23/10/2025
. संसार में पाप कहां से आया ❓ • कामना बाहुल्य ही पाप का मूल है • " पुलुकामो हि मर्त्यः "
इमं नु सोममन्तितो हृत्सु पीतमुप ब्रुवे ।
यत्सीमागश्चकृमा तत्सुमृडतु पुलुकामो हि मर्तय:।। ऋ० १।१७९।५॥
शब्दार्थ : - (हृत्सु पीतम्) हृदय में बसे हुए, (इमम) इस (सोमय) सोम को, आनन्द स्वरूप परमेश्वर को (नु) ही, बारम्बार, विश्वासपूर्वक (अन्तितः) समीप से (उप-ब्रुवे) मैं बुलाता हूँ, उपासना करता हूँ। (यत्) जो कुछ भी (आगः) पाप, अपराध (सीम) ससीम, सीमित ज्ञान, सीमित बल और सीमित साधनों वाले हम (आ चकृम) करते हैं, करते रहते हैं, (तत्) उसको [भगवान्] (सुमृडतु) सुधारने की कृपा करे। भगवान् हमें दोष समूह से बचा कर रखे। (हि) क्योंकि निश्चित रूप में (मर्त्य:) मानववर्ग, मरणधर्मा प्राणीवर्ग, मनुष्य तो (पुलुकामः) बहुत अधिक कामनाओं वाला है, विभित्र प्रकार की कामनाओं वाला है।
भावार्थ : - स्तुति, प्रार्थना और उपासना के द्वारा जिस आनन्दस्वरूप परमात्मा को मैंने अपने हृदय में बसा रखा है, उसको ही मैं बहुत समीप से पुकार रहा हूँ। देश, काल और परिस्थितियों की सीमाओं में आबद्ध होने के कारण, अल्पज्ञ, अल्पायु और अल्प सामर्थ्य वाले हम लोग, जब-जब, जो-जो पाप किया करते हैं, भगवान् हमको उन सब से सुरक्षित रखे। मरणशील होते हुए भी मनुष्य विभिन्न प्रकार की बहुत अधिक कामनाएं किया करते हैं। और कामनाओं की तीव्रता के वश में होकर वे पाप एवं अपराध भी कर बैठते हैं।
व्याख्यान : - संसार में पाप कहां से आया। यह एक सनातन जिज्ञासा है। यह जिज्ञासा उतनी ही सनातन है जितना सनातन यह मानव जाति और उसकी विवेक बुद्धि है। वेद में इस जिज्ञासा का बहुत सुन्दर, युक्तियुक्त,सरल और प्रभावपूर्ण समाधान प्रस्तुत किया है। किसी तथाकथित शैतान और रहमान के कपोल कल्पित की आवश्यकता हमें नहीं है। पाप-प्रवाह-प्रसंगी कलियुग विषयक किंवदन्तियाँ भी भ्रान्तिपूर्ण हैं। शैतान और कलियुग की कथाएं न ही तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं और, न तो बुद्धिवादी संसार को वे सन्तोष दे सकती हैं। फिर भी इन कथाओं का प्रसार हुआ, यह बात आश्चर्यजनक अवश्य है। कदाचित् मध्यकालीन अन्धकार युग ही इन कथाओं के निर्माण और प्रसार का कारण है। पाप और उसकी उत्पत्ति के विषय में वेद का प्रस्तुत सन्दर्भ विशेषरूप से मनन करने योग्य है। एवं यह समाधानकारक भी है।
मनुष्य है तो एक मरणधर्मा प्राणी; परन्तु उसकी कामनाओं का कोई भी ओर-छोर नहीं है। उसकी कामनाएं विविध प्रकार की हैं। और साथ ही ये बहुत अधिक भी हैं। यदि हम उनको अनन्त कहें तब भी कोई अत्युक्ति नहीं। वेद के शब्दों में "पुलुकामो हि मर्त्य:।" मानव की यह कामना बाहुल्य ही पाप का मूल है।
प्रकृति जड़ है उसका किसी प्रकार की कामना कर सकना सम्भव ही नहीं है। ईश्वर पूर्ण, सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान, सर्वव्यापक और आनन्दस्वरूप है। उसकी न तो कोई कामना या आकांक्षा है। और न ही ऐसा हो सकना कभी सम्भव है। इच्छा और आकांक्षा तो अल्पज्ञ, अपूर्ण, एकदेशी, अल्पसामर्थ्यवान्, ससीम और आनन्द रहित जीवात्मा की ही होनी सम्भव है।
जीवात्मा स्वरूप से अणु है; परन्तु संख्या में जीवात्मा अनन्त है। प्रस्तुत सन्दर्भ में जो "मर्त्यः शब्द आया है, वह अखिल मानव-वर्ग एवं सकल प्राणीवर्ग का प्रतिबोधक है। यद्यपि रूढ़िवाद के अनुसार "मर्त्य" और "मनुष्य" पर्यायवाची शब्द माने जाते हैं; परन्तु यौगिक अर्थ प्रक्रिया के अनुसार तो "मर्त्यः" शब्द से उन सभी प्राणियों का ग्रहण होता है' जो कि मरणशील हैं। इस प्रकार पशु पक्षियों, कीट-पतंगों, वृक्ष, लता आदि स्थावर योनियों और मनुष्यों, सभी योनियों का ग्रहण एक "मर्त्य" शब्द से भली प्रकार होता है। स्थूल रूप में विचार करने के लिये "मर्त्य" शब्द का अर्थ मनुष्य करने में भी कोई दोष नहीं। काम चल जाता है।
देखो कैसी विचित्र बात है ? है तो मरणशील और कामनाएं करता है बहुत। बहुत नहीं, अनन्त। ऐसा है यह प्राणी जगत्। यह भी मुझे चाहिये। वह भी मुझे चाहिये। इतना और चाहिये। ऐसा चाहिये। वैसा चाहिये। और ! और !! और !!! इन इच्छाओं की कहीं कोई परिसमाप्ति भी है? नहीं, कोई नहीं, कहीं नहीं। इन इच्छाओं या कामनाओं ने ही वो जीवन, मरण, भोग, उत्पत्ति और प्रलय आदि के अनेकविध चक्र चला रखे हैं। इन इच्छाओं के कारण ही मनुष्य को दुःखी और निराश भी होना पड़ता है। एवं कभी-कभी छोटा भी होना पड़ता है। कहा है -
हम खुदा थे गर न होता दिल में कोई मुदआ ।
आरजुओं ने हमारी , हमको बन्दा कर दिया ॥
फिर- मनुष्य इन इच्छाओं को छोड़ क्यों नहीं देता ?
वह ऐसा कर ही नहीं सकता।
👉अल्पज्ञ होने के कारण वह जानने की इच्छा करता है।
👉अल्प सामर्थ्यवान् होने से वह अधिक सामर्थ्यवान की इच्छा करता है।
👉निर्धन के कारण वह धनवान् होने की कामना करता है।
👉 निरानन्द होने के कारण वह आनन्द की कामना करता है।
देश,काल, पात्र, परिस्थिति और प्रकार भेद से एक ही मनुष्य की इच्छाएं वा कामनाएं बहुत-बहुत होती हैं अर्थात् अनन्त।
पाप क्या है ? पर पीड़न पाप है। पर- स्वत्पहरण पाप है। ज्ञान, बल, पद, मर्यादा और पदार्थ का दुरुपयोग पाप है। ऐसा प्रत्येक कर्म जिससे संसार में अशान्ति की वृद्धि और दु:ख समुदाय की वृद्धि होती है वह पाप है। पाप से बचो। पाप से बचना चाहिये। मनुष्य पाप क्यों करता है ? कोई अनजान में पाप करता है, कोई जानबूझकर। अल्प-जन अनजान में पाप करते हैं। जिनकी सुख बुभुक्षा बहुत तीव्र होती है, अथवा जो अभ्यस्त पापी वा अपराधी होते हैं, वे जानबूझ कर पाप करते हैं। पाप का परिणाम सदा ही बुरा होता है। जो अनजान में विष खाता है, वह भी तो अपने प्राण गंवाता ही है।
कामनाओं का परिणाम सदा ही दुःख, विक्षोभ और पाप होता हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। दुःख आदि परिणाम तभी होते हैं, जब कि कामनायें अशिव निन्दित और बुरी होती हैं। शिव, प्रशंसित और उत्तम कामनाओं से ही सुख, प्रसन्नता एवं पुण्य आदि लाभ ही होते हैं। काननाओं के अभाव में तो यम, नियम, व्रत, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानोन की पूर्ति भी सम्भव नहीं है। अच्छी कामनायें करो। बुरी कामनाओं का परित्याग करो।
कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों के दो भेद होते हैं। भले और बुरे। बुरे कर्मों का परित्याग करो। भले कर्मों के भी दो भेद हैं- सकाम कर्म और निष्काम कर्म। ऊँचे स्तर का आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले सन्तों के अधिकांश कर्म निष्काम भाव से ही सम्पन होते हैं जो कर्म की इच्छा न रखते हुए, केवल मात्र कर्तव्य पूर्ति की ही भावना से किये जाते हैं, वे निष्काम कर्म कहताते हैं।
👉 पाप से बचने का उपाय क्या है ?
पाप से बचने का एक ही उपाय है, और वह है आस्तिक - जीवन। सच्चा, पक्का और ऊँचा आस्तिक जीवन ही वह हो। वह नाम मात्र का आस्तिक जीवन न हो। लोक में और इतिहास में तथाकथित आस्तिकों के जो-जो रूप देखने में आते हैं, उनमें तो बहुत अधिक गन्दलापन है। अधिकांश आस्तिक तो घोर नास्तिक ही प्रमाणित होते हैं। आस्तिक जन तो भगवान् के परम् प्रेमी ही होते हैं। ईश्वर के प्रति परम प्रेम का प्रतिपादन उपरि-उद्धृत ऋचा के पूर्वार्द्ध में किया गया है। भक्त ने भगवान् को अपने हृदय मन्दिर में बसा रखा है। उसकी ईश्वर विषयक अनुभूति में कोई बाधा, भ्रम, या व्यवधान नहीं है। यह बहुत समीप होकर ईश्वर से वार्तालाप करता है। आस्तिक-जनों की प्रभु-दर्शन की चाह घर बैठे ही पूर्ण हो जाती है। इसके लिये उनको अन्तर्मुख होना होता है। अन्तर्मुख होने की सिद्धि अभ्यास और वैराग्य से प्राप्त होती है। सन्तों के ईश्वर-दर्शन का एक प्रकार देखिये -
दिल के आइने में है तस्वीरे यार ।
जब जरा गर्दन उठाई देख ली ॥
स्मरण रहे - ईश्वर पापों को क्षमा नहीं करता। जो लोग ईश्वर द्वारा पापों के क्षमा करने का सिद्धान्त प्रचारित करते हैं,वे तो प्रकारान्तर से पाप का ही प्रचार करते हैं। अपने शुभाशुभ कर्मों का शुभ या अशुभ फल प्रत्येक कर्त्ता को अवश्य ही मिलता है। कर्मफल भोग से छुटकारा किसी का किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। मनुष्य कर्म करने में तो स्वतन्त्र है। वह कर्म करे या न करे। शुभ करे या अशुभ। परन्तु कर्मों का फल तो ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार सभी को भोगना होता है। कर्म-फल भोग में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं, अपितु परतन्त्र है। ⭐ ओ३म् शम् ⭐ - ✍️ जगतकुमार जी शास्त्री
प्रस्तुतकर्ता - रामयतन