Bhavishya Darshan

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31/10/2024

महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं सुरेश्र्वरी ।
हरिप्रिये नमस्तुभ्यं, नमस्तुभ्यं दयानिधे ।।

शुभम करोति कल्याणम,अरोग्यम धन संपदा।
शत्रु-बुद्धि विनाशायः,दीपःज्योति नमोसतते॥

दीपोत्सव के इस पावन पर्व पर माँ लक्ष्मी आपको सुख, शांति, सफलता, समृद्धि, सौहार्द एवं स्वस्थ्य दीर्घायु जीवन व अपार खुशियाँ प्रदान करे।
दीपोत्सव पर हार्दिक शुभकामनाएँ ।
रामाज्ञा तिवारी

20/10/2024

स वैदुषी फलं यस्या न परोपकृते फलम् ।
शिक्षन्ते जीवनोपायमन्ये वाङ्मयशिल्पिनः ।।
अर्थात्:–विद्वत्ता वही है,जो परोपकार में फलित हो, केवल जीविका चलाने का उपाय सीखने वाले व्यक्ति शब्दों के शिल्पकार मात्र होते हैं ।
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11/10/2024

निरपेक्षो निर्विकारो,निर्भरःशीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो,भव चिन्मात्रवासनः।।
अर्थात्:–आप सुख साधन रहित, परिवतर्नहीन, निराकार, अचल,अथाह जागरूकता और अडिग हैं। इसलिए अपनी जाग्रति को पकड़े रहो।
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30/09/2024

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अहल्या भगवान की चरण धूलि से चैतन्य हुईजातेजाते अहल्या बहुत ही ज्ञान और वैराग्य की बात प्रभु को सुनाती है। अहल्या प्रसंग को पढ़ कर लगता हैकि सचमुच अहल्या कीदृष्टि कितनी बदल गई हैअहल्या भगवान की चरणधूलि से चैतन्य हो गईलेकिन अहल्या ने एक बार भी नहीं कहा कि हमारे पति देव बड़े क्रोधी थे, बल्किउसने तो हाथ जोड़कर प्रभु से कहा कि आपकी चरणधूलि से मैं धन्य तो हो गई, लेकिन इसके लिए मैं सबसे पहले धन्यवाद अपने पतिदेव को देती हूँउन्होंने कितनी महान कृपा की है मेरे ऊपर। लोगों को भले ही यह दिखाई पड़ रहा हो कि उन्होंनेक्रोधमें आकर के मुझे शाप दे दिया पर नहीं-नहीं, वास्तविकता तो कुछऔर ही हैक्योंकि जब उन्होंने कहा कि श्री राम की चरणधूलि से तुम्हारा उद्धार होगा तो तब मानो मुझे वरदान दे दिया
मुनि साप जो दीन्हा अतिभल कीन्हा।।
इयही लाभ सँकर माना।।
यदि आपके चरण को मैं पाना चाहतीतोनजानेकितनी साधनाकरनी पड़ती पर जो हमारेपति देव ने शाप देकर के ही वे चरण प्राप्त करा दिए, तो भला मैं उनको धन्यवाददिएबिना उनका स्मरण किए बिना कैसे रह सकती हूं। और आगे चलकर पति-पत्नी दोनों एक दूसरे के कृतज्ञ हो गए। इस प्रकार भगवान राम पति-पत्नी के बीच की दूरी को मिटाते हैं। विवाह तो सभी करते हैं, पर जो विवाह के बाद भी बिछुड़ जाएँ उनको मिलाने की भूमिका भगवान राम की है।अहल्या जब चैतन्य हुई तो गौतमजी स्वयं आए और अहल्या को बड़े आदर सेलेकरजब चलने लगे तो अहल्या ने कहा महाराजआपने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। वस्तुतः आपकी कृपा से ही मुझे भगवान का चरण मिला है। महर्षि गौतम ने कहा कि सत्य तो यह है कि मैं अगर श्रीराघवेंद्रके चरण पाना चाहता तो यह कभी संभव न होता। क्योंकि प्रभु तो बड़े मर्यादामय हैं। मेरा जन्म ब्राह्मण वर्ण में हुआ है और प्रभु क्षत्रिय वर्ण में आए हैं, इसलिए वे मुझे अपना चरण कभी न देते। लेकिन तुमने पत्थर बनकर उनके चरणो को पा लिया। तो चलोअच्छा हुआ क्योंकि पत्नी पति की अर्धांगिनी होती है इसलिये तुम्हारे साथसाथ मुझेभी भगवान केचरणों का आधा भाग मिल गया महर्षि नेकहा अहल्या तुम धन्य हो क्योंकि चरण अनंत जन्मों तक तपस्या करने के बाद भी प्राप्त नहीं होते हैं, वे तुम्हारी कृपा से मुझे इतनी सरलता से प्राप्त हो गए। परंतु अहल्या यही कहतीहैकि आपकी कृपासे ही प्रभु का चरण मिलाहैविनयपत्रिकामें
गोस्वामीजी ने कहा कि भगवान ने जब अहल्या काउद्धार कियातोसंकोच में पड़ गएयद्यपि गुरुजी की आज्ञा से अहल्या के सिर पर चरणधूलि तो दे दी, परंतु प्रभु के मन में बार-बार एक ही बात आता है कि लोग क्या कहेंगे ? कि मैं क्षत्रिय होकर एक महात्मा की पत्नी के सिरपर चरण धूलि डाल दी; यह तो मुझसे मर्यादा के विरुद्ध आचरण हो गया। उस समय अहल्या ने प्रभु का संकोच दूर करने के लिए बड़ी मीठी बात कही। उसने कहा कि प्रभुआपका शील देख कर मैं गदगद हो गई। आपने मेरे जीवन को धन्य बना दिया और आपको संकोच लग रहा है कि मैंने चरण क्यों रख दिया पर मैं जानती हूं कि आपने मुझपर चरण क्यों रखेप्रभु तो चुप रहेअहल्या ने कहा, प्रभु आपनेसोचाहोगाकिशंकरजी को जो फल मिला है, वही फल जब अहल्या को देना है, तो पहले अहल्या को भी शंकर बना दें तब फल दें। शंकरजी के मस्तक पर गंगा की धारा है यह गंगा की धारा आपके जिन चरणों से निकली है वे ही चरण आपने सिर पर रखते हुए मुझे गंगा की तरह पावन कर मानो संकेत दिया कि अब तुम भी शिव हो गई। यद्यपि सत्य तो यह है कि आपने शिव बनाने के लिए ही मुझ पर चरण रखा। प्रभु ! मैं तो धन्य हो गई कि जिन चरणों से गंगा निकली है वे ही चरणकमल प्रभु ने आज मेरे सिर पर रख दिए।
भक्ति की मान्यता है वैराग्य के लिए भगवान के चरणों में अनुराग हो जाना चाहिए। इसे सांकेतिक भाषा में यों कह सकते हैं कि भौंरा स्वभावतः रस का प्रेमी है, रस के प्रति उसके मन में आकर्षण है और वह घूम घूम कर फूलों से रस लेता रहता है। किसी भौंरे के सामने कितना भी भाषण दो कि फूल तो एक रस रहने वाला नहीं हैफूल कारूप-रंग उड़ जाएगा, तुम कहां भटक रहे होपरक्याभौंरा अपना स्वभाव छोड़ देगा लेकिन भंवरे को यदि कहीं बढ़िया पुष्प मिल जाए कि जिसके रस में कोई ऐसा दोष न हो और वह उसको पीने लगे तो फिरवहभंवराअन्यत्रभटकेगा ही नहीं। इसीप्रकारमनका स्वभाव भँवरे का है और वह संसार के विषयों में रस ढूंढ रहा है। अगर उसे भगवान के चरण कमलों का रस मिल जाए तो उसका परिणाम यह होगा कि वहअन्यत्र नहींभटकेगा।

28/09/2024

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गोस्वामीजी से प्रश्न किया गया कि आपने रामकथा को इतना सरल बना दिया, पर इसमें इतने लोग एकत्र क्यों नहीं होते जितने होनेचाहिए श्रोता भी कई प्रकार के होते हैं। उनमें अलग-अलग रुचि और अलग-अलग प्रकार के रसों की कामनाएं होती हैं। गोस्वामीजी ने इसका उत्तर देने के लिए जिस शब्दावली का प्रयोग किया उसमें थोड़ी सी कठोरता दिखाई देती है। वे कहते हैं कि 'मानस' रूपी मानसरोवर में कुछ ऐसी वस्तुओं का अभाव है जिन्हें कई श्रोता पाना चाहते हैं। इसलिए यहां -
*तेहि कारन आवत हियँ हारे।*
*कामी काक बलाक बिचारे।।*
कौवे और बगुले जैसी वृत्ति वाले जो रामकथा में विषय रस पाना चाहते हैं, नहीं आ सकते। इसका अर्थ किसी की आलोचना के रूप में न लेकर इस रूप में लेना चाहिए कि 'कथा में भी विषय रस पाने की लालसा से जाना, यह उद्देश्य ठीक नहीं है।' इस पर गहराई से विचार करने कीआवश्यकता है कि हम किस रसकोपाने केलिएभगवत्कथा में जाते हैंइंद्रियों में रस की पिपासा है और विषयों में भी रस है। पर यदि कोई व्यक्ति इस विषय रस की खोज में रामकथा में जाता है तो उसे निराशा ही होगी। अब यदि ऐसे व्यक्ति को रामकथा नीरस लगे तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। इसका एक संकेत तो यह है कि व्यक्ति चाहता है कि उसे मिठास का अनुभव हो, रस मिले। संगीत के माध्यम से भी कथा कहकर वाणी को धन्य बनाने की परंपरा रही है। क्योंकि संगीत का भी उद्देश्य भगवान के गुणानुवाद में निमित्त बनना ही रहा है। लेकिन यदि कथा-रस के पीछे केवल यह भावना जुड़ जाए कि कितने मधुर कंठ से कथा कही गई ! कितने वाद्य यंत्रों के साथ कथकही गई ! तो आर्केस्ट्रा और मधुर कंठ सेकथामेंआकर्षण की इस प्रतीति से यह कहना बड़ा कठिन है कि अनुभव में आने वाला रस भगवद् कथा रस है अथवा संगीत का रस हैभगवत्कथा का गायन और श्रवण तो किसीभी रूपमेंहो लाभकारी है। पर 'मानस' में भगवान की कथा मधुर लगने की एक बड़ी सुंदर कसौटी दी गई है। रामायण के चारों वक्ताओं में एक वक्ता है भूसुंडीजी जो एक कौवा है। सभी जानते हैं कि पक्षियों में सबसे कर्कश स्वर वाला पक्षी कौवा ही होता हैकोयल का गायन किसको आकृष्ट नहीं करता ? पर कौवे का कर्कश स्वर कोई नहीं सुनना चाहता। 'मानस' में जो कसौटी है वह तो यही बताती है कि जिसे कौवे की कथा में भी आनंद आए वही कथा-रसिक है। पर जिसे कथा सुनने के लिए कौवे के स्थान पर कोयल की खोज हो, वह कथा-रसिक न होकर स्वर की मधुरता का प्रेमी है।

21/09/2024

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कहहिँवैद इतिहास पुराणा।रचि विँरच गुण अवगुण साना॥

हर्ष की सार्थकता कहां हैदोहावली में गोस्वामी जीकहतेहैं कि भगवान का स्मरण करते हुए, आदर्श के लिए युद्ध करते हुए, दान देते हुए और गुरु को प्रणाम करते हुए जिस व्यक्ति के हृदय में हर्ष नहींहोता उसका जीवन धूल औरमिट्टीमेंमिला देने योग्य है

रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पायँ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ

महर्षि विश्वामित्र जब महाराज दशरथ के पास आए तो महाराज दशरथ बड़े प्रसन्न हुए, उनका स्वागत कियापूजनकिया भोजन निवेदित किया और तब बड़े उत्साह औरप्रसन्नता से पूछा - आपके आने का कारण क्याहै आज्ञा दीजिए
आपके कहने में देर है, मेरे करने में देर नहीं होगी। विश्वामित्र उनके दावे को सुनकर मन ही मन हंसे। वे समझ रहे थे कि दशरथ जितने उत्साह के साथ ऐसा कर रहे हैं, मेरी मांग सुनने के बाद भी उनका उत्साह रहेगा, इसमें संदेह है उन्होंने अपनी मांग दशरथजी के सामने रख दी कहाआप लक्ष्मण के साथ राम को दीजिए इनके द्वारा राक्षसों का वध होगा और इन दोनों को पाकर मैं सनाथ हो जाऊंगा। बस, इतना सुनते ही महाराज दशरथ के चेहरे का रंग उड़ गयामुंह पर पीला पन तथा घबराहट छा गई। तब विश्वामित्र ने मुस्कुरा कर दशरथ जी से कहा देहु' अर्थात 'दो'। लेकिन एक शब्द जोड़ दिया। इसमें बड़ी चुनौती भी है, कहते हैं लेने आया हूं तो बिना लिए तो मैं लौटूंगा नहींमैंकोईऐसामांगने वाला नहींहूं किनहींकह देने पर लौट जाऊं जो मांग रहा हूं, उसे लेकर ही रहूंगा और तुम्हें देना ही पड़ेगा। लेकिन अब तुम्हें निर्णय करना है कि तुम किस तरह दोगे प्रसन्नता पूर्वक या दुखःपूर्वक मेरी तो सलाह है कितुम ऐसा करो जिसमें सबकोलाभ हो देने वाले को भी,लेने वाले कोभीऔरबीच वाले को भी।इसलिए उन्होंने 'देहु भूप' के साथ यह बात भी जोड दी मन हरषित'हर्ष का उत्तम सदुपयोग क्या है ? लेने में तो सबको हर्ष होता है, परंतु जब देने में भी हर्ष हो, तो इसका अर्थ यह हुआ किअब उसने साधना के जीवन में प्रवेश किया है। अब पाकर नहीं, कुछ देकर, कुछ त्यागकरकुछ दान करकेउसके अंतःकरण में प्रसन्नता होती हैमहर्षि विश्वामित्र जब महाराज दशरथ के पास आए और कहा - आप लक्ष्मण के साथ राम को दीजिए ! 'देहु भूप मन हरषित' - प्रसन्न मन से दो। और साथ ही यह भी जोड़ दिया - 'तजहु मोह अज्ञान'। यदि हर्षपूर्वक नहीं दोगे, तो भय के कारण बाध्य होकर दोगे। इसका अभिप्राय यह है कि तुम्हारे अंतःकरण में आसक्ति है और तुम मोहग्रस्त हो। साथ ही तुम राम और लक्ष्मण की महिमा से परिचित नहीं हो
तुम्हारे मन में यह भय समा गयाहै कि इतने छोटे राज
कुमारों के द्वारा राक्षसों का वध कैसे होगातो यहतुम्हारा अज्ञान है यदि तुम्हारे मन मे मोहऔरअज्ञानपनहींहै तो तुम्हारेअंतःकरण में कोई आसक्त्ति नहीं होनी चाहिए।

14/09/2024

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रामायण में वर्णन है कि वेद है समुद्र और एक बारऋषिमुनियों व देवताओं ने मिलकर वेद-समुद्र का मंथन किया। जब वेदों का मंथन किया गया तो उसमें से मंत्र निकले और ऋषि, मुनि तथा देवताओं ने मंत्रों का बंटवारा कर लिया। जो कर्मकांडीमुनि थे, उन्होंने कर्मकांड के यज्ञ के मंत्र ले लिए। जो ज्ञानी और वेदांती थे, उन्होंने वेदांत के मंत्र ले लिएइस प्रकार सबने अलग-अलग मंत्र बांट लिए। पर अंत में उस मंथन में 'राम-नाम' भीनिकलाथाऋषिमुनियों ने सोचा कि बड़े-बड़े मंत्र तो ठीक हैं, भला इन दो अक्षरों का क्या महत्व है ? वस्तुतः वे बेचारे पहचान नहीं पाए कि अमृत तो यही है, सार यही है। परंतु शंकरजी ने कहा, भाई ! सारा वेद आप लोग ले जाइए। बस ये दो अक्षर हमें दे जाइए ! इतना कहकर शंकरजी ने दोनों अक्षरोंरामनाम'कोउठाकर
मुख में धारण कर लिया अगर एक ओर सैकड़ों मंत्र होंऔर दूसरी ओर 'राम-नाम हो, तो व्यक्ति का तराजू तो यही कहेगा कि मंत्रों वाला पलड़ा भारी है। लेकिन शंकरजी के गणित में और हम लोग के गणित में बहुत बड़ा अंतर है। शंकरजी का गणित बड़ा विचित्र है। वर्णन आता है कि पार्वतीजी नित्य सहस्रनाम का जप करती हैं, और एक दिन भगवान शंकर के भोजन का समय हो गया; लेकिन पार्वतीजी का पाठ पूरा नहीं हुआ था। इसलिए उन्होंने कहा कि पाठ पूरा हुए बिना मैं भोजन कैसे करूं ! शंकरजी ने एक श्लोक पढ़कर कहा पार्वती !

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने।।

वस्तुतः तुम जिस सहस्रनाम का पाठ करती हो, केवल एक 'राम-नाम' से ही उसके फल की प्राप्ति होती है। इसकासीधासा अभिप्राय है कि संसार में विस्तार का महत्व है और भगवत्तत्त्व में संक्षेप का महत्व हैएक व्यक्ति जब वृक्ष को देखता है, तो उसकी दृष्टि उसके बड़प्पन, उसकी ऊंचाई पर जाती है और दूसरा व्यक्ति देखता है कि उसके मूल में बीज कितना छोटा-सा है ! यद्यपि बीज तो छोटा होगा ही, लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि बीज में ही वृक्ष समाया हुआ है। पार्वती भगवान शंकर की बात मानकर 'राम-नाम' लेकर भगवान शंकर के साथ भोजन कर लेती हैं
सहसनामसमसुनिशिवबानी।जपिजेईपियसंग भवानी॥

पार्वतीजी के इस कार्य से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने कितना सुंदर कार्य किया ? शंकरजी का एक रूप आपने देखा होगा 'अर्धनारीश्वर' जिसमें आधा शरीर शंकरजी का और आधा पार्वतीजी का। गोस्वामीजी कहते हैं कि जिस दिन पार्वतीजी ने 'राम-नाम' लेकर भगवान शंकर के साथ भोजन किया, उसी दिन शंकरजी ने अपना अर्धनारीश्वर रूप बनाया।

हरषे हेतु हेरि हर ही को।कियभूषनतियभूषनतको॥

जिस दिन पार्वतीजी ने 'राम-नाम' लेकर भगवान शंकर के साथ भोजन किया, उसी दिन शंकरजी ने अपना अर्धनारीश्वर'रूप बनाया पार्वतीजी ने पूछा, महाराज आप तो मुझसे बड़ा स्नेह करते हैं, लेकिन आज ही आपने मुझे अपने आधे शरीर में सम्मिलित क्यों किया ? उन्होंने कहा, पार्वती ! अभी तक तुम विचारों से मेरे निकट तो थीं, पर अभिन्न नहीं थीं। परंतु आज तुमने मेरे 'रामनाम'की आस्था पर विश्वास किया, इसलिए आज हम-तुम मिल करके एक हो गए। अब हमारे-तुम्हारे बीच में कोई दूरी नहीं रही। वस्तुतः व्यक्ति को विस्तार में आस्था है। नन्हे से दो अक्षर के नाम पर जल्दी आस्था नहीं होती।

12/09/2024

कलहान्तानि हम्र्याणि,कुवाक्यानां च सौहृदम् |
कुराजान्तानि राष्ट्राणि,कुकर्मांन्तम् यशो नॄणाम् ||
अर्थात्:–आपसी कलह से परिवार टूट जाते है। गलत शब्द के प्रयोग से मित्रता टूट जाती है। बुरे शासकों के कारण राष्ट्र का नाश होता है और बुरे काम करने से यश दूर भागता है।

09/09/2024

एक अनोखा प्रसंग:-
गोस्वामीजी ने व्यंग्य करते हुए कहा कि कलियुग में माता-पिता शिक्षा भी अगर अपने बच्चों को देते हैं तो केवल उदर-पोषण की

मातु पिता बालकन्हि बोलावही।उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥

उदर धर्म ? अर्थात पेट कैसे भरे ? बस यही शिक्षा मनुष्य दे रहा है। यद्यपि 'पेट भरे' इस शिक्षाकीभीआवश्यकता है। लेकिन व्यक्ति केवल शरीर ही तो नहीं है। अगर भूख का तात्पर्य केवल शरीर की ही भूख से है तो वह पशु में भी विद्यमान है। व्यक्ति की विशेषता तो यही है कि उसके मन में भी भूख है, बुद्धि में भी भूख है और प्रह्लाद ने सत्संग द्वारा नारदजी से गर्भ में ही उस भूखकोसंस्कारमे पाया है। प्रह्लाद को लगा कि गुरुजी तो ये पाठ नहीं पढ़ा रहे हैं। किंतु गर्भ के संस्कार ने अपना कार्य करना प्रारंभ कर दियाकाकभुशुण्डिजी ने अपनी आत्मकथा सुनाते हुए कहा कि मेरे माता-पिता ने मुझे विद्यालय भेज तो दिया लेकिन -

समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा॥

अध्यापक लोग जो पढ़ाते थे उसको मैं सुनता भी था, समझता भी था, पर मुझे प्रिय नहीं लगता था। गरुड़जी ने जब पूछा, महाराज ! विद्या तो बड़ी श्रेष्ठ है, परंतु आपको प्रिय क्यों नहीं लगती थी ? उस समय उन्होंने एक सुंदर संकेत दिया कि दो पशु है। एक गधा और एक गाय। गधे पर आप चाहे जितना बोछ लाद दें वह उसे उठा लेगा और गाय इतना बोझ नहीं ढो पाएगी। लेकिन कितनी विलक्षण बात है कि गधे पर चाहे आप चंदन लाद दीजिए, चाहे कूड़ा करकट लाद दीजिए, वह तो दोनों को ढोता ही ढोता है। उसके जीवन में उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन गाय जो दूध दिए हुए है वह केवल अपने बछड़ों को नहीं अपितु दूसरों कोदूध देकर उनकी भी प्यास मिटाती है, भूख मिटाती है इसलिए काक
भुशुण्डिजी ने कहा, 'गधी विद्या' जो गधों की तरह व्यक्ति को केवल पुस्तकों का बोछ ढोना सिखाती है, उससे मैंने छुट्टी पा ली। उन्होंने शब्द भी यही कहा कि;--------

कहुखगेसअसकवन अभागी।खरीसेवसुरधेनुहि त्यागी॥

मुझे तो भक्ति की कामधेनु चाहिए थी, भला यह बोझ ढोनेवाली विद्या को लेकर मैं क्या करता हिरण्यकशिपु खुद भी भक्तिरूपी कामधेनु को प्राप्त करने की चेष्टा नहीं कर रहा है, और अपने बेटे प्रह्लाद को भी उसी चिंतारूपी गधी विद्या का ही छात्र बनाना चाह रहा है। पर नारदजी के सत्संग से जिसमें इतना परिवर्तन हुआ है, वह स्वयं तो भक्त है ही और अपने साथियों को भी बैठा करके उनके सामने भगवान की मंगलमय महिमा का गान करता है। इसका अर्थ है कि सत्संग के द्वारा हम स्वयं तो अपने जीवन को सन्मार्ग की ओर परिवर्तित करें ही, पर साथ-साथ हमारा कर्तव्य यह भी है कि हम आस-पास वालों तथा अपरिचितों तक को भगवान की भक्ति का संदेश भिजवाएँ। और प्रह्लाद ने भी यही किया
जब प्रह्लाद की शिक्षा की परीक्षा का काल आया तो हिरण्यकशिपु ने गुरुजी को आदेश दिया कि आप मेरे पुत्र को मेरे पास ले आवें, मैं उसकी परीक्षा लूंगा। और जब हिरण्यकशिपु प्रह्लाद से पूछता है कि सारी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ क्या है समस्त विद्याओं का सार क्या है तो उन्होंनेकहारामनाम'
प्रह्लाद का वाक्य सुनते ही हिरण्यकशिपु के क्रोध की कोई सीमा नहींरहीप्रह्लाद का वाक्य सर्वथा उपयुक्त है कि "सब का सार 'राम-नाम' है।" रामायण में भी इस बात की ओर संकेत किया गया है

07/09/2024

🙏
हनुमानजी के चिंतन का श्रीगणेश यहां से नहीं होता है कि लंका रावण की है। वाटिका रावण की है और मैंने उसकी वाटिका का फल खाया है। बल्कि उनकेचिंतन का प्रारंभ तो लंकिनी सेहोता है। लंकिनी ने हनुमानजी से कहा, तू चोर है। क्योंकि मेरे स्वामी के नगर में तू छोटा रूप बना करके जा रहा है। वाक्य सुनते ही हनुमानजी ने उसको एक मुक्का मारा लेकिन सिर पर मुक्का लगते ही उसका विचार बदल गया औरतुरंतउसनेहनुमानजी से कहा
प्रबिसी नगर कीजै सब काजा ।हृदयराखिकोसलपुर राजा ॥

अब राजा रावण नहीं है, अपितु अब तो कोसलपुर के राजा राम ही राजा हैं। और यही संकेत हनुमानजी ने विभीषण को भी दिया थाविभीषण के मन में धर्म को लेकरके अंतर्द्वंद था कि रावण मेरा बड़ा भाई है, और बड़ा भाई पिता तुल्य होता हैतो मैं रावण के अन्याय करने पर भी, उसका साथ कैसे छोड़ दूं एक भाई को छोड़ देना क्या उचित होगा ? इसलिए हनुमानजी ने मूल का स्मरण कराते हुए विभीषणजी से कहा

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता ।देखीचहउँ जानकी माता ॥

जब उन्होंने 'भाई विभीषण' कहा तो विभीषण जी चौंके। न हम एक देश के, न एक जाति के, न एक कुल के और न ही एक माता के गर्भसे हमाराजन्म हुआ। भाई तो तभी माना जाता हैजब एक माताके गर्भसे दो भाइयों का जन्म होता है अथवा एक पिता से दो बालकों का जन्म हो किंतु हनुमानजी कह रहे हैं विभीषण भाई हैं।जबआश्चर्य पूर्वक विभीषण ने देखा तो हनुमानजी ने सूत्र दे दिया कि हम दोनों की माता एक ही है। एक तो केवल इसी जन्म को लेकर के तुम्हारी माता है, और दूसरी अनंत काल से तुम्हारी माता है। अब तुम सोच लो कि सच्ची माता कौन है
हनुमानजी विभीषणजी से कहते हैं - जो शाश्वत माता-पिता हैं, उनको छोड़कर तुम यदि नश्वर माता-पिता का संबंध मानते हो तथा अपने को शरीर मानते हो, तो तुम्हारा भाई रावण है। और यदि तुम दूसरी दृष्टि से देखते हो, तो तुम्हारा भाई मैं हूं। क्योंकि मैं भी सीताजी का पुत्र हूं। हनुमानजी, सीताजी के पुत्र न तो जाति के नाते हैं, न कुल के नाते से और न ही शरीर के नाते से। उनका जन्म भी सीताजी के गर्भ से नहीं हुआ है। वे तो पशु के रूप में दिखाई देते हैं। इसलिए हनुमानजी ने समझाया, विभीषण ! तुमने धर्म का ठीक निर्णय नहीं किया। अब जरा मूल से प्रारंभ करो। हम लोग भी अगर अपने जीवन में प्रह्लाद बनना चाहते हैं, तो जन्म के बाद नहीं बल्कि गर्भ से ही प्रारंभ कर दें। नारद ने यहीं से एक संस्कार प्रह्लाद के अंतःकरण में डाल दिया। और गर्भ से ही भक्ति के उसी संस्कार को लेकर के प्रह्लाद का जन्म हुआ। जप करने वाले के अंतःकरण में भी धर्म का यही रूप होना चाहिए कि भक्ति से युक्त धर्म ही सच्चा धर्म है।

03/09/2024

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असम्भित्रायेमर्यादःपण्डिताख्यां लभेत सः॥

अर्थात्:–जो व्यक्ति शास्त्रों से विद्या ग्रहण कर उसी के अनुरूप अपनी बुद्धि को ढालता है और अपनी बुद्धि का प्रयोग उसी प्राप्त विद्या के अनुसार ही करता है तथा जो सज्जन पुरुषों की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करता, वह ज्ञानी कहा जाता है।

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