29/11/2025
रतलाम के एक निजी स्कूल में आठवीं कक्षा का तेरह वर्षीय छात्र, जिसने कक्षा में रील बना ली थी, उसे प्रिंसिपल ने बुलाया। कैमरे में दिखता है कि बच्चा बार-बार माफी मांगता रहा, “सॉरी” कहा, कान पकड़े, डर से कांपता रहा। बताया जाता है कि उसे पिता को बुलाने और निलंबन जैसी कार्रवाई की बात कही गई। कुछ ही मिनटों बाद वह बच्चा तीसरी मंज़िल की ओर भागा और नीचे कूद गया। पिता उसी समय स्कूल के वेटिंग रूम में मौजूद थे। बच्चा बच गया, लेकिन गंभीर रूप से घायल है। यह खबर इसलिए ज्यादा डराती है क्योंकि इसमें हिंसा नहीं है, गाली नहीं है, सिर्फ डर है। और वही डर बच्चे को मौत के मुहाने तक ले गया।
यह घटना हमें चीख-चीख कर बताती है कि बच्चों में बढ़ती आत्मघाती प्रवृत्ति केवल मेंटल हेल्थ का मामला नहीं है, यह हमारे पूरे सामाजिक व्यवहार, शिक्षा व्यवस्था और वयस्कों की संवेदनहीनता का आईना है। हम बच्चों को लगातार बताते हैं कि गलती मत करना, छवि खराब मत करना, भविष्य मत बिगाड़ना। लेकिन हम शायद यह भूल गए हैं कि बच्चा गलती से नहीं, डर से टूटता है। अपराध बोध से नहीं, अपमान से बिखरता है। और जब डर, अपमान और अकेलापन एक साथ मिल जाते हैं, तो तेरह साल का बच्चा भी मृत्यु को समाधान समझने लगता है।
यह संकट अर्थ के संकट से जुड़ा है। बच्चे का जीवन अभी शुरुआत में होता है। उसके पास अनुभव नहीं होता कि एक गलती पूरी जिंदगी नहीं होती। उसके लिए आज का डर ही पूरा संसार होता है। वयस्कों को जहां भविष्य के कई दरवाज़े दिखते हैं, बच्चे को वहां एक बंद दीवार दिखती है। जब हम कहते हैं कि “तुम्हारा करियर खत्म हो जाएगा”, तो बच्चा इसे रूपक की तरह नहीं, सच की तरह लेता है। उसके भीतर यह भाव बैठ जाता है कि अब आगे कुछ नहीं बचा। जीवन का अर्थ उसके लिए इतना संकरा बना दिया जाता है कि एक अनुशासनात्मक नोटिस भी अंत की तरह महसूस होने लगता है।
किशोरावस्था एक बेहद नाजुक समय होता है। इस उम्र में मस्तिष्क का भावनात्मक हिस्सा तेजी से सक्रिय होता है, जबकि तर्क और संतुलन का हिस्सा अभी पूरी तरह विकसित नहीं होता। इसका मतलब यह है कि बच्चे भावनाओं को बहुत तीव्रता से महसूस करते हैं, लेकिन उनसे निकलने के रास्ते उन्हें नहीं दिखते। शर्म, डर, अपराध बोध और अस्वीकृति की भावना उनके लिए असहनीय हो सकती है। ऐसे में अगर सामने बैठा कोई वयस्क आवाज ऊंची कर दे, धमकी दे दे, या पिता को बुलाने की बात कह दे, तो बच्चे के भीतर एक ही विचार घूमने लगता है: “अब सब खत्म है।”
हम अक्सर कहते हैं, “हमारे जमाने में तो ऐसा नहीं होता था।” यह वाक्य जितना आरामदेह है, उतना ही झूठा भी। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले डर घर और स्कूल की चारदीवारी तक सीमित था। आज डर डिजिटल दुनिया में फैल गया है। आज गलती सिर्फ गलती नहीं रहती, वह रिकॉर्ड हो जाती है, शेयर हो जाती है, चर्चा बन जाती है। बच्चे को लगता है कि उसकी पहचान एक घटना से तय हो जाएगी। उस रील से, उस शिकायत से, उस बुलावे से। यह स्थायित्व की भावना बच्चे को तोड़ देती है।
भावनात्मक रूप से सबसे पीड़ादायक बात यह है कि ऐसे क्षणों में बच्चा खुद को बिल्कुल अकेला महसूस करता है। भले ही उसके माता-पिता पास हों, शिक्षक सामने हों, लेकिन संवाद टूट चुका होता है। बच्चा यह मान लेता है कि अब कोई उसे समझने वाला नहीं है, सिर्फ जज करने वाले हैं। इसी क्षण आत्मघाती विचार जन्म लेते हैं। आत्महत्या हमेशा मरने की इच्छा नहीं होती। अक्सर यह दर्द से बचने की इच्छा होती है। ऐसा दर्द, जो बच्चे को लगता है कि अब सहा नहीं जाएगा।
शिक्षा व्यवस्था पर भी हमें कठोर नजर डालनी होगी। अनुशासन ज़रूरी है, लेकिन भय पैदा करने वाला अनुशासन बच्चों को नहीं सुधारता, तोड़ता है। गलती पर बच्चे को यह सिखाना कि “यह गलत था और इसे ठीक कैसे करना है”, और गलती पर यह जताना कि “तुमने सब बर्बाद कर दिया”, इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। जब स्कूल खुद को सुधार का स्थान नहीं, अदालत की तरह पेश करता है, तो बच्चे खुद को अपराधी मानने लगते हैं, विद्यार्थी नहीं।
यह भी सोचने की जरूरत है कि हम बच्चों के साथ बातचीत किस भाषा में करते हैं। “तुमने इज्जत खराब कर दी”, “पिता को बुलाना पड़ेगा”, “भविष्य का सोचो” जैसे वाक्य हमें साधारण लग सकते हैं, लेकिन बच्चे के मन में ये हथौड़े की तरह गिरते हैं। खासकर तब, जब पिता बाहर वेटिंग रूम में बैठे हों। उस बच्चे के लिए वह क्षण सिर्फ अनुशासन का नहीं, सामाजिक अपमान का बन जाता है। और अपमान का डर कई बार मौत के डर से भी बड़ा हो जाता है।
माता-पिता की भूमिका भी यहाँ बेहद संवेदनशील है। हम अंक, अनुशासन और सामाजिक प्रतिष्ठा को प्यार से ऊपर रख देते हैं। बच्चे को यह भरोसा नहीं दे पाते कि “गलती हो भी जाए, तो मैं तुम्हारे साथ हूं।” जब यह भरोसा कमजोर पड़ जाता है, तो बच्चा संकट के समय सहारा नहीं खोजता, रास्ता खोजता है। और कभी-कभी वह रास्ता बहुत अंधेरा होता है।
यहाँ यह प्रश्न भी उठता है कि क्या हम बच्चों को जीने का मूल्य सिखा रहे हैं या सिर्फ सफल होने का? अगर जीवन का मूल्य सिर्फ उपलब्धियों से जोड़ा जाएगा, तो असफलता मौत जैसी लगेगी। बच्चे को यह सिखाना होगा कि उसका महत्व उसके अस्तित्व से है, उसके नंबरों, व्यवहार रिपोर्ट या सोशल इमेज से नहीं। जीवन कोई रिज़ल्ट शीट नहीं है। यह बात बच्चों को तभी समझ आएगी, जब वयस्क इसे अपने व्यवहार में दिखाएंगे।
समाधान का रास्ता सरल नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं। स्कूलों में डर की जगह संवाद को रखना होगा। शिक्षकों को मनोवैज्ञानिक संवेदनशीलता की ट्रेनिंग देनी होगी। अनुशासनात्मक कार्रवाई से पहले बच्चे की मानसिक स्थिति को समझना होगा। माता-पिता को बच्चों के साथ ऐसा रिश्ता बनाना होगा जिसमें सबसे बड़ा सहारा भरोसा हो, न कि डर। और समाज को यह मानना होगा कि गलती मनुष्य होने का प्रमाण है, अपराध नहीं।
सबसे जरूरी बात यह है कि हमें हर बच्चे को यह एहसास दिलाना होगा कि कोई भी डांट, कोई भी सजा, कोई भी गलती जीवन से बड़ी नहीं है। अगर एक तेरह साल का बच्चा यह सोचने लगे कि मर जाना आसान है, तो यह उसकी कमजोरी नहीं, हमारी सामूहिक असफलता है। बच्चों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति कोई निजी समस्या नहीं है। यह हमारी शिक्षा, हमारी संवेदना और हमारी मानवता की परीक्षा है। और इस परीक्षा में पास होना अब नैतिक अनिवार्यता है, विकल्प नहीं।