Shree Rameshwar Drug Associate, Khaga

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24/08/2022
13/01/2022

उ०प्र० विधान सभा चुनाव से ठीक पहले भा०ज०पा० से सारा कचरा अपने-आप साफ होता जा रहा है, जिन भ्रष्टाचार पसंद मंत्रियों/विधायकों की दाल नहीं गल सकी, मा० योगी जी के सख्त शासन मे, वे सभी एक एक कर के सपा जैसे दलों मे अपना भविष्य तलाश कर रहे हैं। यह एक तरह से प्रदेश की जनता का सौभाग्य है कि ऐसे राजनेताओं जिनको शायद भारतीय जनता पार्टी उनके प्रभाव वाले वोटर्स की वजह से बाहर का रास्ता न दिखा पाती, स्वयं ही बाहर निकल रहे हैं, चूंकि वह अच्छी तरह समझ चुके हैं कि योगी राज मे उनकी मनोकामनाएं न पहले पूर्ण हुई हैं और अब तो बिल्कुल भी गुंजाइश नहीं रहेगी। पांच साल मंत्री/विधायक रह लिए कोई फ़ायदा नहीं उठा पाए तो आगे तो और भी सख्त शासन रहेगा, लिहाज़ा सब भ्रष्टाचारी किनारा करने लगे और लग गए गोलबंदी करने में और भाजपा को हराने का दिवास्वप्न देखने में। पता नही जनता को कितना मूर्ख समझते हैं ये स्वार्थी और भ्रष्ट राजनेता। सिवाय कुछ भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों/अधिकारियों तथा समाज का एक ऐसा वर्ग, जिसका भ्रष्टाचार तथा अराजकता के बगैर जीवन यापन संभव नहीं है और जिनके गैरकानूनी धंधे विगत पांच वर्षों से ठप पड़े हैं, प्रदेश की सुशिक्षित तथा जागरूक जनता अब इनके किसी झांसे मे आने वाली नहीं है ये चाहे जितना जातीय तथा साम्प्रदायिक विभाजन करने का प्रयास कर लें। प्रदेश की जनता ने इन सभी की कार्य शैली देख चुकी है और मा० मोदी जी के दिशा-निर्देश मे आज तक की सर्वश्रेष्ठ सरकार मा०योगी जी के नेतृत्व में देख चुकी है और अब वह दीर्घ काल तक इसी प्रकार के लोक कल्याणकारी, राष्ट्र भक्त और भ्रष्टाचार मुक्त शासन को ही पसंद करती है जिससे प्रदेश का सर्वांगीण विकास हो, सभी को सुरक्षा, रोजगार के समान अवसर, उत्तम शिक्षा तथा लोक कल्याणकारी योजनाओं का समान लाभ प्राप्त हो, भ्रष्टाचार तथा माफिया तन्त्र से मुक्ति मिल सके।

04/11/2021

शुभ दीपावली

*🌹"उद्धव_गीता"🌹*   *में केवल साक्षी हूँ**उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्...
08/10/2021

*🌹"उद्धव_गीता"🌹*
*में केवल साक्षी हूँ*

*उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप में श्रीकृष्ण की सेवा में रहे, किन्तु उन्होंने श्री कृष्ण से कभी न तो कोई इच्छा जताई और न ही कोई वरदान माँगा।*

*जब कृष्ण अपने अवतार काल को पूर्ण कर गौलोक जाने को तत्पर हुए, तब उन्होंने उद्धव को अपने पास बुलाया और कहा-*

*"प्रिय उद्धव मेरे इस 'अवतार काल' में अनेक लोगों ने मुझसे वरदान प्राप्त किए, किन्तु तुमने कभी कुछ नहीं माँगा! अब कुछ माँगो, मैं तुम्हें देना चाहता हूँ।*
*तुम्हारा भला करके, मुझे भी संतुष्टि होगी।*

*उद्धव ने इसके बाद भी स्वयं के लिए कुछ नहीं माँगा। वे तो केवल उन शंकाओं का समाधान चाहते थे जो उनके मन में कृष्ण की शिक्षाओं, और उनके कृतित्व को, देखकर उठ रही थीं।*

*उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा-* sst

*"भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेक बातें मैं नहीं समझ पाया!*

*आपके 'उपदेश' अलग रहे, जबकि 'व्यक्तिगत जीवन' कुछ अलग तरह का दिखता रहा!*
*क्या आप मुझे इसका कारण समझाकर मेरी ज्ञान पिपासा को शांत करेंगे?"*

*श्री कृष्ण बोले-*
*“उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन से जो कुछ कहा, वह "भगवद्गीता" थी।*

*आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो और उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह "उद्धव-गीता" के रूप में जानी जाएगी।*

*इसी कारण मैंने तुम्हें यह अवसर दिया है। तुम बेझिझक पूछो।*

*उद्धव ने पूछना शुरू किया-*

*"हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?"*

*कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।"*

*उद्धव-*
*"कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीय प्रिय मित्र थे। आजाद बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया।*

*कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।*

*किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया?*

*आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं?*

*चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा!*

*आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे!*

*आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक सकते थे!*
*उसके बाद जब उन्होंने अपने भाईयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे! आपने वह भी नहीं किया?*

*उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए द्रौपदी को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया, और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे!*

*अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे!*

*इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!*

*लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?*

*उसे एक आदमी घसीटकर हॉल में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र....

*एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?*
*अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?*

*बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?*

*क्या यही धर्म है?"*

*इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।*

*ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!*

*उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।*

*भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-*

*"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।*

*उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।*

*यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"*

*उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया।*

*यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।*

*जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?*

*पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?*
*चलो इस बात को जाने दो।*

*उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!*

*और उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!*

*क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे। वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!*

*इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!*

*इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!*

*अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!*

*तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा! उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!*

*जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर- 'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम' की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।*

*जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।*

*अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"*

*उद्धव बोले*
*"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!*
*क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"*

*कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-*
*"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"*

*कृष्ण मुस्कुराए-*
*"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है। न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।*

*मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।*

*मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ। यही ईश्वर का धर्म है।"*

*"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!*
*तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?*

*हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?*

*आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?"*

*उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!*

*तब कृष्ण बोले-*
*"उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।*

*जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?*

*तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।*
*जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो!*

*धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!*

*अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"*

*भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले- प्रभु कितना गहरा दर्शन है।*

*कितना महान सत्य। 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी 'पर-भावना' है। मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।*

*गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी में डूब जाते हैं।*

*सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।*
*सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।*
*अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।*

*वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का एहसास हुआ, वह ईश्वर की चेतना में विलय हो गया!*

*यह अनुभूति थी, शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित सुप्रीम चेतना की!*

*तत-त्वम-असि!*
*अर्थात...*
*वह तुम ही हो।।*

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

*🙏जय सियाराम ~ जय श्री कृष्ण।

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07/10/2021

#भारत_विभाजन
मात्र 150 साल में भारत का 9 टुकड़ा हुआ, 2500 वर्षों में 24वां टुकड़ा पाकिस्तान और 25वां टुकड़ा बंग्लादेश हुआ

सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, ब्रह्मदेश(बर्मा ,म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए।
प्राय: #पाकिस्तान व #बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं।
शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है......सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है।
सम्पूर्ण पृथ्वी का जब जल और थल इन दो तत्वों में वर्गीकरण करते हैं, तब सात द्वीप एवं सात महासमुद्र माने जाते हैं। हम इसमें से प्राचीन नाम #जम्बूद्वीप जिसे आज एशिया द्वीप कहते हैं तथा #इन्दू_सरोवरम् जिसे आज #हिन्द_महासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में #हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊँची चोटी #सागरमाथा, #गौरीशंकर हैं, जिसे 1835 में अंग्रेज शासकों ने #एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यंत्र रचा।
हम पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-

उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।

अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं और वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं। बृहस्पति आगम में इसके लिए निम्न श्लोक उपलब्ध है :-

हिमालयं समारम्भ्य यावद् इन्दु सरोवरम।
तं देव निर्मित देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।

अर्थात् जब हम अपने देश (राष्ट्र) का विचार करते हैं तब अपने समाज में प्रचलित एक परम्परा रही है, जिसमें किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प पढ़ा अर्थात् लिया जाता है। संकल्प स्वयं में महत्वपूर्ण संकेत करता है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए, संकल्प कर्ता कौन है ? इसकी पहचान अंकित करने की परम्परा है। उसके अनुसार संकल्प में भू-खण्ड की चर्चा करते हुए बोलते (दोहराते) हैं कि जम्बूद्वीपे (एशिया) भरतखण्डे (भारतवर्ष) यही शब्द प्रयोग होता है। सम्पूर्ण साहित्य में हमारे राष्ट्र की सीमाओं का उत्तर में हिमालय व दक्षिण में हिन्द महासागर का वर्णन है, परन्तु पूर्व व पश्चिम का स्पष्ट वर्णन नहीं है। परंतु जब श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तकों अर्थात् एटलस का अध्ययन करें तभी ध्यान में आ जाता है कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है।
जब विश्व (पृथ्वी) का मानचित्र आँखों के सामने आता है तो पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के भूगोल ग्रन्थों के अनुसार हिमालय के मध्य स्थल #कैलाश_मानसरोवर से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इण्डोनेशिया और पश्चिम की ओर जाएं तो वर्तमान में ईरान देश अर्थात् #आर्यान_प्रदेश हिमालय के अंतिम छोर हैं। हिमालय 5000 पर्वत शृंखलाओं तथा 6000 नदियों को अपने भीतर समेटे हुए इसी प्रकार से विश्व के सभी भूगोल ग्रन्थ (एटलस) के अनुसार जब हम श्रीलंका (सिंहलद्वीप अथवा सिलोन) या कन्याकुमारी से पूर्व व पश्चिम की ओर प्रस्थान करेंगे या दृष्टि (नजर) डालेंगे तो हिन्द (इन्दु) महासागर इण्डोनेशिया व आर्यान (ईरान) तक ही है। इन मिलन बिन्दुओं के पश्चात् ही दोनों ओर महासागर का नाम बदलता है।

इस प्रकार से हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यान (ईरान) व इण्डोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यावर्त अथवा भारतवर्ष अथवा हिन्दुस्तान कहा जाता है।
प्राचीन भारत की चर्चा अभी तक की, परन्तु जब वर्तमान से 3000 वर्ष पूर्व तक के भारत की चर्चा करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि पिछले 2500 वर्ष में जो भी आक्रांत यूनानी (रोमन ग्रीक) यवन, हूण, शक, कुषाण, सिरयन, पुर्तगाली, फेंच, डच, अरब, तुर्क, तातार, मुगल व अंग्रेज आदि आए, इन सबका विश्व के सभी इतिहासकारों ने वर्णन किया। परन्तु सभी पुस्तकों में यह प्राप्त होता है कि आक्रान्ताओं ने भारतवर्ष पर, हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया है। सम्भवत: ही कोई पुस्तक (ग्रन्थ) होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, (म्यांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान, मालद्वीप या बांग्लादेश पर आक्रमण किया।

यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि यह भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतन्त्र हुए। प्राय: पाकिस्तान व बांग्लादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं। शेष इतिहास मिलता तो है परन्तु चर्चित नहीं है। सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है। अंग्रेज का 350 वर्ष पूर्व के लगभग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत आना, फिर धीरे-धीरे शासक बनना और उसके पश्चात् सन 1857 से 1947 तक उनके द्वारा किया गया भारत का 7वां विभाजन है। आगे लेख में सातों विभाजन कब और क्यों किए गए इसका संक्षिप्त वर्णन है।
सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है।

भारतीयों द्वारा सन् 1857 के अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतन्त्रता संग्राम (जिसे अंग्रेज ने गदर या बगावत कहा) से पूर्व एवं पश्चात् के परिदृश्य पर नजर दौडायेंगे तो ध्यान में आएगा कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय देश नहीं थे। इनमें स्वतन्त्र राजसत्ताएं थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के देश में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बे-रोकटोक था। इन राज्यों के विद्वान् व लेखकों ने जो भी लिखा वह विदेशी यात्रियों ने लिखा ऐसा नहीं माना जाता है। इन सभी राज्यों की भाषाएं व बोलियों में अधिकांश शब्द संस्कृत के ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत इतर यानि विदेशी पंथ (मजहब-रिलीजन) आये तब अनेक संकट व सम्भ्रम निर्माण करने के प्रयास हुए।

सन 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्व-मार्क्स द्वारा अर्थ प्रधान परन्तु आक्रामक व हिंसक विचार के रूप में मार्क्सवाद जिसे लेनिनवाद, माओवाद, साम्यवाद, कम्यूनिज्म शब्दों से भी पहचाना जाता है, यह अपने पांव अनेक देशों में पसार चुका था। वर्तमान रूस व चीन जो अपने चारों ओर के अनेक छोटे-बडे राज्यों को अपने में समाहित कर चुके थे या कर रहे थे, वे कम्यूनिज्म के सबसे बडे व शक्तिशाली देश पहचाने जाते हैं। ये दोनों रूस और चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, मानसिकता वाले ही देश हैं। अंग्रेज का भी उस समय लगभग आधी दुनिया पर राज्य माना जाता था और उसकी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, हिंसक व कुटिलता स्पष्ट रूप से सामने थी।

#अफगानिस्तान :- सन् 1834 में प्रकिया प्रारम्भ हुई और 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट अर्थात् राजनैतिक देश को दोनों ताकतों के बीच स्थापित किया गया। इससे अफगानिस्तान अर्थात् पठान भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से अलग हो गए तथा दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परंतु इन दोनों पूंजीवादी व मार्क्सवादी ताकतों में अंदरूनी संघर्ष सदैव बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियन्त्रण किसका हो ?

अफगानिस्तान ( #उपगणस्तान) शैव व प्रकृति पूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। बादशाह शाहजहाँ, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।
नेपाल :- मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध लडते समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। इस प्रकार से नेपाल स्वतन्त्र राज्य होने पर भी अंग्रेज के अप्रत्यक्ष अधीन ही था। रेजीडेंट के बिना महाराजा को कुछ भी खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजा-महाराजाओं में जहां आन्तरिक तनाव था, वहीं अंग्रेजी नियन्त्रण से कुछ में घोर बेचैनी भी थी। महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं। परन्तु सन 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरूने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। आज भी नेपाल व भारतीय एक-दूसरे के देश में विदेशी नहीं हैं और यह भी सत्य है कि नेपाल को वर्तमान भारत के साथ ही सन् 1947 में ही स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। नेपाल 1947 में ही अंग्रेजी रेजीडेंसी से मुक्त हुआ।

#भूटान :- सन 1906 में सिक्किम व भूटान जो कि वैदिक-बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे इन्हें स्वतन्त्रता संग्राम से लगकर अपने प्रत्यक्ष नियन्त्रण से रेजीडेंट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेज ने नजर रखना प्रारम्भ किया। ये क्षेत्र(राज्य) भी स्वतन्त्रता सेनानियों एवं समय-समय पर हिन्दुस्तान के उत्तर दक्षिण व पश्चिम के भारतीय सिपाहियों व समाज के नाना प्रकार के विदेशी हमलावरों से युद्धों में पराजित होने पर शरणस्थली के रूप में काम आते थे। दूसरा ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक वे क्षेत्र खनिज व वनस्पति की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। तीसरा यहां के जातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय (हिन्दू) धारा से अलग कर मतान्तरित किया जा सकेगा। हम जानते हैं कि सन 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नये आयामों की रचना कर डाली थी। सुदूर हिमालयवासियों में ईसाईयत जोर पकड़ रही थी।

#तिब्बत :- सन 1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीनी साम्राज्यवादी सरकार व भारत के काफी बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाए अंग्रेज शासकों के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक बफर स्टेट के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने के लिए मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय सदैव से ज्ञान-विज्ञान के शोध व चिन्तन का केंद्र रहा है। हिमालय को बांटना और तिब्बत व भारतीय को अलग करना यह षड्यंत्र रचा गया। चीनी और अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरों के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए कूटनीतिक खेल खेला। अंग्रेज ईसाईयत हिमालय में कैसे अपने पांव जमायेगी, यह सोच रहा था परन्तु समय ने कुछ ऐसी करवट ली कि प्रथम व द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अंग्रेज को एशिया और विशेष रूप से भारत छोड़कर जाना पड़ा। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने समय की नाजकता को पहचानने में भूल कर दी और इसी कारण तिब्बत को सन 1949 से 1959 के बीच चीन हड़पने में सफल हो गया। पंचशील समझौते की समाप्ति के साथ ही अक्टूबर सन 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हजारों वर्ग कि.मी. अक्साई चीन (लद्दाख यानि जम्मू-कश्मीर) व अरुणाचल आदि को कब्जे में कर लिया। तिब्बत को चीन का भू-भाग मानने का निर्णय पं. नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री) की भारी ऐतिहासिक भूल हुई। आज भी तिब्बत को चीन का भू-भाग मानना और चीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात कर मामले को सुलझाने हेतु दबाव न डालना बड़ी कमजोरी व भूल है। नवम्बर 1962 में भारत के दोनों सदनों के संसद सदस्यों ने एकजुट होकर चीन से एक-एक इंच जमीन खाली करवाने का संकल्प लिया। आश्चर्य है भारतीय नेतृत्व (सभी दल) उस संकल्प को शायद भूल ही बैठा है। हिमालय परिवार नाम के आन्दोलन ने उस दिवस को मनाना प्रारम्भ किया है ताकि जनता नेताओं द्वारा लिए गए संकल्प को याद करवाएं।
श्रीलंका व म्यांमार :- अंग्रेज प्रथम महायुद्ध (1914 से 1919) जीतने में सफल तो हुए परन्तु भारतीय सैनिक शक्ति के आधार पर। धीरे-धीरे स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु क्रान्तिकारियों के रूप में भयानक ज्वाला अंग्रेज को भस्म करने लगी थी। सत्याग्रह, स्वदेशी के मार्ग से आम जनता अंग्रेज के कुशासन के विरुद्ध खडी हो रही थी। द्वितीय महायुद्ध के बादल भी मण्डराने लगे थे। सन् 1935 व 1937 में ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ सकता है। उनकी अपनी स्थलीय शक्ति मजबूत नहीं है और न ही वे दूर से नभ व थल से वर्चस्व को बना सकते हैं। इसलिए जल मार्ग पर उनका कब्जा होना चाहिए तथा जल के किनारों पर भी उनके हितैषी राज्य होने चाहिए। समुद्र में अपना नौसैनिक बेड़ा बैठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतन्त्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन 1965 में श्रीलंका व सन 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। ये दोनों देश इन्हीं वर्षों को अपना स्वतन्त्रता दिवस मानते हैं। म्यांमार व श्रीलंका का अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण का पूरा ताना-बाना जो पहले तैयार था उसे अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों देश वैदिक, बौद्ध धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं। म्यांमार के अनेक स्थान विशेष रूप से रंगून का अंग्रेज द्वारा देशभक्त भारतीयों को कालेपानी की सजा देने के लिए जेल के रूप में भी उपयोग होता रहा है।

पाकिस्तान, बांग्लादेश व #मालद्वीप :- 1905 का लॉर्ड कर्जन का बंग-भंग का खेल 1911 में बुरी तरह से विफल हो गया। परन्तु इस हिन्दु मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु अंग्रेज ने आगा खां के नेतृत्व में सन 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर मुस्लिम कौम का बीज बोया। पूर्वोत्तर भारत के अधिकांश जनजातीय जीवन को ईसाई के रूप में मतान्तरित किया जा रहा था। ईसाई बने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम से पूर्णत: अलग रखा गया। पूरे भारत में एक भी ईसाई सम्मेलन में स्वतन्त्रता के पक्ष में प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। दूसरी ओर मुसलमान तुम एक अलग कौम हो, का बीज बोते हुए सन् 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग खड़ी कर देश को नफरत की आग में झोंक दिया। अंग्रेजीयत के दो एजेण्ट क्रमश: पं. नेहरू व मो. अली जिन्ना दोनों ही घोर महत्वाकांक्षी व जिद्दी (कट्टर) स्वभाव के थे।अंग्रेजों ने इन दोनों का उपयोग गुलाम भारत के विभाजन हेतु किया। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेज बुरी तरह से आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड में तथा अन्य देशों में टूट चुके थे। उन्हें लगता था कि अब वापस जाना ही पड़ेगा और अंग्रेजी साम्राज्य में कभी न अस्त होने वाला सूर्य अब अस्त भी हुआ करेगा। सम्पूर्ण भारत देशभक्ति के स्वरों के साथ सड़क पर आ चुका था। संघ, सुभाष, सेना व समाज सब अपने-अपने ढंग से स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे। सन 1948 तक प्रतीक्षा न करते हुए 3 जून, 1947 को अंग्रेज अधीन भारत के विभाजन व स्वतन्त्रता की घोषणा औपचारिक रूप से कर दी गयी। यहां यह बात ध्यान में रखने वाली है कि उस समय भी भारत की 562 ऐसी छोटी-बड़ी रियासतें (राज्य) थीं, जो अंग्रेज के अधीन नहीं थीं। इनमें से सात ने आज के पाकिस्तान में तथा 555 ने जम्मू-कश्मीर सहित आज के भारत में विलय किया। भयानक रक्तपात व जनसंख्या की अदला-बदली के बीच 14, 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि में पश्चिम एवं पूर्व पाकिस्तान बनाकर अंग्रेज ने भारत का 7वां विभाजन कर डाला। आज ये दो भाग पाकिस्तान व बांग्लादेश के नाम से जाने जाते हैं। भारत के दक्षिण में सुदूर समुद्र में मालद्वीप (छोटे-छोटे टापुओं का समूह) सन 1947 में स्वतन्त्र देश बन गया, जिसकी चर्चा व जानकारी होना अत्यन्त महत्वपूर्ण व उपयोगी है। यह बिना किसी आन्दोलन व मांग के हुआ है।
भारत का वर्तमान परिदृश्य :- सन 1947 के पश्चात् फेंच के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगीज के कब्जे से गोवा देव- दमन तथा अमेरिका के कब्जें में जाते हुए सिक्किम को मुक्त करवाया है। आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टीस्थानी (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी मुजफ्फरावादी व मुहाजिर नाम से इस्लामाबाद (लाहौर) से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं। पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है। बांग्लादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आन्दोलन उसे जर्जर कर रहा है। शिया-सुन्नी फसाद, अहमदिया व वोहरा (खोजा-मल्कि) पर होते जुल्म मजहबी टकराव को बोल रहे हैं। हिन्दुओं की सुरक्षा तो खतरे में ही है। विश्वभर का एक भी मुस्लिम देश इन दोनों देशों के मुसलमानों से थोडी भी सहानुभूति नहीं रखता। अगर सहानुभूति होती तो क्या इन देशों के 3 करोड़ से अधिक मुस्लिम (विशेष रूप से बांग्लादेशीय) दर-दर भटकते। ये मुस्लिम देश अपने किसी भी सम्मेलन में इनकी मदद हेतु आपस में कुछ-कुछ लाख बांटकर सम्मानपूर्वक बसा सकने का निर्णय ले सकते थे। परन्तु कोई भी मुस्लिम देश आजतक बांग्लादेशी मुसलमान की मदद में आगे नहीं आया। इन घुसपैठियों के कारण भारतीय मुसलमान अधिकाधिक गरीब व पिछड़ते जा रहा है क्योंकि इनके विकास की योजनाओं पर खर्च होने वाले धन व नौकरियों पर ही तो घुसपैठियों का कब्जा होता जा रहा है। मानवतावादी वेष को धारण कराने वाले देशों में से भी कोई आगे नहीं आया कि इन घुसपैठियों यानि दरबदर होते नागरिकों को अपने यहां बसाता या अन्य किसी प्रकार की सहायता देता। इन दर-बदर होते नागरिकों के आई.एस.आई. के एजेण्ट बनकर काम करने के कारण ही भारत के करोडों मुस्लिमों को भी सन्देह के घेरे में खड़ा कर दिया है। आतंकवाद व माओवाद लगभग 200 के समूहों के रूप में भारत व भारतीयों को डस रहे हैं। लाखों उजड़ चुके हैं, हजारों विकलांग हैं और हजारों ही मारे जा चुके हैं। विदेशी ताकतें हथियार, प्रशिक्षण व जेहादी, मानसिकता देकर उन प्रदेश के लोगों के द्वारा वहां के ही लोगों को मरवा कर उन्हीं प्रदेशों को बर्बाद करवा रही हैं। इस विदेशी षड्यन्त्र को भी समझना आवश्यक है।

सांस्कृतिक व आर्थिक समूह की रचना आवश्यक :- आवश्यकता है वर्तमान भारत व पड़ोसी भारतखण्डी देशों को एकजुट होकर शक्तिशाली बन खुशहाली अर्थात विकास के मार्ग में चलने की। इसलिए अंग्रेज अर्थात् ईसाईयत द्वारा रचे गये षड्यन्त्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और साझा व्यापार व एक करन्सी निर्माण कर नए होते इस क्षेत्र के युग का सूत्रपात करें। इन देशों 10 का समूह बनाने से प्रत्येक देश का भय का वातावरण समाप्त हो जायेगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष के सैंकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपयेरक्षा व्यय के रूप में बचेंगे जो कि विकास पर खर्च किए जा सकेंगे। इससे सभी सुरक्षित रहेंगे व विकसित होंगे

07/09/2021

शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की कला सीख सकें। एक कहानी मुझे याद आती है।

एक घर में बहुत दिनों से एक वीणा रखी थी। उस घर के लोग भूल गए थे, उस वीणा का उपयोग। पीढ़ियों पहले कभी कोई उस वीणा को बजाता रहा होगा।

अब तो कभी कोई भूल से बच्चा उसके तार छेड़ देता था तो घर के लोग नाराज होते थे। कभी कोई बिल्ली छलांग लगा कर उस वीणा को गिरा देती तो आधी रात में उसके तार झनझना जाते, घर के लोगों की नींद टूट जाती। वह वीणा एक उपद्रव का कारण हो गई थी।

अंततः उस घर के लोगों ने एक दिन तय किया कि इस वीणा को फेंक दें--जगह घेरती है, कचरा इकट्ठा करती है और शांति में बाधा डालती है। वह उस वीणा को घर के बाहर कूड़े घर पर फेंक आए।

वह लौट ही नहीं पाए थे फेंक कर कि एक भिखारी गुजरता था, उसने वह वीणा उठा ली और उसके तारों को छेड़ दिया। वे ठिठक कर खड़े हो गए, वापस लौट गए।

उस रास्ते के किनारे जो भी निकला, वे ठहर गया। घरों में जो लोग थे, वे बाहर आ गए। वहां भीड़ लग गई। वह भिखारी मंत्रमुग्ध हो उस वीणा को बजा रहा था। जब उन्हें वीणा का स्वर और संगीत मालूम पड़ा और जैसे ही उस भिखारी ने बजाना बंद किया है, वे घर के लोग उस भिखारी से बोलेः वीणा हमें लौटा दो। वीणा हमारी है।

उस भिखारी ने कहाः वीणा उसकी है जो बजाना जानता है, और तुम फेंक चुके हो। तब वे लड़ने-झगड़ने लगे। उन्होंने कहा, हमें वीणा वापस चाहिए। उस भिखारी ने कहाः फिर कचरा इकट्ठा होगा, फिर जगह घेरेगी, फिर कोई बच्चा उसके तारों को छेड़ेगा और घर की शांति भंग होगी। वीणा घर की शांति भंग भी कर सकती है, यदि बजाना न आता हो। वीणा घर की शांति को गहरा भी कर सकती है, यदि बजाना आता हो। सब कुछ बजाने पर निर्भर करता है।

जीवन भी एक वीणा है और सब कुछ बजाने पर निर्भर करता है। जीवन हम सबको मिल जाता है, लेकिन उस जीवन की वीणा को बजाना बहुत कम लोग सीख पाते हैं।

इसीलिए इतनी उदासी है, इतना दुख है, इतनी पीड़ा है। इसीलिए जगत में इतना अंधेरा है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है। इसलिए जगत में इतना युद्ध है, इतना वैमनस्य है, इतनी शत्रुता है। जो संगीत बन सकता था जीवन, वह विसंगीत बन गया है क्योंकि बजाना हम उसे नहीं जानते हैं।

शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की वीणा को कैसे बजाना सीख लें। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि जिसे हम आज शिक्षा कहते हैं, वह भी जीवन की वीणा को बजाना नहीं सिखा पाती। वह जीवन की वीणा को रंग-रोगन करना सिखा देती है । जीवन की वीणा को हम रंग लेते हैं। जीवन की वीणा को सजा लेते हैं, फूल लगा देते हैं। जीवन की वीणा पर हीरे-मोती जड़ देते हैं, लेकिन न हीरे-मोतियों से वीणा बजती है, न फूलों से, न रंग-रोगन से।
आज की शिक्षा आदमी को सजा कर छोड़ देती है, लेकिन उसके जीवन के संगीत को बजाने की संभावना उससे पैदा नहीं हो पाती। और ऐसा नहीं है कि पहले शिक्षा से हो जाती थी। पहले तो शिक्षा करीब-करीब थी ही नहीं। आज की शिक्षा से भी नहीं होती है, पहले की शिक्षा से भी नहीं हो पाती थी। कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है। और वह भूल यही हो रही है कि वीणा के बजाने के नियम पर ध्यान नहीं है, वीणा को सजाने पर ध्यान है।

वीणा को सजाने का अर्थ है--एक व्यक्ति को अहंकार दे देना, महत्वाकांक्षा दे देना। आज की सारी शिक्षा एक व्यक्ति के भीतर अहंकार की जलती हुई प्यास के अतिरिक्त और कुछ भी पैदा नहीं कर पाती है।

विश्वविद्यालय से निकलता है कोई, तो अहंकार से भरी हुई आकांक्षाएं लेकर निकलता है यह होने की, यह होने की, वहां पहुंच जाने की। सर्व प्रथम हो जाने की पागल दौड़ से भर कर बाहर निकलते हैं।

जीवन की वीणा तो पड़ी रह जाती है, प्रथम होने की दौड़ प्रारंभ हो जाती है। पहले ही दिन कक्षा में कोई भर्ती होता है तो हम उसे सिखाते हैं पहले आने का पागलपन। वह एक तरह का बुखार है, जिससे सभी पीड़ित हैं।

महत्वाकांक्षा एक तरह की बीमारी है जो हम सबके प्राणों को घेर लेती है। और अब तक की सारी शिक्षा महत्वाकांक्षा के ज्वर पर ही खड़ी है। मां-बाप भी वह जहर देते हैं, शिक्षक भी वह जहर देते हैं, लेकिन वह जहर देते हैं। वह हर आदमी को सिखाते हैं कि नंबर एक होना है तो ही जिंदगी में सुख है। वह यह हमारा तर्क है शिक्षा का कि जो प्रथम है, वह सुखी है।

जीसस ने एक वचन लिखा है जो हमें बहुत पागलपन का मालूम पड़ेगा। जीसस ने लिखा है: धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं!

और हमारी शिक्षा कहती है, धन्य हैं वे लोग जो प्रथम खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं! या तो जीसस पागल हैं, या हम सब पागल हैं। जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। क्यों? क्योंकि जो अंतिम खड़ा हो जाता है, वह सभी बुखार से मुक्त हो जाता है। दौड़ से मुक्त हो जाता है। और जहां कोई बुखार नहीं है, जहां कोई दौड़ नहीं है, जहां कोई पागलपन नहीं है कहीं पहुंचने का; वहां अपने जीवन की वीणा के अतिरिक्त बजाने को और कुछ भी नहीं बचता है।

लेकिन हम तो सभी को दौड़ दे रहे हैं! सारे जगत में एक पागलपन पैदा कर रहे हैं और इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी परेशानी है, इतनी प्रतिस्पर्धा है, इतना संघर्ष है। शिक्षित आदमी उस संघर्ष में ज्यादा है, अशांति में ज्यादा है। सच तो यह है कि जिस देश में जितना ज्यादा लोग पागल होते हों, समझ लेना चाहिए उस देश में उतनी ज्यादा शिक्षा फैल गई है। शिक्षित ज्यादा होंगे तो मानसिक रुग्ण, बीमार ज्यादा होंगे।

आज अमरीका सबसे ज्यादा शिक्षित देश है। क्योंकि सबसे ज्यादा आदमियों को पागल वही कर पाता है। सबसे ज्यादा लोग मानसिक रूप से बीमार होते हैं, क्योंकि हर आदमी एक ऐसी दौड़ में है जो पूरी नहीं हो सकती। और अगर पूरी भी हो जाए, तो दौड़ के अंत में पता चलता है कि हाथ खाली रह गए हैं और कुछ भी नहीं मिला है।

एक बहुत बुनियादी भ्रम है कि आनंद कहीं पहुंचने पर मिलेगा। सारी शिक्षा उस भ्रम को पैदा करती है। वह कहती है, फलां जगह पहुंच जाओ तो आनंदित हो सकते हो।

यही है प्रमाण-पत्र मिल जाने पर आनंद मिल जाएगा। प्रमाण-पत्र मिल जाते हैं, आनंद नहीं मिलता। तब हाथ में कागज का बोझ घबराने वाला हो जाता है। और तब यह लगता है कि आनंद तो नहीं मिला, लेकिन हम आदमी को दौड़ाते रहते हैं। प्राइमरी में पढ़ता है तो उससे कहते हैं हाईस्कूल में। हाईस्कूल में पढ़ता है तो कहते हैं लक्ष्य है युनिवर्सिटी में। युनिवर्सिटी के बाहर निकलता है तो हम कहते हैं, अब जिंदगी में, शादी में, विवाह में। और सब कहानियां, सब उपन्यास और सब फिल्में जहां शादी विवाह हुए, वहीं दि एण्ड आ जाता है। उधर से हम कह देते हैं, बस। सब कहानियां पढ़ें तो एक बड़ी मजेदार बात है। उन कहानियों में लिखा है, उन दोनों की शादी हो गई, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे, हालांकि ऐसा होता नहीं। इसके बाद कहानी नहीं चलती है, क्योंकि इसके बाद कहानी बहुत खतरनाक है। कहानी यहां पूरी हो जाती है।

नहीं, न तो शिक्षित होने से आनंद मिल पाता, न तो विवाह से आनंद मिल पाता है, न संपत्ति से आनंद मिल पाता है, न पद-प्रतिष्ठा से आनंद मिल पाता। काश! दुनिया के सब वे लोग जो बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं, ईमानदारी से कह सकें तो वे कह सकेंगे कि कुछ भी नहीं मिला।

वे सारे लोग, जो बहुत धन इकट्ठा कर लेते हैं, अगर ईमानदार हों और लोगों को कह दें, शायद वे कहेंगे, धन तो मिल गया, लेकिन और कुछ भी नहीं मिला। लेकिन इतनी कहने की हिम्मत भी नहीं जुटाते। उसका कारण है।

कारण यह है, जो आदमी जिंदगी भर दौड़ा हो और जब उसने उस चीज को पा लिया हो, जिसके लिए दौड़ा है। अब अगर वह लोगों से कहे कि पा तो लिया, लेकिन कुछ भी नहीं मिला तो लोग कहेंगे कि तुम व्यर्थ ही दौड़े, तुम्हारा जीवन बेकार हो गया। अब वह अपने अहंकार को बचाने की कोशिश करता है। भीतर तो जान लेता है कि कुछ भी नहीं मिला।

हम अपने बच्चों को भी उसी दौड़ से भर देते हैं जिससे हमारे बूढ़े भरे हुए हैं। महत्वाकांक्षा की, एंबीशन की दौड़ से भर देते हैं। और जिस आदमी को एक बार महत्वाकांक्षा का पागलपन चढ़ जाता है, उसका जीवन विषाक्त हो जाता है। उसके जीवन में फिर कभी शांति न होगी, फिर कभी आनंद न होगा और उसके जीवन में फिर कभी विश्राम न होगा। और शांति न हो, विश्राम न हो, आनंद न हो तो जीवन की वीणा को बजाने की फुरसत कहां है?

मैंने तो सुना है, एक आदमी जब मर गया, तब उसे पता चला कि मैं जिंदा था। क्योंकि जिंदगी की दौड़ में पता ही न चला, फुरसत न मिली जानने की कि मैं जिंदा हूं--भागता रहा, भागता रहा, भागता रहा। जब मर गया, तब उसे पता चला कि अरे! जिंदगी हाथ से गई। बहुतों को जिंदगी मरने के बाद ही पता चलती है कि--थी।

जब तक हम जिंदा हैं, तब तक हम दौड़ने में गवां देते हैं। मेरी दृष्टि में ठीक शिक्षा उसी दिन पैदा हो पाएगी जिस दिन शिक्षित व्यक्ति गैर-महत्वाकांक्षी होगा, नाॅन-एंबीशस होगा; जिस दिन शिक्षित व्यक्ति पीछे अंतिम खड़े होने में भी राजी होगा। मैं अशिक्षित उसको कहता हूं जो प्रथम होने की दौड़ में है, क्योंकि वह नासमझ है।

मैं शिक्षित उसे कहता हूं जो अंतिम खड़े होने के लिए राजी है। अंतिम खड़े होने के लिए राजी होने का मतलब यह है कि अब दौड़ न रही। जिंदगी अब दौड़ न रही, जिंदगी अब जीना होगी। जिंदगी एक जीना है और जीना अभी होगा, कल नहीं और दौड़ सदा कल के लिए है।

दौड़ने वाला हमेशा भविष्य की तरफ देखता रहता है। जब इतना धन मिलेगा तब जीऊंगा। जब इतनी बड़ी गाड़ी होगी तब जीऊंगा। जब इतना बड़ा मकान होगा तब जीऊंगा। अभी कैसे जी सकता हूं? फिर उतना बड़ा मकान बन जाता है। लेकिन जब उतना बड़ा मकान बनता है, तब तक आकांक्षाओं का जाल और आगे चला गया होता है।

अमरीका में एक अरबपति मरा, एण्ड्रू कारनेगी। जब वह मरा तो उसके पास अंदाजन दस अरब रुपयों की संपदा थी। मरने के दो ही दिन पहले एक मित्र ने उससे पूछा कि तुम तो संतुष्ट हो गए होओगे। दस अरब रुपये तुम्हारे पास हैं। उसने कहाः संतुष्ट! मेरी योजना सौ अरब रुपये की थी, मुझसे ज्यादा असंतुष्ट कोई भी नहीं है। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं जो अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाया। दस अरब रुपये, उसने कहा, अभी कुछ भी नहीं है मेरे पास। उसने दस अरब रुपये इस भांति कहा, जैसे कोई दस रुपये के लिए कह रहा हो कि सिर्फ दस रुपये!

क्या हम पूछें कि अगर एण्ड्रू कारनेगी के पास सौ अरब रुपये हो जाते तो वह संतुष्ट हो जाता? जो दस अरब से संतुष्ट नहीं हुआ वह सौ अरब से संतुष्ट हो जाता? सौ अरब होते-होते उसका असंतोष हजार अरब पर पहुंच जाता। इसी की संभावना, इसी का गणित ज्यादा साफ मालूम पड़ता है।

भविष्य में जीता है महत्वाकांक्षी, और वर्तमान में है जिंदगी, और वह जीता है कल की आशा में। और जो कल की आशा में जीता है वह आज को खो देता है।

और जो कल की आशा में जीता है वह आज क्रोधी रहेगा, दुखी रहेगा, पीड़ित और परेशान रहेगा। सुखी तो कल होना है। लेकिन कल कभी आता नहीं। जब आता है तब आज ही आता है। आज उसके दुखी रहने की आदत बन जाएगी और कल सुखी रहने की आशा की आदत बन जाएगी। अब यह गलत व्यवस्था जिंदगी भर उसे पीड़ित करेगी।

इसी गलत व्यवस्था के कारण हमने स्वर्ग में सुख का इंतजाम किया है, मरने के बाद। हम कहते हैं, जब मर जाएंगे तब स्वर्ग में सुख होगा। जब मर जाएंगे तब मोक्ष में सुख होगा। यह महत्वाकांक्षियों की आकांक्षाएं है जिनका लाॅजिकल, तार्किक परिणाम यह हो गया है कि इस पृथ्वी पर सुख हो ही नहीं सकता। सुख तो मरने के बाद होगा।

यहां तो हम दुखी ही रहेंगे। आज तो दुखी ही रहेंगे, सुख कल होगा। जिस आदमी के जीवन में इस भांति की भ्रांत धारणा बैठ गई, उस आदमी का जीवन बुनियाद से सड़ जाता है और नष्ट हो जाता है।

सुख आज है और अभी हो सकता है। लेकिन सिर्फ उस व्यक्ति के लिए हो सकता है जो भविष्य की आशा में नहीं, वर्तमान की कला में जीने का रहस्य समझ लेता है।

तो मैं शिक्षित व्यक्ति उसको कहता हूं जो आज जीने में समर्थ है--अभी और यहीं। लेकिन इस अर्थ में तो शिक्षित आदमी बहुत कम रह जाएंगे। असल में हम पठित आदमी को शिक्षित कहने की भूल कर लेते हैं। जो पढ़-लिख लेता है, उसे हम शिक्षित कह देते हैं! पढ़ने-लिखने से शिक्षा का कोई संबंध नहीं है।

🌹🌹 ओशो 🌹🌹

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