव वाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आख़िर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।

जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।

कुन्तीनन्दन! निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो- उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँति के मिष्ठानों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं। जिन्होंने शम, दम, और दान में प्रवृत हो श्रीहरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस ‘निर्जला एकादशी’ का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आने वाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि "मैं भगवान केशव की प्रसन्नता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करुँगा।" द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे।

संसारसागर से तारने वाले हे देव ह्रषीकेश! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये।

भीमसेन! ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुँचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है। यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोक में ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से विख्यात हुई।

श्रीभगवान जगदीश्वर जी की आरती
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ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥ ॐ जय जगदीश…

जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिनसे मन का।
सुख सम्पति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥ ॐ जय जगदीश…

मात पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूं मैं जिसकी॥ ॐ जय जगदीश…

तुम पूरण परमात्मा, तुम अंतरयामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सब के स्वामी॥ ॐ जय जगदीश…

तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं सेवक तुम स्वामी, कृपा करो भर्ता॥ ॐ जय जगदीश…

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥ ॐ जय जगदीश…

दीनबंधु दुखहर्ता, तुम रक्षक मेरे।
करुणा हाथ बढ़ाओ, द्वार पड़ा तेरे॥ ॐ जय जगदीश…

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा॥ ॐ जय जगदीश…
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सोम प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि 〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प...
07/06/2021

सोम प्रदोष व्रत परिचय एवं प्रदोष व्रत विस्तृत विधि
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प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है।

ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए।

यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है।

प्रदोष व्रत की महत्ता
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शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दौ गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा।

उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी. इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म- जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।

व्रत से मिलने वाले फल
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अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है।

जैसे👉 सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है। सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है। जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है।

गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है। शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है। अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए। अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है।

व्रत विधि
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सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं। फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत (चावल), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं। फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें। फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं।और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें। बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। इसके बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें। अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात में जागरण करें।

प्रदोष व्रत समापन पर उद्धापन
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इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।

उद्धापन करने की विधि
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इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।

इस व्रत का उद्धापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. "ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात 108 बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है।

हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है। और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है।

सोम प्रदोष व्रत
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सूत जी बताने लगे- “सोम त्रयोदशी प्रदोष व्रत से शिव-पार्वती प्रसन्न होते हैं । व्रती के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं ।”व्रत कथा
एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी । उसके पति का स्वर्गवास हो गया था । उसका अब कोई आश्रयदाता नहीं था, इसलिए प्रातः होते ही वह अपने पुत्र के साथ भीख मांगने निकल पड़ती थी । भिक्षाटन से ही वह स्वयं व पुत्र का पेट पालती थी ।
एक दिन ब्राह्मणी घर लौट रही थी तो उसे एक लड़का घायल अवस्था में कराहता हुआ मिला । ब्राह्मणी दयावश उसे अपने घर ले आई । वह लड़का विदर्भ का राजकुमार था । शत्रु सैनिकों ने उसके राज्य पर आक्रमण कर उसके पिता को बन्दी बना लिया था और राज्य पर नियंत्रण कर लिया था, इसलिए वह मारा-मारा फिर रहा था । राजकुमार ब्राह्मण-पुत्र के साथ ब्राह्मणी के घर रहने लगा । एक दिन अंशुमति नामक एक गंधर्व कन्या ने राजकुमार को देखा और उस पर मोहित हो गई । अगले दिन अंशुमति अपने माता-पिता को राजकुमार से मिलाने लाई । उन्हें भी राजकुमार भा गया । कुछ दिओं बाद अंशुमति के माता-पिता को शंकर भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि राजकुमार और अंशुमति का विवाह कर दिया जाए ।उन्होंने वैसा ही किया । ब्राह्मणी प्रदोष व्रत करती थी । उसके व्रत के प्रभाव और गंधर्वराज की सेना की सहायता से राजकुमार ने विदर्भ से शत्रुओं को खदेड़ दिया और पिता के राज्य को पुनः प्राप्त कर आनन्दपूर्वक रहने लगा । राजकुमार ने ब्राह्मण-पुत्र को अपना प्रधानमंत्री बनाया । ब्राह्मणी के प्रदोष व्रत के माहात्म्य से जैसे राजकुमार और ब्राह्मण-पुत्र के दिन फिरे, वैसे ही शंकर भगवान अपने दुसरे भक्तों के दिन भी फेरते हैं।”

प्रदोषस्तोत्रम्
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।। श्री गणेशाय नमः।।

जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत । जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥

जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद ।
जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥

जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण ।
जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥

जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय । जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥

जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन । जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥

प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः । सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥

महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च । महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥

ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः । ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥

दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् । अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥

दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः ।
ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥

शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः । नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥

दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले । सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥

एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् । ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥

सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी । शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥

॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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कथा एवं स्तोत्र पाठ के बाद महादेव जी की आरती करें

ताम्बूल, दक्षिणा, जल -आरती
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तांबुल का मतलब पान है। यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। ताम्बूल के साथ में पुंगी फल (सुपारी), लौंग और इलायची भी डाली जाती है । दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। भगवान भाव के भूखे हैं। अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना-देना नहीं है। द्रव्य के रूप में रुपए, स्वर्ण, चांदी कुछ भी अर्पित किया जा सकता है।

आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।

भगवान शिव जी की आरती
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ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।
ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर हर हर महादेव...॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे।
हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।
तीनों रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी।
चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता।
जगकर्ता जगभर्ता जगपालन करता ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी।
नित उठि दर्शन पावत रुचि रुचि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

लक्ष्मी व सावित्री, पार्वती संगा ।
पार्वती अर्धांगनी, शिवलहरी गंगा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

पर्वत सौहे पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

जटा में गंगा बहत है, गल मुंडल माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।

त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥

ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव।।

कर्पूर आरती
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कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।
सदावसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥

मंगलम भगवान शंभू
मंगलम रिषीबध्वजा ।
मंगलम पार्वती नाथो
मंगलाय तनो हर ।।

मंत्र पुष्पांजलि
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मंत्र पुष्पांजली मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।

ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं
पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।

ॐ विश्व दकचक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात संबाहू ध्यानधव धिसम्भत त्रैत्याव भूमी जनयंदेव एकः।
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥

नाना सुगंध पुष्पांनी यथापादो भवानीच
पुष्पांजलीर्मयादत्तो रुहाण परमेश्वर
ॐ भूर्भुव: स्व: भगवते श्री सांबसदाशिवाय नमः। मंत्र पुष्पांजली समर्पयामि।।

प्रदक्षिणा
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नमस्कार, स्तुति -प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा। आरती के उपरांत भगवन की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा हमेशा क्लॉक वाइज (clock-wise) करनी चाहिए। स्तुति में क्षमा प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।

यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे-पदे।।

अर्थ: जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ-साथ नष्ट हो जाए।
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क्या आपकी कुंडली के ग्रह अस्त हैं?〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️अस्त ग्रह और उनके फल〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ज्योतिष शास्त्र में अस्त ग्रह क...
06/06/2021

क्या आपकी कुंडली के ग्रह अस्त हैं?
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अस्त ग्रह और उनके फल
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ज्योतिष शास्त्र में अस्त ग्रह के परिणामों की विशद व्याख्या मिलती है। अस्तग्रहों के बारे में यह कहा जाता है : “त्रीभि अस्तै भवे ज़डवत”,अर्थात् किसी जन्मपत्रिका में तीन ग्रहों के अस्त हो जाने पर व्यक्ति ज़ड पदार्थ के समान हो जाता है। ज़ड से तात्पर्य यहां व्यक्ति की निष्क्रियता और आलसीपन से है अर्थात् ऎसा व्यक्ति स्थिर बना रहना चाहता है, उसके शरीर, मन और वचन सभी में शिथिलता आ जाती है।

कहा जाता है कि ग्रहों के निर्बल होने में उनकी अस्तंगतता सबसे ब़डा दोष होता है। अस्त ग्रह अपने नैसर्गिक गुणों को खो देते हैं, बलहीन हो जाते हैं और यदि वह मूल त्रिकोण या उच्चा राशि में भी हों तो भी अच्छे परिणम देने में असमर्थ रहते हैं। ज्योतिष शास्त्र में एक अस्त ग्रह की वही स्थिति बन जाती है जो एक बीमार, बलहीन और अस्वस्थ राजा की होती है। यदि कोई अस्त ग्रह नीच राशि, दु:स्थान, बालत्व दोष या वृद्ध दोष, शत्रु राशि या अशुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो ऎसा अस्त ग्रह, ग्रह कोढ़ में खाज का काम करने लगता है। उसके फल और भी निकृष्ट मिलने लगते हैं अत: किसी कुण्डली के फल निरूपण में अस्तग्रह का विश्लेषण अवश्य कर लेना चाहिए।

अस्त ग्रह की दशान्तर्दशा में कोई गंभीर दुर्घटना, दु:ख या बीमारी आदि हो जाती है। जब किसी व्यक्ति की जन्मकुण्डली में कोई शुभ ग्रह यथा बृहस्पति, शुक्र, चंद्र, बुध आदि अस्त होते हैं तो अस्तंगतता के परिणाम और भी गंभीर रूप से मिलने लगते हैं। कई कुण्डलियों में तो देखने को मिलता है कि किसी एक शुभ ग्रह के पूर्ण अस्त हो जाने मात्र से व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही अभावग्रस्त हो जाता है और परिणाम किसी भी रूप में आ सकते हैं जैसे किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाना, किसी पैतृक संपत्ति का नष्ट हो जाना, शरीर का कोई अंग-भंग हो जाना या किसी परियोजना में भारी हानि होने के कारण भारी धनाभाव हो जाना आदि। यह भी देखा जाता है कि यदि कोई ग्रह अस्त हो परंतु वह शुभ भाव में स्थित हो जाए अथवा उस पर शुभ ग्रह की दृष्टि हो तो अस्तग्रह के दुष्परिणामों में कमी आ जाती है।

यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में लग्नेश अस्त हो और इस अस्त ग्रह पर से कोई पाप ग्रह संचार करे तो फल अत्यंत प्रतिकूल मिलते हैं। यदि कोई ग्रह अस्त हो और वह पाप प्रभाव में भी हो तो ऎसे ग्रह के दुष्परिणामों से बचने के लिए दान करना श्रेष्ठ उपाय होता है। किसी ग्रह के अस्त होने पर ऎसे ग्रह की दशा-अन्तर्दशा में अनावश्यक विलंब, किसी कार्य को करने से मना करना अथवा अन्य प्रकार के दु:खों का सामना करना प़डता है। यदि व्यक्ति की कुण्डली में कोई ग्रह सूर्य के निकटतम होकर अस्त हो जाता है तो ऎसा ग्रह बलहीन हो जाता है।

उदाहरण के लिए विवाह का कारक ग्रह यदि अस्त हो जाए और नवांश लग्नेश भी अस्त हो तो ऎसा व्यक्ति चाहे अमीर हो या गरीब, सुंदर हो या कुरूप, ल़डका हो या ल़डकी निस्संदेह विवाह में विलंब कराता है। यदि इन ग्रहों की दशा या अन्तर्दशा आ जाए तो व्यक्ति जीवन के यौवनकाल के चरम पर विवाह में देरी कर देता है और वैवाहिक सुखों (दांपत्य सुख) से वंचित हो जाता है जिसके कारण उसे समय पर संतान सुख भी नहीं मिल पाता और वैवाहिक जीवन नष्ट सा हो जाता है। अब हम ग्रहों के अस्त होने पर उनके सामान्य फलों पर विचार करते हैं कि किसी ग्रह विशेष के अस्त हो जाने पर उनकी अंतर्दशा में कैसे परिणाम आते हैं :

चंद्रमा :
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किसी व्यक्ति की कुण्डली में चंद्रमा के अस्त होने पर मानसिक अशांति, माँ का अस्वस्थ होना, पैतृक संपत्ति का नष्ट होना, जन सहयोग का अभाव, व्यक्ति का अशांत हो जाना, दौरे आना, मिर्गी होना, फेफ़डों में रोग होना आदि घटनाएं होती है। यदि अस्त चंद्रमा अष्टमेश के पाप प्रभाव में हों तो व्यक्ति दीर्घकाल तक अवसादग्रस्त रहता है, इसी प्रकार द्वादशेश के प्रभाव में आने पर व्यक्ति नशे का आदि हो जाता है अथवा किसी बीमारी की निरंतर दवा खाता है।

मंगल :
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किसी व्यक्ति की कुण्डली में मंगल के अस्त होने पर उसकी अंतर्दशा में व्यक्ति क्रोधी, नसों में दर्द, रक्त का दूषित हो जाना, उच्चा अवसादग्रस्तता आदि कष्ट हो जाते हैं। यदि अस्त मंगल पर राहु/केतु का प्रभाव हो तो व्यक्ति दुर्घटना, मुकदमेंबाजी या कैंसर का शिकार हो जाता है। यदि मंगल षष्ठेश के पाप प्रभाव में हो तो अस्वस्थ्य, दूषित रक्त, कैंसर या विवाद में चोटग्रस्त हो जाता है। इसी प्रकार अष्टमेश के पाप प्रभाव में होने पर व्यक्ति घोटालेबाज हो जाता है, भष्टाचार में लिप्त रहता है। द्वादशेश के पाप प्रभाव में होने पर व्यक्ति किसी नशीले पदार्थ का सेवन करने लगता है।

बुध :
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अस्त बुध की अंतर्दशा में व्यक्ति भ्रमित, संवेदनशील, निर्णय लेने में विलंब करता है। अति विश्वास या न्यून विश्वास का शिकार होकर तनावग्रस्त हो जाता है, अशांत रहता है। उसके शरीर में लकवा, ऎंठन, श्वास रोग अथवा चर्म रोग हो जाते हैं। यदि अस्त बुध षष्ठेश के पाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति तनाव, चर्म रोग या लकवाग्रस्त होकर अस्वस्थ रहता है। यदि बुध अष्टमेश के पाप प्रभाव में हो तो व्यक्ति दमा रोग से ग्रसित, मानसिक अवसाद अथवा किसी प्रियजन की मृत्यु का शोक भोगता है। यदि बुध द्वादशेश के पाप प्रभाव में हों तो व्यक्ति किसी नशे का शिकार या रोगग्रस्त रहता है।

बृहस्पति :
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यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में बृहस्पति अस्त हों और बृहस्पति की अंतर्दशा आ जाए तो व्यक्ति लीवर की बीमारी और ज्वर से ग्रसित रहता है। वह अध्ययन से कट जाता है। उसकी आध्यात्मिक रूचि क्षीण हो जाती है, वह स्वार्थी हो जाता है। यदि अस्त बृहस्पति पर अन्य दूषित प्रभाव हों तो वह पुरूष संतान से वंचित हो सकता है। बृहस्पति के षष्ठेश के पाप प्रभाव में होने पर उच्चा ज्वर, टायफाइड, मधुमेह तथा मुकदमों में फँसना, अष्टमेश के पाप प्रभाव में होने पर प्रतिष्ठा में हानि, किसी प्रियजन का वियोग अथवा किसी बुजुर्ग की मृत्यु हो जाना, इसी प्रकार द्वादशेश के पाप प्रभाव में होने पर व्यक्ति के विवाहेत्तर संबंध बन जाते हैं और वह किसी व्यसन से ग्रसित हो जाता है।

शुक्र :
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जब किसी कुण्डली में शुक्र अस्त हो और उसकी अंतर्दशा आ जाए तो व्यक्ति की पत्नी रोगग्रस्त हो जाती है अथवा उसके गर्भाशय या बच्चोदानी में समस्या हो जाती है। व्यक्ति नेत्र रोग, चर्म रोग से भी ग्रसित हो जाता है। अस्त शुक्र के राहु-केतु के प्रभाव में आने पर व्यक्ति की प्रतिष्ठा नष्ट होती है, वह किडनी विकार या मधुमेह का शिकार हो जाता है। यदि अस्त शुक्र षष्ठेश के दुष्प्रभाव में हों तो मूत्राशय रोग, यौनांगों में विकार अथवा चर्म रोग से ग्रसित होता है, अष्टमेश के दुष्प्रभाव में होने पर दांपत्य जीवन में कटुता, किसी प्रियजन की मृत्यु का दु:ख तथा द्वादशेश के दुष्प्रभाव में होने पर व्यक्ति यौन संक्रमण रोग और नशे का आदि हो जाता है।

शनि :
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यदि किसी व्यक्ति की कुण्डली में शनि अस्त हो और उनकी दशा-अन्तर्दशा आ जावे तो वह अस्थि भंग होने, टांगों या पैरों में दर्द, रीढ़ की हड्डी में दर्द आदि से पीडित रहता है। उसे कठोर परिश्रम करना प़डता है, उसका कार्य व्यवहार नीच प्रकृति के लोगों से रहता है। उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा समाप्त होने लगती है। शनि के राहु-केतु से प्रभावित होने पर जो़डो में दर्द रहने लगता है। अस्त शनि के षष्ठेश के पाप प्रभाव में होने पर रीढ़ की हड्डी में दर्द, जो़डों में दर्द, शरीर में जक़डन रहने लगता है, मुकदमों का सामना करना प़डता है। अस्त शनि के अष्टमेश के पाप प्रभाव में होने पर अस्थि टूट जाने, रोजगार में समस्या अथवा किसी प्रियजन का अभाव हो जाना होता है। शनि के द्वादशेश के पाप प्रभाव में होने पर व्यक्ति किसी बीमारी से ग्रस्त रहने लगता है अथवा व्यसन में डूब जाता है।

आईये जानते है सूर्य के कितना समीप आने पर कौन सा ग्रह अस्त होता है।
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चन्द्रमा जब सूर्य से 12 अंश या इससे अधिक समीप आता है तो अस्त हो जाता है।

गुरू जब सूर्य से 11 अंश या इससे अधिक समीप पर आने पर स्वतः अस्त हो जाता है।

सूर्य से 13 अंश या इससे अधिक समीप आने पर बुध ग्रह अस्त हो जाता है। किन्तु यदि बुध वक्री है तो वह सूर्य से 11 अंश के आस-पास आने पर अस्त हो जाता है।

सूर्य से 09 अंश या इससे अधिक समीप आने पर शुक्र ग्रह अस्त हो जाता है। यदि शुक्र वक्री चल रहा है तो वह सूर्य से 7 अंश या इससे अधिक समीप आने पर अस्त हो जायेगी।

सूर्य से 15 अंश या इससे अधिक समीप आने पर शनि ग्रह अस्त हो जाता है।
सूर्य से 7 अंश या इससे अधिक समीप आने पर मंगल ग्रह अस्त हो जाता है।
राहु-केतु छाया ग्रह होने के कारण कभी भी अस्त नहीं होते है।

नोट👉 अस्त ग्रहो के उपाय मनमर्जी नही करने चाहिये अन्यथा फल विपरीत भी देखे गए है। कुण्डली अध्ययन के बाद ही इनके उपाय करें।
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