Self Awareness Programme

Self Awareness Programme Every coin has two sides But you have infinite. We provide guidance for aware our unknown aspects. S

10/03/2020

*प्रेम में कोई किसी को रोक ही नहीं सकता। जिससे तुम प्रेम करते हो, वह भी नहीं रोक सकता तुम्हें प्रेम में। कैसे रोक सकता है? प्रेम तो तुम्हारा दान है।*

*और प्रेम कभी असफल नहीं होता--हो ही नहीं सकता। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रेम तुम करोगे तो वह तुम्हें मिल ही जाएगा। उसको मैं सफलता नहीं कहता। प्रेम के तो करने में ही सफलता है। बात ही खत्म हो गई; और कोई लक्ष्य नहीं है प्रेम में।*

*प्रेम तो तुम्हारे भीतर उठी आनंद की ऊर्मि है। किसी के चेहरे को देख कर उठी, बात पूरी हो गई। किसी की आंखों को देख कर उठी, बात पूरी हो गई। किसी फूल को खिला देख कर उठी, बात पूरी हो गई। तुम मालिक क्यों होना चाहो? तुम प्रेम और लोभ में भेद नहीं समझ पा रहे हो।*

*तुम प्रेम और मोह में भेद नहीं समझ पा रहे हो। तुमने लोभ और मोह को प्रेम समझा है। और ऐसा प्रेम तो असफल होगा ही। तुम्हें नही मिला, इसलिए नहीं; मिल जाता तो भी असफल होता।*

*अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिसको तुम पाना चाहते थे और नहीं पा सके, तो तुम्हारा अहंकार तड़फता रहता है, क्योंकि तुम्हें चोट लगी, तुम नहीं पा सके। तुम हार गए। तुम अपनी विजय करके दिखाना चाहते थे और विजय नहीं हो पाई। वह घाव तुम में तड़फता है। यह अहंकार ही है, यह प्रेम नहीं है।*

*पूछते हो: "आप कहते हैं--प्रेम है द्वार प्रभु का।'*मैं कहता नहीं; ऐसा है। प्रेम है द्वार परमात्मा का। और प्रेम के अतिरिक्त उसका कोई और द्वार नहीं है।*
प्रेम है दान*
*प्रेम है विसर्जन*
*प्रेम है समर्पण*........🍂🍂🍂🍁🍁🍁.....🎻🎻🎻

13/02/2020

नानक गृहस्थ भी हैं, संन्यासी भी

नानक ने एक अनूठे धर्म को जन्म दिया है, जिसमें tv गृहस्थ और संन्यासी एक हैं। और वही आदमी अपने को सिख कहने का हकदार है, जो गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो, संन्यासी होते हुए गृहस्थ हो।

सिख होना बड़ा कठिन है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना आसान है, छोड़कर चले जाओ जंगल में। सिख होना कठिन है क्योंकि सिख का अर्थ है- संन्यासी, गृहस्थ एक साथ। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय में हो। करना दुकान, लेकिन याद परमात्मा की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना।

नानक को जो पहली झलक मिली परमात्मा की, जिसको सतोरी कहें, वह मिली एक दुकान पर, जहां वे तराजू से गेहूं और अनाज तौल रहे थे। अनाज तौल कर किसी को दे रहे थे। तराजू में भरते और डालते। कहते-एक, दो, तीन...दस, ग्यारह, बारह... फिर पहुंचे वे 'तेरा'। पंजाबी में तेरह का जो रूप है, वह 'तेरा'। उन्हें याद आ गई परमात्मा की।

'तेरा', दाईन, दाऊ-धुन बन गई। फिर वे तौलते गए, लेकिन संख्या तेरा से आगे न बढ़ी। भरते, तराजू में डालते और कहते 'तेरा'। भरते, तराजू में डालते और कहते तेरा। क्योंकि आखिरी पड़ावआ गया। तेरा से आगे कोई संख्या है? मंजिल आ गई। 'तेरा' पर सब समाप्त हो गया। लोगों को लगा कि नानक सामान्य दुनियादार नहीं। लोगों ने रोकना भी चाहा, लेकिन वे तो किसी और लोक में हैं। वे तो कहे जाते हैं 'तेरा'। डाले जाते हैं, तराजू से तौले जाते हैं, और तेरा से आगे नहीं बढ़ते। तेरा से आगे बढ़ने की जगह ही कहाँ है। दो ही तो पड़ाव हैं, या तो 'मैं' या 'तू'। मैं से शुरुआत है, तू पर समाप्ति है।

नानक संसार के विरोध में नहीं हैं। नानक संसार के प्रेम में हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि संसार और उसका बनाने वाला दो नहीं। तुम इसे भी प्रेम करो, तुम इसी में उसको प्रेम करो। तुम इसी में उसको खोजो।

नानक जब युवा हुए, तब घर के लोगों ने कहा, शादी कर लो। उन्होंने 'नहीं' न कहा। सोचते तो रहे होंगे घर के लोग कि यह नहीं कहेगा। बचपन से ही इसके ढंग अलग थे। नानक के पिता तो परेशान ही रहे। उनको कभी समझ में न आया कि क्या मामला है। भजन में, कीर्तन में, साधु-संगत में...।

भेजा था बेटे को सामान खरीदने दूसरे गांव। बीस रुपए दिए थे। सामान तो खरीदा, लेकिन रास्ते में साधु मिल गए, वे भूखे थे। पिता ने चलते वक्त कहा था, सस्ती चीज खरीद लाना और इस गांव में आकर महंगी बेच देना। यही धंधे का गुर है। दूसरे गांव में सस्ते में खरीदना, यहां आकर महंगे में बेच देना। यहां जो चीज सस्ती हो खरीदना, दूसरे गांव में महंगे में बेचना। वही लाभ का रास्ता है। तो कोई ऐसी चीज खरीदकर लाना, जिसमें लाभ हो। नानक लौटते थे खरीदकर, मिल गई साधुओं की एक जमात। वे साधु पाँच दिन से भूखे थे। नानक ने पूछा,भूखे बैठो हो। उठो, कुछ करो। जाते क्यों नहीं गांव में? उन्होंने कहा, यही हमारा व्रत है। जब उसकी मर्जी होगी वह देगा। तो हम आनंदित हैं। भूख से कोई अंतर नहीं पड़ता।

तो नानक ने सोचा कि इससे ज्यादा लाभ की बात क्या होगी कि इन परम साधुओं को यह भोजन बाँट दिया जाए जो मैं खरीद लाया हूँ बाहर गांव से? पिता ने यही तो कहा था कि कुछ काम लाभ का करो।

उन्होंने वह सब सामान साधुओं में बाँट दिया। साथी था साथ में, उसका नाम बाला था। उसने कहा क्या करते हो, दिमाग खराब हुआ है। नानक ने कहा, यही तो कहा था पिता ने कुछ लाभ का काम करना। इससे ज्यादा लाभ क्या होगा? बांट कर वे बड़े प्रसन्न घर लौटे।

पिता ने कहा भी कि ऐसे तो व्यापार नष्ट हो जाएगा। और नानक ने कहा, 'आप नहीं सोचते कि इससे ज्यादा लाभ की और क्या बात होगी? लाभ कमा कर लौटा हूं।'


लेकिन यह लाभ किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। नानक के पिता कालू मेहता को तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता था। उनको तो लगता था, लड़का बिगड़ गया। साधु संगत में बिगड़ा। होश में नहीं है। सोचा कि शायद स्त्री से बांध देने से राहत मिल जाएगी।

अक्सर लोग ऐसा सोचते हैं। सोचने का कारण है क्योंकि संन्यासी स्त्री को छोड़कर भागते हैं तो अगर किसी को गृहस्थ बनाना हो, तो स्त्री से बाँध दो। पर नानक पर यह तरकीब काम न आई क्योंकि यह आदमी किसी चीज के विरोध में न था। पिता ने कहा, 'शादी कर लो।'
नानक ने कहा, 'अच्छा'। शादी हो गई, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क नहीं पड़ा। बच्चे हो गए, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क न पड़ा। इस आदमी को बिगाड़ने का उपाय ही न था, क्योंकि संसार और परमात्मा में उन्हें कोई भेद न था।

तुम बिगाड़ोगे कैसे? जो आदमी धन छोड़कर संन्यासी हो गया, उसे बिगाड़ सकते हो- धन दे दो। जो आदमी स्त्री छोड़कर संन्यासी हो गया, एक सुंदर स्त्री उसके पास पहुंचा दो, बिगाड़ सकते हो। लेकिन जो कुछ छोड़कर ही नहीं गया, उसको तुम कैसे बिगाड़ोगे। उसके पतन का कोई रास्ता नहीं है। इसीलिए नानक को भ्रष्ट नहीं किया जा सकता।

10/02/2020

मैंने देखा, मुल्ला नसरुद्दीन एक झील के किनारे बैठा मछली मार रहा है। मैंने उससे कहा कि नसरुद्दीन, कुछ पकड़ी? उसने कहा कि नहीं, आज दिन भर तो हो गया, सूरज ढलने को आ गया, एक भी मछली नहीं पकड़ी। मैंने कहा, तुम्हें पता है, इस झील में मछली है ही नहीं। उसने कहा, मुझे पता है। तो मैंने कहा, पास ही दूसरी —झील है, जहां मछलिया ही मछलियां हैं। मुल्ला ने कहा, वहां पकड़ने में क्या सार! वहां तो कोई भी पकड़ ले। बच्चे पकड़ लें। इसीलिए तो यहां बैठा हूं कि यहां कोई भी नहीं पकड़ पाता। यहां पकड़ी तो कुछ पकड़ी। वहां पकड़ी तो क्या पकड़ी!

अहंकार हमेशा असंभव को संभव करना चाहता है और असंभव संभव होता नहीं। अहंकार दो और दो को तीन बनाना चाहता है या पाच बनाना चाहता है और ऐसा कभी होता नहीं।

तो अहंकार के कारण अक्सर लोग उसे चुन लेते हैं जो कठिन है। और कठिन से कभी कोई नहीं पहुंचता। साधो सहज समाधि भली। जो तुम्हारे अनुकूल पड़ जाए, बिलकुल स्वाभाविक हो। इतनी सरलता से हो जाए कि कानोंकान खबर न पता चले। फूल की तरह हो जाए, काटे की तरह न चुभे। वही मार्ग है।

इतना स्मरण रहे तो तुम भटकोगे नहीं, पहुंच जाओगे। पहुंचना सुनिश्चित है। सहज मार्ग से कभी कोई भटका ही नहीं है।

09/02/2020

एक सूफी कहानी है। एक फकीर एक वृक्ष के नीचे ध्यान करता है। रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता है। एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन— भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता : वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा।
गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती। लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती। यह फकीर यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा? मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो! फिर झूठ कहेगा भी क्यों? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है। कभी बोला भी नहीं इसके पहले। एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है।
तो गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी। मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था। हम यही काटने की, जलाऊ—लकड़ियां काटते—काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही। तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी। जरूर जंगल है। मैं भी कैसा अभागा ! काश, पहले पता चल जाता ! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है। जब घर आ गए तभी सबेरा है। दिन बड़े मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी। जिंदगी— भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा : चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे, दो—चार छ: महीने के लिए हो गया।
अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या ! चांदी ही चांदी थी ! चार—छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता?

उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था। फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे। उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?

उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा?

रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों—जन्मों में नहीं आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है। *फकीर ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है। अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं। अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे आगे है।*

यही मैं तुमसे कहता हूं : और आगे, और आगे। चलते ही जाना है। उस समय तक मत रुकना जब तक कि सारे अनुभव शांत न हो जाएं। परमात्मा का अनुभव भी जब तक होता रहे, समझना दुई मौजूद है, द्वैत मौजूद है, देखनेवाला और दृश्य मौजूद है। जब वह अनुभव भी चला जाता है तब निर्विकल्प समाधि। तब सिर्फ दृश्य नहीं बचा, न द्रष्टा बचा, कोई भी नहीं बचा। एक सन्नाटा है, एक शून्य है। और उस शून्य में जलता है बोध का दीया। बस बोधमात्र, चिन्मात्र! वही परम है। वही परम—दशा है, वही समाधि है।

08/02/2020

कामादि वृत्ति दहनम्

अफ्रीका में एक मकोड़ा होता है। जब भी नर मकोड़ा मादा मकोड़े के साथ संभोग में जाता है, इधर मकोड़ा संभोग शुरू करता है, उधर मादा उस मकोड़े के शरीर को खाना शुरू कर देती है। एक ही संभोग कर पाता है वह मकोड़ा, क्योंकि वह संभोग करता रहता है और मादा उसके शरीर को खाती चली जाती है।

वैज्ञानिक जब उसके अध्ययन में थे, तब बड़े हैरान हुए कि क्या उस मकोड़े को यह भी पता नहीं चलता कि मैं मारा जा रहा हूं खाया जा रहा हूं र नष्ट किया जा रहा हूं! मकोड़ा संभोग के बाद मुर्दा ही गिरता है। उसकी लाश को मादा खा जाती है पूरा। बस, एक ही संभोग कर पाता है। दूसरे मकोड़े यह देखते रहते हैं, लेकिन जब उनकी संभोग की वृत्ति जगती है तब वे भूल जाते हैं कि मौत में उतर रहे हैं। तो शरीर शास्त्रियों ने उस मकोड़े का बहुत अध्ययन करके पता लगाया कि उसके शरीर में बड़ी गहरी विषाक्तता है। जब कामवासना पकड़ती है उसको, तो उसे इतना भी होश नहीं रह जाता कि मैं काटा जा रहा हूं मारा जा रहा हूं खाया जा रहा हूं। यह भी भूल जाता है।

आश्चर्यजनक है। लेकिन अगर हम अपने को भी समझें, तो आश्चर्यजनक नहीं मालूम होगा। वह कीड़ा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

वही स्थिति मनुष्य की है। वह जानता है, भलीभांति पहचानता है। फिर वासना पकड़ लेती है, फिर वासना पकड़ लेती है। वासना के बाद अनुभव भी होता है कि व्यर्थ है, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन उस व्यर्थता के बोध का कोई लाभ नहीं होने वाला है, क्योंकि जब तक बेहोशी न टूटे, वह फिर आ जाएगा; जिसको व्यर्थ कहा, वह फिर सार्थक हो जाएगा। इसलिए ऋषि यह नहीं कहते कि उसे दबाओ। वे कहते हैं, इतने जागो, होश की इतनी अग्नि पैदा करो, द फायर आफ अवेकनिंग, कि उसमें सब दग्ध हो जाए। और जब कामवासना दग्ध हो जाती है, तो और शेष वासनाएं अपने आप दग्ध हो जाती हैं। यह कोई फ्रायड की नई खोज नहीं है कि कामवासना सब वासनाओं का केंद्र है। यह तो ऋषि सदा से जानते रहे हैं। यह जिन्होंने भी खोज की है मनुष्य की अंतरात्मा में, वे सदा से जानते रहे हैं कि बाकी सारी वासनाएं कामवासना से ही पैदा होती हैं।

04/02/2020

*प्रेम दूरी बर्दाश्त नही करता*
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प्रेम करोगे तो विरह झेलोगे ही ,
क्योंकि जिसे चाहोगे जब चाहोगे तभी न मिल जाएगा। और जितना चाहोगे उतना निष्ठुर मालूम होगा क्योंकि जितना माँगोगे ,
उतना ही पाओगे तो लगेगा दूरी अभी और शेष है ..

प्रेम दूरी बर्दाश्त नहीं करता इंच भर दूरी बर्दाश्त नहीं करता।
प्रेम द्वैत बर्दाश्त नहीं करता।
और जब तक द्वैत रहता है तब तक विरह रहता है।
प्रेम तो अद्वैत चाहता है।
प्रेम तो चाहता है एक हो जाऊँ बिल्कुल एक हो जाऊँ ..

इस संसार में प्रेम की अगर कोई भूल है तो बस इतनी ही है कि इस संसार का कोई भी प्रेम अद्वैत का अनुभव नहीं देता।
और देता भी है तो क्षणभंगुर को जरा सी देर को एक झलक झलक आई और गई।
और झलक जाने के बाद और भी अंधेरा रह जाता है और भी गड्ढे में गिर जाते हो,
और भी विषाद घना हो जाता है ,,

मैं तो तुमसे कहता हूँ इस जगत के प्रेम को जानो ताकि द्वैत छाती में चुभ जाए कटार की भाँति ,
तभी तो तुम अद्वैत की तरफ चलोगे।
तभी तो तुम उस परम प्यारे को खोजोगे जिसके साथ मिलन एक बार हुआ तो हुआ।
जिसके साथ मिलन होने के बाद फिर कोई बिछुड़न नहीं होती ...........

03/02/2020

एक फकीर ने एक सम्राट के द्वार पर भीख मांगी।
संयोग की बात, सम्राट भी द्वार पर खड़ा था।
उसने फकीर को कहा, क्या चाहता है?

फकीर ने कहा,
और कुछ नहीं चाहता, यह मेरा भिक्षापात्र है,
इसे भर दो। सम्राट ने पूछा,
काहे से भरना चाहता है—मजाक में रहा होगा—
किस चीज से भर दूं?

उस फकीर ने कहा, चीज कोई भी हो,
मगर पूरा भरा हुआ पात्र लेकर जाऊंगा।
अगर सम्राट हो और होने का कुछ दर्प है,
चाहे मिट्टी से भर दो, मगर पूरा भर देना।
खाली लेकर न जाऊंगा। छोटा सा पात्र लिए है।

सम्राट हंसा,
उसने अपने वजीर को कहा कि जाओ,
हीरे—जवाहरातों से भर दो इसका पात्र,
यह भी याद रखेगा किसी सम्राट से भीख मांगी थी!

वह फकीर खड़ा हंसता रहा।
उसकी हंसी थोड़ी चोट भी करने लगी।
उसके चेहरे पर बड़ा व्यंग्य था।
और जब वजीर लाए,
हीरे—जवाहरातों से उसका पात्र भरा,
तब सम्राट को समझ में आया कि झंझट हो गयी।
वे हीरे—जवाहरात उसके पात्र में गिरे और खो गए,
उसका पात्र खाली का खाली रहा।

एक बड़ी मीठी सूफी कथा है यह।

सम्राट तो पागल हो गया,
उसने कहा कि चाहे सब लुट जाए,
मगर पात्र भरना ही है। भीड़ लग गयी,
सारी राजधानी इकट्ठी हो गयी,
भागे लोग चले आ रहे हैं,

गावभर में खबर फैल गयी कि एक
फकीर ने चुनौती दी है और सम्राट ने
चुनौती स्वीकार कर ली है और पात्र भरता नहीं।

हीरे—जवाहरात डाले गए,
सोना—चांदी डाले गए,
रुपए डाले गए, पैसे डाले गए,
जो कुछ था सम्राट ने सब डाल दिया
और पात्र खाली का खाली रहा।
फिर तो हारा; पैरों पर गिर
पड़ा और कहा, मुझे क्षमा करो,
लेकिन जाते—जाते इतना बता दो,
इस पात्र का राज क्या है?

उस फकीर ने कहा, समझे नहीं?
यह पात्र साधारण पात्र नहीं है।
यह आदमी के मन से बनाया गया है।
यह आदमी के हृदय से निर्मित है।
यह आदमी की तृष्णा से बनाया गया है।
यह दुघूर है।
इसे तुम भरते जाओ, यह खाली रहेगा।

हंसना मत,
क्योंकि कहानी बड़ी
वास्तविक नहीं मालूम पड़ती,
कहानी बिलकुल झूठी मालूम पड़ती है।
मगर मैं तुमसे कहता हूं सच है।
और तुम्हारी कहानी है।

तुम भी अपने भीतर के
पात्र में कितना भरते चले गए हो,
भरा? पहले सोचा दस हजार रुपए होंगे,
वह हो गए एक दिन
और तुमने पाया कुछ नहीं भरा।
फिर सोचा लाख हो जाएं,
वह भी हो गए एक दिन,
फिर भी तुमने पाया पात्र नहीं भरा।
दस लाख की सोचते थे,
वह भी हो गए एक दिन।

एंड्रू कारनेगी अमरीका का बड़ा अरबपति मरा,
दस अरब रुपए छोड़कर मरा,
लेकिन असंतुष्ट मरा। दस अरब!
आदमी को तृप्त हो जाना चाहिए,
अब और क्या चाहिए?
लेकिन मरते वक्त किसी ने
उससे पूछा कि कारनेगी,
तुम तो संतुष्ट मर रहे होओगे,

क्योंकि तुमने तो इतनी अपार
राशि इकट्ठी की—और कारनेगी
गरीब घर से आया था,
बाप की तरफ से एक पैसा नहीं मिला था,
खुद के ही बल से दस अरब रुपए छोड़कर गया—

कारनेगी ने आखें खोलीं और कहा,
क्या बात कर रहे हो,
मैं असंतुष्ट मर रहा हूं क्योंकि मेरी
योजना सौ अरब रुपए इकट्ठे करने की थी।
दस अरब, क्या हल होता है!
नब्बे अरब से हारकर मर रहा हूं।

कारनेगी भी हारा हुआ मरता है
और सिकंदर भी हारा हुआ मरता है।
और सब हारे हुए मरते हैं।
यह कहानी बिलकुल सच है।
यह कहानी बिलकुल झूठी मालूम पड़ती है
और इससे सच कहानी खोजनी मुश्किल है।

28/01/2020

: लोग कहते है बड़ी कठिनाई है ध्यान लगाने में, कठिनाई जरा भी नही है। अभी बाहर की वासना नही मरी , वही कठिनाई है।सभी बच्चे बड़ी महत्वकांछा लेकर संसार मे चलते है, और सभी बूढ़े सिर्फ टूटे हुए खिलौनों को लेकर समाप्त होते है, सब सपने पैरों तले रुन्दे हुए , सब इंद्रधनुष टूटे हुए। बूढ़े की असली पीड़ा ना तो बुढापा है, ना मृत्यु है। बूढ़े की असली पीड़ा है , सब सपनो का टूट जाना। सब महत्वकांछाए व्यर्थ सिद्ध हुई। जो भी पाना चाहा वह व्यर्थ गया, मिला तो भी व्यर्थ गया,ना मिला तो भी व्यर्थ गया।

22/01/2020

काशी के नरेश का अपेंडिक्स का आपरेशन हुआ। तो उन्होंने कहा, मैं तो गीता पढ़ता रहूंगा, कोई नशे की दवा, कोई बेहोशी की दवा, कोई अनस्थीसिया नहीं लूंगा। ऐसा खतरनाक मामला था कि आपरेशन न हो तो भी मौत होनी थी, और नरेश किसी भी तरह बेहोशी की दवा लेने को तैयार न था। तो चिकित्सकों ने खतरा लेना ठीक समझा कि अब कोई मरेगा ही--आपरेशन न हुआ तो मौत निश्चित है और आपरेशन किया बिना बेहोशी की दवा के तो भी मौत करीब-करीब निश्चित है--पर कौन जाने शायद यह आदमी ठीक ही कहता हो, एक प्रयोग कर लेने में हर्ज नहीं है। प्रयोग किया।
वह अपनी गीता का पाठ करते रहे, आपरेशन चलता रहा। आपरेशन हो गया, तब डाक्टरों ने कहा कि अब आप पाठ बंद कर सकते हैं। पूछा उनसे कि क्या हुआ? उन्होंने कहा, कुछ और मैं जानता नहीं, इतना ही जानता हूं कि जब मैं गीता पढ़ता हूं तब मुझे और कुछ भी ध्यान में नहीं रहता। सारा ध्यान गीता पर लग जाता है। मैं और कहीं नहीं रहता, सिकुड़कर गीता पर आ जाता हूं।
पाप और पुण्य विकल्प हैं। अगर तुम्हारा ध्यान करुणा पर लगा है, तो तुम क्रोध कैसे कर सकोगे? क्रोध भूल ही जाएगा। याद ही न आएगी। जैसे क्रोध कोई घटना होती ही नहीं। जैसे क्रोध कोई दिशा ही नहीं है। अगर तुम्हारा ध्यान दान पर लगा है, देने पर लगा है, तो कृपणता भूल ही जाएगी। ये दोनों बातें एक साथ याद नहीं रखी जा सकतीं। यह तो असंभव है। तुम एक में ही जी सकते हो।
इसलिए बुद्ध के सूत्र का अर्थ यह है कि अगर तुम त्वरा करो, जल्दी करो, शीघ्रता करो और पुण्य में अपने मन को लगाते रहो, तो तुम पाओगे कि पाप से तुम बचने ही लगे, बचने की जरूरत न रही। और जब भी कभी तुम्हें लगे कि पाप पर नजर जा रही है, तत्क्षण पुण्य पर नजर देना।
ऐसा समझो कि तुम्हें कोई एक आदमी दिखायी पड़ा, बांसुरी बजा रहा है, लेकिन शकल कुरूप है। अब तुम्हारे सामने दो विकल्प हैं। या तो तुम उसकी कुरूप शकल देखो और पीड़ित और बेचैन हो जाओ, या उसकी सुंदर बांसुरी का स्वर सुनो, सौंदर्य में लीन हो जाओ।
अगर तुम सुंदर बांसुरी का स्वर सुनो, तो उसकी कुरूप शकल भूल जाएगी। स्वरों में तुम लवलीन हो जाओगे, तल्लीन हो जाओगे। अगर तुम उसका कुरूप चेहरा देखो, तो बांसुरी बजती रहेगी, तुम्हें सुनायी न पड़ेगी, तुम कुरूपता के कांटे से उलझ जाओगे। गुलाब की झाड़ी के पास खड़े होकर कांटे गिनो या फूल गिनो, दोनों संभावनाएं हैं। जो फूल गिनता है, वह कांटे भूल जाता है। जो कांटे गिनता है, उसे फूल दिखायी पड़ने बंद हो जाते हैं। पुण्य और पाप जीवन के विकल्प हैं।
'पाप से चित्त को हटाए, पुण्य करने में शीघ्रता करे। पुण्य को धीमी गति से करने वाले का मन पाप में रमने लगता है।'
करोगे क्या? नदी बहेगी नहीं तो डबरा बनने ही लगेगी। बहती रहे, बहाव रहे, तो डबरा कैसे बनेगी? एक ही हो सकता है। नदी डबरा बने तो बह न सके, बहे तो डबरा न बन सके।
बुद्ध का जोर पाप से बचने पर उतना नहीं है, जितना पुण्य में रत होने पर है। यही नीति और धर्म का भेद है। नीति कहती है पाप से बचो, धर्म कहता है पुण्य में डूबो। ऊपर से देखने पर दोनों एक सी बातें हैं, पर एक सी नहीं। जमीन और आसमान का भेद है। अगर तुम सिर्फ पाप से ही बचोगे, तो ज्यादा देर बच न पाओगे, क्योंकि बच-बचकर ऊर्जा का क्या करोगे? अगर क्रोध को ही रोके रहे, कितनी देर रोक पाओगे? विस्फोट होगा। इकट्ठा हो जाएगा, फिर बहेगा, फिर तुम अवश हो जाओगे। नहीं, सिर्फ क्रोध को बचाकर कोई क्रोध से नहीं बच सकता। करुणा में बहना पड़ेगा, अन्यथा क्रोध के डबरे भर जाएंगे।
धर्म विधायक रूप से पुण्य की खोज है, नीति निषेधात्मक रूप से पाप से बचाव है। हां, अगर तुम दोनों का उपयोग कर सको, तो तुम्हें दोनों पंख मिल गए। उड़ना बहुत सुगम हो जाएगा। इधर पाप से मन को बचाते रहो, उधर पाप की जितनी ऊर्जा बच गयी पाप से, पुण्य में लगाते रहो। शीघ्रता करो लेकिन। मन की एक तरकीब है--स्थगन। मन कहता है, कल कर लेंगे।
यह सोचते ही रहे और बहार खत्म हुई
कहां चमन में नशेमन बने कहां न बने
यह बहार सदा रहने वाली नहीं। यह वसंत सदा रहने वाला नहीं। इसका प्रारंभ है, इसका अंत है। यह जन्म है और मौत आती है। ये बीच की थोड़ी सी घड़ियां हैं। तुम कहीं यही सोचते-सोचते बिता मत देना कि कहां बनाएं घर--कहां नशेमन बने, कहां न बने। यह बहार रुकी न रहेगी तुम्हारे सोचने के लिए। यह जीवन तुमने कुछ भी न किया तो भी खो जाएगा, इसलिए कुछ कर लो। क्योंकि जो तुम कर लोगे, वही बचना होगा। जो तुम कृत्य में रूपांतरित कर लोगे, जो सक्रिय हो जाएगा, सृजनात्मक हो जाएगा, वही तुम्हारी संपदा बन जाएगी। बचाने से नहीं बचता जीवन, जगाने से, सृजन कर लेने से बचता है।
वे ही हैं धन्यभागी, जो एक-एक पल का उपयोग कर लेते हैं। इसके पहले कि पल जाए, पल को निचोड़ लेते हैं। उनका जीवन सघन होता जाता है। उनका जीवन गहन आंतरिक शांति, आनंद और संपदा से भरता जाता है। मौत उन्हें दरिद्र नहीं पाती। मौत उन्हें भिखारियों की तरह नहीं पाती। मौत उन्हें सम्राटों की तरह पाती है। लेकिन जिन्हें तुम सम्राटों की तरह जानते हो, मौत उन्हें भिखमंगों की तरह पाती है।
क्षण का उपयोग, इसके पहले कि खो जाए। और क्षण बड़ी जल्दी खो रहा है, भागा जा रहा है। एक पल की भी देर की कि गया। तुम जरा ही झपकी खाए कि गया। इतनी त्वरा से पकड़ना है समय को। विचार करने की भी सुविधा नहीं है। क्योंकि विचार में भी समय खो जाएगा और वर्तमान का क्षण विचार के लिए भी अवकाश नहीं देता। निर्विचार से, ध्यान से, पुण्य में उतर जाओ। इसलिए पुण्य की प्रक्रिया का ध्यान अनिवार्य अंग है। क्योंकि केवल ध्यानी ही शीघ्रता कर सकता है। जो विचार करता है, वह तो देर कर ही देगा।

20/01/2020

मैंने घटना सुनी है। अमरीका का एक बहुत बड़ा अरबपति, एंड्ररू कारनेगी, एक किताब की दुकान पर गया। सामने ही उसने एक किताब देखी। उठा कर पन्ने पलटे, नई—नई छपी थी—हाउ टु ग्रो रिच? धनी कैसे हों? उसने किताब को ऐसा पलटा—उलटा, रख दिया।
दुकानदार ने कहा: किताब पढ़ने जैसी है। और अगर आप चाहें तो मैं किताब के लेखक से भी मिला दूं। संयोग की बात, लेखक अभी मौजूद है, दुकान के भीतर बैठे हैं।
एंड्ररू कारनेगी ने कहा कि मैं लेखक को मिलूं, फिर यह किताब खरीद सकता हूं। लेखक को बुलाया। फटे—पुराने कपड़े पहने लेखक हाजिर हुए। एंड्ररू कारनेगी हंसने लगा। उसने पूछा: यहां कैसे आए? लेखक से पूछा: यहां कैसे आए? बस में आए, ट्रेन में आए, कार में आए, टैक्सी में आए?
उसने कहा: पैदल आया।
तो एंड्ररू कारनेगी ने कहा: धन कमाना हो तो मेरे पास सीखने आना। धन कमाने के लिए किताब लिखी है, और अभी बस में चलने तक की हैसियत नहीं है? तुम्हारी किताब काम किसके आएगी?
एंड्ररू कारनेगी ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने जितनी किताबें पढ़ी हैं धन कमाने के बाबत, वे उन्होंने लिखी हैं, जिनके पास धन था ही नहीं। असल में धन कमाने के बाबत किताबें ही वे लोग लिखते हैं। असल में यह किताब भी धन कमाने का ही एक ढंग है, और कुछ खास मतलब नहीं है। क्योंकि लोग धन कमाना चाहते हैं, तो किताब बिक जाती है।
भिखमंगा भी धन कमाने की योजनाएं बनाता रहता है। तो भिखमंगा भी कोशिश करता है कि कहीं से राज मिल जाए।
अगर तुम धन के पीछे दीवाने हो, तो तुम धनी की सेवा में रत रहोगे। अगर पद के पीछे दीवाने हो, तो राजनेता के हाथ—पैर दबाओगे। तुम वहीं जाओगे जो तुम पाना चाहते हो। जिस दिन तुम साधु के पास जाने लगे, उस दिन समझना शुभ घड़ी आई, तुम में प्रभु की प्यास उठी!
गई कुमति लहि साधु संगति, भक्ति रूप भई सांची।
और वहीं भक्ति का असली रूप प्रकट होगा। शास्त्रों में नहीं, किताबों में नहीं—भक्तों के पास; जो भक्त हैं। क्योंकि भक्ति कोई सिद्धांत नहीं है—जीवनचर्या है। एक जीने की शैली है। एक और ही ढंग है जीने का। परमात्मा में जीने की एक प्रक्रिया है। तैरना सीखना हो तो किताब पढ़ने की जरूरत नहीं—कोई तैरना जानता हो, उसके पास जाना। किताबों से कोई तैरना नहीं सीखता; और सीखो तो नदी में मत उतरना। नहीं तो डूबोगे, बुरी तरह डूबोगे! किताबों से तैरना सीखो तो अपनी गद्दी पर ही तैरना। वहीं हाथ—पैर मार लिए, विश्राम कर लिए। नदी में मत जाना भूल कर।

17/01/2020

💫⚡✨🍀☘🌿🌱🎍🎋🍃🍂🍁🍄🐚🌾🌷🌺🌸🌼🌟🌹💥🔥🌻💐🌈

रस्किन ने कहां है कि धनी आदमी तब होता है, जब वह धन को दान कर पाता है। नहीं तो गरीब ही होता है। रस्किन का मतलब यह है कि आप धनी उसी दिन हैं, जिस दिन आप धन को छोड़ पाते हैं। अगर नहीं छोड़ पाते तो आप गरीब ही हैं। पकड़ गरीबी का लक्षण है, छोड़ना मालकियत का लक्षण है। अगर किसी चीज को आप छोड़ पाते है, तो समझना कि आप उसके मालिक हैं; और अगर किसी चीज को आप केवल पकड़ ही पाते हैं तो आप भूल कर मत समझना कि आप उसके मालिक हैं। इसका तो बडा अजीब मतलब हुआ। इसका मतलब हुआ कि जो चीजें आप किसी को बांट देते हैं, उनके आप मालिक हैं। और जो चीजें आप पकड़कर बैठे रहते है, उनके आप मालिक नहीं हैं।

दान मालकियत है; क्योंकि जो आदमी दे सकता है, वह यह बता रहा है कि वस्तु मुझ से नीची है, मुझसे ऊपर नहीं। मैं दे सकता हूं। देना मेरे हाथ में है। और जो व्यक्ति देकर प्रसन्न हो सकता है, उसकी मूर्छा टूट गयी। जो व्यक्ति केवल लेकर ही प्रसन्न होता है और देकर दुखी हो जाता है, वह मुर्छित है। त्याग का ऐसा है अर्थ।

त्याग का अर्थ है—दान की अनंत क्षमता, देने की क्षमता। जितना बड़ा हम दे पाते हैं, जितना ज्यादा हम दे पाते है, उतने ही हम मालिक होते चले जाते हैं।

17/01/2020

नगर की प्रसिद्ध वैश्या की गली से एक योगी जा रहा था कंधे पर झोली डाले। योगी को देखते ही एक द्वार खुला सामने की महिला ने योगी को देखा। ध्यान की गरिमा से आपूर, अंतर मौन की रश्मियों से भरपूर। योगी को देखकर महिला ने निवेदन किया गृह में पधारने के लिए। उसके आमन्त्रण में वासना का स्वर था।

योगी ने उत्तर दिया," देखती नहीं झोली में दवाएं पड़ी हैं, गरीबों में बांटनी हैं उन्हें रोगों से मुक्त करना है। हमारे और तुम्हारे कार्य में अंतर है तुम रोग बढ़ाती हो, हम रोग मिटाते हैं। तुम शरीर और वासना की भाषा बोलती हो, हम सत्य और बोध की।"

योगी की बात पर क्रोधित होकर वैश्या बोली," योगी तुम्हें पता है। मेरे रंग रूप के पीछे सारा शहर दिवाना है। मुझे पाने के लिए वह अपने जीवन की भरपूर धन संपदा लुटाने को तत्पर रहते हैं। मैं स्वयं को तुम्हारे आगे समर्पित कर रही हूं और तुम इंकार कर रहे हो।"

योगी ने कहा," मुझे तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार है परंतु अभी नहीं। मैं आऊंगा और जरूर आऊंगा।"

कहते हुए योगी चला गया। समय बीतता गया, महिला वृद्ध हो गई। अब उसे पाने के लिए कोई न आता था। तबले की थाप, घुंघरू की आवाज सुनाई नहीं देती थी बल्कि कराहने की आवाज आती थी।

योगी उस गली से गुजर रहा था आवाज सुनी पीड़ा से करहाने की। अंदर प्रवेश करके देखा एक वृद्धा जिसे कोढ़ हो गया था। दर्द से तड़प रही थी।

योगी ने कहा," मैं आ गया हूं। कहा था न मैं आऊंगा।"

योगी ने झोली खोली," उसके घाव साफ किए दवा लगाई और कहा चिन्ता न करो जल्दी ठीक हो जाओगी।"

सन्यास लेने से पूर्व योगी डॉक्टर था। सन्यास लेकर भी उसने सेवा का कार्य न छोड़ा था। सन्यास का अर्थ कर्म त्याग नहीं, कर्ता भाव का त्याग है। योगी नियमित रूप से महिला की सेवा करने लगा। कुछ ही दिनों में वह स्वस्थ हो गई। जो कभी सुख के पीछे भागती थी आज योगी की कृपा से आनंद में जाग रही है।

इस शरीर की दो संभावनाएं हैं। यदि सुख लोलुपता में बह गया तो सुख के बाद दुख का नरक झेलना पड़ेगा और यदि सेवा का सूत्र मिल गया तो जीवन स्वर्ग की सुंगध से आपूर हो जाएगा।

आप का चुनाव है, आप बीच में खड़े हैं। दोनों द्वार खुले हैं, नर्क का भी, स्वर्ग का भी। सुख लोलुपता का, सेवा का भी। आप जिसमें जाना पसंद करें, चले जाएं। यह ध्यान रहे नर्क के द्वार पर सजावट बहुत है लेकिन परिणाम में पीड़ा और पश्चाताप है। स्वर्ग के द्वार पर कोई श्रंगार नहीं है मात्र सत्य की सुंगध है। परिणाम में आनंद है।

नाशवान शरीर को अविनाशी का द्वार बना लो। बाहर आओ तो प्रत्येक क्रिया के द्वारा सेवा के फूल खिलाओ। अंदर जाओ तो अक्रिय के द्वारा आनंद की गंगा में नहाओ।

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