Arya Samaj, Mysore

Arya Samaj, Mysore was founded by Saraswati (1824-83) in April,1875 for reviving religion propounded the oldest scripture of the Vedas.

President:
Mr.Hemachandra Arya
9886826289

Secretary:
Mr. Umesh Arya
9448800595

23/10/2025

. संसार में पाप कहां से आया ❓ • कामना बाहुल्य ही पाप का मूल है • " पुलुकामो हि मर्त्यः "

इमं नु सोममन्तितो हृत्सु पीतमुप ब्रुवे ।
यत्सीमागश्चकृमा तत्सुमृडतु पुलुकामो हि मर्तय:।। ऋ० १।१७९।५॥

शब्दार्थ : - (हृत्सु पीतम्) हृदय में बसे हुए, (इमम) इस (सोमय) सोम को, आनन्द स्वरूप परमेश्वर को (नु) ही, बारम्बार, विश्वासपूर्वक (अन्तितः) समीप से (उप-ब्रुवे) मैं बुलाता हूँ, उपासना करता हूँ। (यत्) जो कुछ भी (आगः) पाप, अपराध (सीम) ससीम, सीमित ज्ञान, सीमित बल और सीमित साधनों वाले हम (आ चकृम) करते हैं, करते रहते हैं, (तत्) उसको [भगवान्] (सुमृडतु) सुधारने की कृपा करे। भगवान् हमें दोष समूह से बचा कर रखे। (हि) क्योंकि निश्चित रूप में (मर्त्य:) मानववर्ग, मरणधर्मा प्राणीवर्ग, मनुष्य तो (पुलुकामः) बहुत अधिक कामनाओं वाला है, विभित्र प्रकार की कामनाओं वाला है।

भावार्थ : - स्तुति, प्रार्थना और उपासना के द्वारा जिस आनन्दस्वरूप परमात्मा को मैंने अपने हृदय में बसा रखा है, उसको ही मैं बहुत समीप से पुकार रहा हूँ। देश, काल और परिस्थितियों की सीमाओं में आबद्ध होने के कारण, अल्पज्ञ, अल्पायु और अल्प सामर्थ्य वाले हम लोग, जब-जब, जो-जो पाप किया करते हैं, भगवान् हमको उन सब से सुरक्षित रखे। मरणशील होते हुए भी मनुष्य विभिन्न प्रकार की बहुत अधिक कामनाएं किया करते हैं। और कामनाओं की तीव्रता के वश में होकर वे पाप एवं अपराध भी कर बैठते हैं।

व्याख्यान : - संसार में पाप कहां से आया। यह एक सनातन जिज्ञासा है। यह जिज्ञासा उतनी ही सनातन है जितना सनातन यह मानव जाति और उसकी विवेक बुद्धि है। वेद में इस जिज्ञासा का बहुत सुन्दर, युक्तियुक्त,सरल और प्रभावपूर्ण समाधान प्रस्तुत किया है। किसी तथाकथित शैतान और रहमान के कपोल कल्पित की आवश्यकता हमें नहीं है। पाप-प्रवाह-प्रसंगी कलियुग विषयक किंवदन्तियाँ भी भ्रान्तिपूर्ण हैं। शैतान और कलियुग की कथाएं न ही तर्क की कसौटी पर खरी उतरती हैं और, न तो बुद्धिवादी संसार को वे सन्तोष दे सकती हैं। फिर भी इन कथाओं का प्रसार हुआ, यह बात आश्चर्यजनक अवश्य है। कदाचित् मध्यकालीन अन्धकार युग ही इन कथाओं के निर्माण और प्रसार का कारण है। पाप और उसकी उत्पत्ति के विषय में वेद का प्रस्तुत सन्दर्भ विशेषरूप से मनन करने योग्य है। एवं यह समाधानकारक भी है।

मनुष्य है तो एक मरणधर्मा प्राणी; परन्तु उसकी कामनाओं का कोई भी ओर-छोर नहीं है। उसकी कामनाएं विविध प्रकार की हैं। और साथ ही ये बहुत अधिक भी हैं। यदि हम उनको अनन्त कहें तब भी कोई अत्युक्ति नहीं। वेद के शब्दों में "पुलुकामो हि मर्त्य:।" मानव की यह कामना बाहुल्य ही पाप का मूल है।

प्रकृति जड़ है उसका किसी प्रकार की कामना कर सकना सम्भव ही नहीं है। ईश्वर पूर्ण, सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान, सर्वव्यापक और आनन्दस्वरूप है। उसकी न तो कोई कामना या आकांक्षा है। और न ही ऐसा हो सकना कभी सम्भव है। इच्छा और आकांक्षा तो अल्पज्ञ, अपूर्ण, एकदेशी, अल्पसामर्थ्यवान्, ससीम और आनन्द रहित जीवात्मा की ही होनी सम्भव है।

जीवात्मा स्वरूप से अणु है; परन्तु संख्या में जीवात्मा अनन्त है। प्रस्तुत सन्दर्भ में जो "मर्त्यः शब्द आया है, वह अखिल मानव-वर्ग एवं सकल प्राणीवर्ग का प्रतिबोधक है। यद्यपि रूढ़िवाद के अनुसार "मर्त्य" और "मनुष्य" पर्यायवाची शब्द माने जाते हैं; परन्तु यौगिक अर्थ प्रक्रिया के अनुसार तो "मर्त्यः" शब्द से उन सभी प्राणियों का ग्रहण होता है' जो कि मरणशील हैं। इस प्रकार पशु पक्षियों, कीट-पतंगों, वृक्ष, लता आदि स्थावर योनियों और मनुष्यों, सभी योनियों का ग्रहण एक "मर्त्य" शब्द से भली प्रकार होता है। स्थूल रूप में विचार करने के लिये "मर्त्य" शब्द का अर्थ मनुष्य करने में भी कोई दोष नहीं। काम चल जाता है।

देखो कैसी विचित्र बात है ? है तो मरणशील और कामनाएं करता है बहुत। बहुत नहीं, अनन्त। ऐसा है यह प्राणी जगत्। यह भी मुझे चाहिये। वह भी मुझे चाहिये। इतना और चाहिये। ऐसा चाहिये। वैसा चाहिये। और ! और !! और !!! इन इच्छाओं की कहीं कोई परिसमाप्ति भी है? नहीं, कोई नहीं, कहीं नहीं। इन इच्छाओं या कामनाओं ने ही वो जीवन, मरण, भोग, उत्पत्ति और प्रलय आदि के अनेकविध चक्र चला रखे हैं। इन इच्छाओं के कारण ही मनुष्य को दुःखी और निराश भी होना पड़ता है। एवं कभी-कभी छोटा भी होना पड़ता है। कहा है -

हम खुदा थे गर न होता दिल में कोई मुदआ ।
आरजुओं ने हमारी , हमको बन्दा कर दिया ॥

फिर- मनुष्य इन इच्छाओं को छोड़ क्यों नहीं देता ?

वह ऐसा कर ही नहीं सकता।
👉अल्पज्ञ होने के कारण वह जानने की इच्छा करता है।
👉अल्प सामर्थ्यवान् होने से वह अधिक सामर्थ्यवान की इच्छा करता है।
👉निर्धन के कारण वह धनवान् होने की कामना करता है।
👉 निरानन्द होने के कारण वह आनन्द की कामना करता है।
देश,काल, पात्र, परिस्थिति और प्रकार भेद से एक ही मनुष्य की इच्छाएं वा कामनाएं बहुत-बहुत होती हैं अर्थात् अनन्त।

पाप क्या है ? पर पीड़न पाप है। पर- स्वत्पहरण पाप है। ज्ञान, बल, पद, मर्यादा और पदार्थ का दुरुपयोग पाप है। ऐसा प्रत्येक कर्म जिससे संसार में अशान्ति की वृद्धि और दु:ख समुदाय की वृद्धि होती है वह पाप है। पाप से बचो। पाप से बचना चाहिये। मनुष्य पाप क्यों करता है ? कोई अनजान में पाप करता है, कोई जानबूझकर। अल्प-जन अनजान में पाप करते हैं। जिनकी सुख बुभुक्षा बहुत तीव्र होती है, अथवा जो अभ्यस्त पापी वा अपराधी होते हैं, वे जानबूझ कर पाप करते हैं। पाप का परिणाम सदा ही बुरा होता है। जो अनजान में विष खाता है, वह भी तो अपने प्राण गंवाता ही है।

कामनाओं का परिणाम सदा ही दुःख, विक्षोभ और पाप होता हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। दुःख आदि परिणाम तभी होते हैं, जब कि कामनायें अशिव निन्दित और बुरी होती हैं। शिव, प्रशंसित और उत्तम कामनाओं से ही सुख, प्रसन्नता एवं पुण्य आदि लाभ ही होते हैं। काननाओं के अभाव में तो यम, नियम, व्रत, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानोन की पूर्ति भी सम्भव नहीं है। अच्छी कामनायें करो। बुरी कामनाओं का परित्याग करो।

कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्मों के दो भेद होते हैं। भले और बुरे। बुरे कर्मों का परित्याग करो। भले कर्मों के भी दो भेद हैं- सकाम कर्म और निष्काम कर्म। ऊँचे स्तर का आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले सन्तों के अधिकांश कर्म निष्काम भाव से ही सम्पन होते हैं जो कर्म की इच्छा न रखते हुए, केवल मात्र कर्तव्य पूर्ति की ही भावना से किये जाते हैं, वे निष्काम कर्म कहताते हैं।

👉 पाप से बचने का उपाय क्या है ?

पाप से बचने का एक ही उपाय है, और वह है आस्तिक - जीवन। सच्चा, पक्का और ऊँचा आस्तिक जीवन ही वह हो। वह नाम मात्र का आस्तिक जीवन न हो। लोक में और इतिहास में तथाकथित आस्तिकों के जो-जो रूप देखने में आते हैं, उनमें तो बहुत अधिक गन्दलापन है। अधिकांश आस्तिक तो घोर नास्तिक ही प्रमाणित होते हैं। आस्तिक जन तो भगवान् के परम् प्रेमी ही होते हैं। ईश्वर के प्रति परम प्रेम का प्रतिपादन उपरि-उद्धृत ऋचा के पूर्वार्द्ध में किया गया है। भक्त ने भगवान् को अपने हृदय मन्दिर में बसा रखा है। उसकी ईश्वर विषयक अनुभूति में कोई बाधा, भ्रम, या व्यवधान नहीं है। यह बहुत समीप होकर ईश्वर से वार्तालाप करता है। आस्तिक-जनों की प्रभु-दर्शन की चाह घर बैठे ही पूर्ण हो जाती है। इसके लिये उनको अन्तर्मुख होना होता है। अन्तर्मुख होने की सिद्धि अभ्यास और वैराग्य से प्राप्त होती है। सन्तों के ईश्वर-दर्शन का एक प्रकार देखिये -

दिल के आइने में है तस्वीरे यार ।
जब जरा गर्दन उठाई देख ली ॥

स्मरण रहे - ईश्वर पापों को क्षमा नहीं करता। जो लोग ईश्वर द्वारा पापों के क्षमा करने का सिद्धान्त प्रचारित करते हैं,वे तो प्रकारान्तर से पाप का ही प्रचार करते हैं। अपने शुभाशुभ कर्मों का शुभ या अशुभ फल प्रत्येक कर्त्ता को अवश्य ही मिलता है। कर्मफल भोग से छुटकारा किसी का किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। मनुष्य कर्म करने में तो स्वतन्त्र है। वह कर्म करे या न करे। शुभ करे या अशुभ। परन्तु कर्मों का फल तो ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार सभी को भोगना होता है। कर्म-फल भोग में मनुष्य स्वतन्त्र नहीं, अपितु परतन्त्र है। ⭐ ओ३म् शम् ⭐ - ✍️ जगतकुमार जी शास्त्री

प्रस्तुतकर्ता - रामयतन

22/10/2025

महर्षि दयानंद सरस्वती निर्वाण दिवस 2025

ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ನಿರ್ವಾಣ ದಿನದ ಸ್ಮರಣೆ — ವಿಶೇಷ ಸತ್ಸಂಗ 🌼ChatGPTYou said:Translate briefly in hindi ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವ...
21/10/2025

ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ನಿರ್ವಾಣ ದಿನದ ಸ್ಮರಣೆ — ವಿಶೇಷ ಸತ್ಸಂಗ 🌼

ChatGPT
You said:
Translate briefly in hindi

ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ನಿರ್ವಾಣ ದಿನದ ಸ್ಮರಣೆ — ವಿಶೇಷ ಸತ್ಸಂಗ 🌼

ದಿನಾಂಕ 20.10.2025, ಸೋಮವಾರ ಸಂಜೆ 6 ಗಂಟೆಗೆ ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ, ಮೈಸೂರು ವತಿಯಿಂದ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ರವರ ನಿರ್ವಾಣ ದಿನದ ಅಂಗವಾಗಿ ಆಯೋಜಿಸಲಾಗಿದ್ದ ವಿಶೇಷ ಸತ್ಸಂಗದಲ್ಲಿ ಈಶ್ವರ ಸ್ತುತಿ, ಸ್ವಸ್ತಿ ವಾಚನ, ಶಾಂತಿಕರಣ, ಯಜ್ಞ, ಪೂರ್ಣಾಹುತಿ, ಶಾಂತಿಪಾಠ ಹಾಗೂ ಪ್ರಾರ್ಥನೆಯ ನಂತರ ದಯಾನಂದರ ಸಾಧನೆ ಮತ್ತು ಬಲಿದಾನವನ್ನು ನೆನಪಿಸುವ "ಕೈಸ ಪವಿತ್ರ ಜೀವನ್" ಎಂಬ ಭಜನೆ ಹಾಡಲಾಯಿತು.

ಅಧ್ಯಕ್ಷರಾದ ಶ್ರೀ ಹೇಮಚಂದ್ರ ಆರ್ಯ ಅವರು ಸ್ವಾಗತ ಭಾಷಣದೊಂದಿಗೆ ವಿಚಾರಗೋಷ್ಠಿಗೆ ಚಾಲನೆ ನೀಡಿದರು.
🔹 ಶ್ರೀಯುತ ಸಿದ್ಧಾರ್ಯ ಅವರು “ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರ ಜೀವನ” ಕುರಿತು ಪ್ರೇರಣಾದಾಯಕವಾಗಿ ಮಾತನಾಡಿದರು.
🔹 ಶ್ರೀಯುತ ರವಿ ಅವರು “ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರ ವೇದೋಕ್ತ ಚಿಂತನೆಗಳು” ಕುರಿತು, "ಸತ್ಯಾರ್ಥ ಪ್ರಕಾಶ" ಗ್ರಂಥದ ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಸಮ್ಮೂಲಾಸಗಳ ಸಾರಾಂಶ ಮತ್ತು ಋಷಿ ದಯಾನಂದರು ಉಲ್ಲೇಖಿಸಿರುವ ಶಾಸ್ತ್ರ ಪ್ರಮಾಣಗಳನ್ನು, ಅದರಲ್ಲೂ ವಿಶೇಷವಾಗಿ ಮನುಸ್ಮೃತಿಯನ್ನು ಯಥಾವತ್ತಾಗಿ ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯ ಮತ್ತು ಪ್ರಚಾರ ಮಾಡಬೇಕೆಂದು ತಿಳಿಸಿದರು.
ಅಂತಿಮವಾಗಿ ಶ್ರೀಯುತ ಪೃಥ್ವಿರಾಜ್ ಅವರು, ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರು ತಮ್ಮ ಕೆಲವು ಪತ್ರಗಳಲ್ಲಿ ಧಾನ, ಧರ್ಮ, ಪುರುಷ ಪ್ರಯತ್ನ, ಸನಾತನ ಧರ್ಮದ ಪುನರುತ್ಥಾನ ಇತ್ಯಾದಿ ವಿಚಾರಗಳ ಬಗ್ಗೆ ಅವರ ಉಲ್ಲೇಖನ ಗಳನ್ನು (ಕೋಟ್) ಓದಿ, ಕಾರ್ಯಕ್ರಮದಲ್ಲಿ ಭಾಗವಹಿಸಿದ ಎಲ್ಲರಿಗೂ ಧನ್ಯವಾದ ಸಮರ್ಪಣೆ ಮಾಡಿದರು.

ಹೀಗೆ, ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರ ವೇದಮಾರ್ಗ, ಸತ್ಯ ಮತ್ತು ಧರ್ಮದ ಸಂದೇಶವನ್ನು ನೆನಪಿಸುತ್ತಾ ಎಲ್ಲರೂ ಸತ್ಸಂಗದಿಂದ ಪ್ರೇರಣೆಯನ್ನು ಪಡೆದರು.

ಆಯೋಜಕರು:
ಆರ್ಯಸಮಾಜ, ಮೈಸೂರು
ChatGPT said:
महर्षि दयानंद सरस्वती निर्वाण दिवस की स्मृति — विशेष सत्संग 🌼

दिनांक 20.10.2025, सोमवार शाम 6 बजे आर्य समाज, मैसूर द्वारा महर्षि दयानंद सरस्वती जी के निर्वाण दिवस के अवसर पर विशेष सत्संग का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम की शुरुआत ईश्वर स्तुति, स्वस्ति वाचन, शांतिकरण, यज्ञ, पूर्णाहुति, शांति पाठ और प्रार्थना से हुई। इसके पश्चात दयानंद जी के जीवन, साधना और बलिदान को स्मरण करते हुए “कैसा पवित्र जीवन” नामक भजन प्रस्तुत किया गया।

सभा की अध्यक्षता श्री हेमचंद्र आर्य ने की और स्वागत भाषण के साथ विचार गोष्ठी का शुभारंभ किया।
🔹 श्री सिद्धआर्य ने “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन” विषय पर प्रेरणादायक वक्तव्य दिया।
🔹 श्री रवी ने “महर्षि दयानंद सरस्वती के वैदिक विचार” पर बोलते हुए सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ के प्रत्येक समुल्लास का सारांश प्रस्तुत किया तथा ऋषि दयानंद द्वारा उल्लिखित शास्त्र प्रमाणों—विशेषकर मनुस्मृति—के अध्ययन और प्रचार की आवश्यकता पर बल दिया।
अंत में श्री पृथ्वीराज ने महर्षि दयानंद के कुछ पत्रों से दान, धर्म, पुरुषार्थ और सनातन धर्म के पुनरुत्थान से संबंधित उद्धरण पढ़े और सभी उपस्थित जनों का आभार व्यक्त किया।

इस प्रकार, सत्संग में सभी ने महर्षि दयानंद के वेदमार्ग, सत्य और धर्म के संदेश से प्रेरणा प्राप्त की।


आयोजक: आर्य समाज, मैसूर

ದಿನಾಂಕ 20.10.2025, ಸೋಮವಾರ ಸಂಜೆ 6 ಗಂಟೆಗೆ ಆರ್ಯ ಸಮಾಜ, ಮೈಸೂರು ವತಿಯಿಂದ ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ರವರ ನಿರ್ವಾಣ ದಿನದ ಅಂಗವಾಗಿ ಆಯೋಜಿಸಲಾಗಿದ್ದ ವಿಶೇಷ ಸತ್ಸಂಗದಲ್ಲಿ ಈಶ್ವರ ಸ್ತುತಿ, ಸ್ವಸ್ತಿ ವಾಚನ, ಶಾಂತಿಕರಣ, ಯಜ್ಞ, ಪೂರ್ಣಾಹುತಿ, ಶಾಂತಿಪಾಠ ಹಾಗೂ ಪ್ರಾರ್ಥನೆಯ ನಂತರ ದಯಾನಂದರ ಸಾಧನೆ ಮತ್ತು ಬಲಿದಾನವನ್ನು ನೆನಪಿಸುವ "ಕೈಸ ಪವಿತ್ರ ಜೀವನ್" ಎಂಬ ಭಜನೆ ಹಾಡಲಾಯಿತು.

ಅಧ್ಯಕ್ಷರಾದ ಶ್ರೀ ಹೇಮಚಂದ್ರ ಆರ್ಯ ಅವರು ಸ್ವಾಗತ ಭಾಷಣದೊಂದಿಗೆ ವಿಚಾರಗೋಷ್ಠಿಗೆ ಚಾಲನೆ ನೀಡಿದರು.
🔹 ಶ್ರೀಯುತ ಸಿದ್ಧಾರ್ಯ ಅವರು “ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರ ಜೀವನ” ಕುರಿತು ಪ್ರೇರಣಾದಾಯಕವಾಗಿ ಮಾತನಾಡಿದರು.
🔹 ಶ್ರೀಯುತ ರವಿ ಅವರು “ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದ ಸರಸ್ವತಿ ಅವರ ವೇದೋಕ್ತ ಚಿಂತನೆಗಳು” ಕುರಿತು, "ಸತ್ಯಾರ್ಥ ಪ್ರಕಾಶ" ಗ್ರಂಥದ ಪ್ರತಿಯೊಂದು ಸಮ್ಮೂಲಾಸಗಳ ಸಾರಾಂಶ ಮತ್ತು ಋಷಿ ದಯಾನಂದರು ಉಲ್ಲೇಖಿಸಿರುವ ಶಾಸ್ತ್ರ ಪ್ರಮಾಣಗಳನ್ನು, ಅದರಲ್ಲೂ ವಿಶೇಷವಾಗಿ ಮನುಸ್ಮೃತಿಯನ್ನು ಯಥಾವತ್ತಾಗಿ ಸ್ವಾಧ್ಯಾಯ ಮತ್ತು ಪ್ರಚಾರ ಮಾಡಬೇಕೆಂದು ತಿಳಿಸಿದರು.
ಅಂತಿಮವಾಗಿ ಶ್ರೀಯುತ ಪೃಥ್ವಿರಾಜ್ ಅವರು, ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರು ತಮ್ಮ ಕೆಲವು ಪತ್ರಗಳಲ್ಲಿ ಧಾನ, ಧರ್ಮ, ಪುರುಷ ಪ್ರಯತ್ನ, ಸನಾತನ ಧರ್ಮದ ಪುನರುತ್ಥಾನ ಇತ್ಯಾದಿ ವಿಚಾರಗಳ ಬಗ್ಗೆ ಅವರ ಉಲ್ಲೇಖನ ಗಳನ್ನು (ಕೋಟ್) ಓದಿ, ಕಾರ್ಯಕ್ರಮದಲ್ಲಿ ಭಾಗವಹಿಸಿದ ಎಲ್ಲರಿಗೂ ಧನ್ಯವಾದ ಸಮರ್ಪಣೆ ಮಾಡಿದರು.

ಹೀಗೆ, ಮಹರ್ಷಿ ದಯಾನಂದರ ವೇದಮಾರ್ಗ, ಸತ್ಯ ಮತ್ತು ಧರ್ಮದ ಸಂದೇಶವನ್ನು ನೆನಪಿಸುತ್ತಾ ಎಲ್ಲರೂ ಸತ್ಸಂಗದಿಂದ ಪ್ರೇರಣೆಯನ್ನು ಪಡೆದರು.

ಆಯೋಜಕರು:
ಆರ್ಯಸಮಾಜ, ಮೈಸೂರು

19/10/2025

महर्षि दयानन्द सरस्वती निर्वाण दिवस

19/10/2025

ऋषि के विचारो से जुड़े

15/10/2025

. * मानव क्या है❓ मानव-देह का प्रयोजन क्या है ❓"
✍️ महात्मा आनन्द स्वामी

मानव क्या है ? क्या केवल कुछ भौतिक पदार्थों का सम्मिश्रण ? भौतिक विज्ञान के पण्डित कहते हैं कि मनुष्य-शरीर लोहे, चूने, अभ्रक, गन्धक, सीसा, चर्बी, नमक, खाण्ड, पानी तथा थोड़ी-सी चाँदी ही का संघात है, और शेष कुछ भी नहीं। यदि मानव इन्हीं पदार्थों का नाम है, तब तो इसका मूल्य महँगाई के इस काल में भी कुछ सौ रुपये से अधिक नहीं होगा। परन्तु 'महाभारत' के शान्ति-पर्व के १८०/१२ में जो यह कहा गया है कि-

गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि । न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किञ्चित् ।।

- "यह रहस्य-ज्ञान तुम्हें बताता हूँ कि मनुष्य से श्रेष्ठ अन्य कुछ नहीं है।"

तो क्या इतनी श्रेष्ठता अभ्रक, चूने, नमक, गन्धक, चर्बी इत्यादि से आँकी जायेगी ? नहीं, ये पदार्थ तो मानव-शरीर से कहीं बहुत अधिक हाथी में हैं, तब उसे सर्वश्रेष्ठ क्यों नहीं कहा गया ? मानव-शरीर को क्यों कहा गया ? फिर 'महाभारत' ही में नहीं, उपनिषदों में भी मानव-देह ही को सबसे अच्छा बतलाया गया है। 'ऐतरेय उपनिषद्' के ऋषि ने बतलाया है कि देवताओं ने अन्य प्राणियों के शरीर की अपेक्षा मानव-देह ही को पसन्द किया और वे देव मानव-शरीर को देखकर प्रसन्नता से उछल पड़े और यह कहते हुए कि 'यह बहुत अच्छा बना है, यह तो बड़ा प्रिय है' मानव-शरीर में प्रवेश कर गए। और तो और, स्वयं परमात्मा ने अपनी पवित्र वाणी वेद में इस मानव-देह को बहुत दुर्लभ बतलाया है। अथर्ववेद के 'केन-सूक्त' में मनुष्य-शरीर के एक-एक अंग की अद्भुत रचना पर कैसी सुन्दर कविता की है, और इनके बनाने वाले विलक्षण कारीगर की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। कैसा सुन्दर संगठन है इसका ! जहाँ जिस पदार्थ की आवश्यकता थी, उसे वहीं रखा है। मुख के कुछ ही ऊपर नाक को, उससे ऊपर नेत्रों को, दायें-बायें की बात जानने के लिए दो कान जैसे कि दो वायरलेस यन्त्र लगा दिये हैं। उँगलियों तथा बाहों और जंघाओं की संधियाँ कितनी कारीगरी से बनाई हैं ! परन्तु ऐसी कारीगरी तथा निपुणता तो मानव के अतिरिक्त दूसरे प्राणियों तथा पशुओं के निर्माण में भी दिखलाई देती है, तब मानव-देह में क्या विशेषता है कि इसी के गुण गाए जाते हैं ?

👉 परमात्मा से मिलने का साधन : तन -

इसका उत्तर वेद भगवान् ही ने दिया है -

"इयं ते यज्ञा तनूः स ।" (यजु०)

- तेरा यह तन (देह) परमात्मा से मिलने का साधन है। मानव-शरीर में यही विशेषता है। शेष सारे प्राणियों में आत्मा भी है और परमात्मा भी, परन्तु उनमें इन दोनों का मिलाप होते हुए भी मिलाप नहीं होता, क्योंकि उन प्राणियों के पास वे साधन नहीं जो परमात्मा ने अपनी अपार कृपा से मनुष्य को दे रखे हैं।

सबसे पहली बात तो यह है कि सारे देवता मानव-शरीररूपी पुरी ही में निवास करते हैं। अथर्ववेद (१०।२।३१) में इसे देवपुरी कहा है। यजुर्वेद(यजु० ३४।५५) में इसे 'ऋषिभूमि' बतलाया है। सात ऋषि बिना प्रमाद के शरीर की स्क्षा करते हैं, और दो ऋषि तो सोते समय भी जागते रहते हैं। यह मानव-शरीर 'ब्रह्मपुरी' (अथर्ववेद १०।२।३३) तथा छान्दोग्योपनिषद् ने बतलाया है। यह मानव-शरीर तो एक दैवी नाव है (अथर्व ७-६-३), जिसपर हम इसलिए चढ़ बैठे हैं ताकि भवसागर से पार होकर परमधाम में जा पहुँचें । हाँ, यह मनुष्य-देह तो एक रथ' है,(यजु.१९-५४) जिसपर सवार होकर यह रथी (आत्मा) बुद्धिरूपी सारथी द्वारा मन की लगाम से संसार-यात्रा को प्रसन्नता से पूरा करता है। और ऋग्वेद के शांखायन आरण्यक' (८-९) में मानव-देह को दैवी वीणा कहा है। मानुषी वीणा के स्वर बहुत मधुर, बड़े रसीले तथा चित्ताकर्षक होते हैं, परन्तु जिसने इस दैवी वीणा का बजाना सीख लिया, वह उसके अन्दर ऐसे दिव्य स्वर झंकारित करता है कि मानव तो क्या, देवता भी मुग्ध हो जाते हैं।

👉 ऐसा मानव-देह पाकर -

ऐसा मानव-देह पाकर यदि मानव दुःखी हो तो फिर उसके कल्याण का क्या और भी कोई साधन हो सकता है ? परन्तु यह अकाट्य सत्य है कि आज का मानव दुःखी है, और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जिन लोगों में आज भौतिक तथा वैज्ञानिक शक्ति है वे बहुधा केवल भौतिकवाद के माननेवाले हैं; उनके समक्ष एकमात्र शरीर ही रह गया है, और वे आत्मा को भूल-से गए हैं। दूसरा कारण यह है कि आधुनिक काल की दुनिया सर्वथा विस्मरण कर चुकी है कि यह मानव-देह बना क्यों ? जो वस्तु बनाई जाती है, उसका कुछ-न-कुछ प्रयोजन अवश्य होना चाहिए। बिना किसी उद्देश्य या प्रयोजन ही के क्या मानव को इस संसार-सागर में या जगत् के बीहड़ वन में धकेल दिया गया है ? और फिर नाना प्रकार के कष्टों, क्लेशों और पीड़ाओं से पीड़ित होकर हाहाकार करने के लिए ही इसे जन्म दे दिया गया है ? ऐसा तो हो नहीं सकता। साधारण बुद्धि भी इसे स्वीकार नहीं कर सकती। वेद का अनुयायी तो यही कहेगा कि मानव जीवन का कोई विशेष प्रयोजन है। यदि निस्सन्देह कोई प्रयोजन है, तो फिर वह प्रयोजन क्या है ?

👉 मानव-देह का प्रयोजन क्या ?

इसका उत्तर यजुर्वेद के पहले ही अध्याय में दिया गया है-

कस्त्त्वा युनक्ति ? स त्वा युनक्ति । कस्मै त्वा युनक्ति ? तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वां वेषाय वाम् ॥ १ । ६ ॥

वेद के इस मन्त्र में दो प्रश्न हैं और दो ही उत्तर दिये हैं। पहला प्रश्न है- 'तुमको किसने युक्त किया, अर्थात् तेरी आत्मा का इस - शरीर के साथ किसने सम्बन्ध जोड़ा ?' इसका उत्तर दिया है- 'उस परमात्मा ने तुझे युक्त किया है।'
दूसरा प्रश्न है- 'किस प्रयोजन के लिए (आत्मा तथा शरीर का) मिलाप किया गया है ?'
इसका उत्तर है कि

(१) उस परमात्मा के भजन, दर्शन, मिलाप के लिए;
(२) सत्यव्रत, यज्ञ, धर्मप्रचार, शुभ गुणों, विद्याओं को धारण करने तथा
(३) ज्ञान की उपलब्धि के लिए।

ये तीन प्रयोजन या उद्देश्य हैं जिनको पूरा करने के लिए मानव-देह प्रभु-कृपा से प्राप्त हुआ है। इन तीनों प्रयोजनों का तीन शब्दों में वर्णन करना हो तो यह कहा जाएगा कि (१) ज्ञान, (२) कर्म, (३) उपासना के लिए; और चारों वेदों में इन्हीं तीन तथ्यों का निरूपण है, इन्हीं का व्याख्यान है।

महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों के अन्दर जो छठा नियम रखा है, वह भी इन्हीं तीन बातों को प्रकट करता है -
"संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है; अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।" ⭐ ओ३म् ⭐
स्रोत- 'महामन्त्र'
लेखक - महात्मा आनन्द स्वामी
प्रस्तुतकर्ता- रामयतन

04/10/2025

हरयाणा में शिक्षाप्रसार में आर्यसमाज का महान् योग

लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती
हरियाणा संवाद :- 10मई 1975
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा

महर्षि दयानन्द जी ने संसार का उपकार करने के लिए बम्बई में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा विक्रमी सम्वत् १९३२ को आर्यसमाज की स्थापना की। उस समय आर्य जाति की रीति - नीति , सभ्यता , संस्कृति को पाचात्य सभ्यता का झंझावात समूल उखाड़ फेंकने में प्रयत्नशील था। ऐसी विकट परिस्थितियों में ऋषिवर दयानन्द ने अपने महान् कार्य का सभारम्भ किया। आज राष्ट्र ने जो करवट बदली है , देश में शिक्षा का जो प्रचार प्रसार हुआ है तथा जागृति के जो चिह्न दिखाई देते हैं जैसे देश की स्वतंत्रता , समाज का सुधार , शिक्षा का राष्ट्रीयकरण , वेदोद्धार , गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से ब्रह्मचर्य प्रचार , बालविवाह का उन्मूलन , सतीप्रथा का उन्मूलन , विधवा विवाह का प्रचलन , छुआछूत का नाश , स्त्री - शिक्षा का प्रसार होरहा है , उसका सर्वाधिक श्रेय इसी बाल ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द को है।

महर्षि दयानन्द जी हरयाणा के दिल्ली , रेवाड़ी और अम्बाला में आर्यसमाज और वेदप्रचारार्थ अनेक बार पधारे। बेरी तथा भिवानी में उनके पधारने की बात सुनी जाती है। उनके उपदेशामृत से प्रभावित होकर रामपुरा , रेवाड़ी के रावराजा युधिष्ठिर अपने अनेक साथियों सहित उनके शिष्य बन गए। आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक दादा बस्तीराम भी रेवाड़ी में महर्षि के उपदेशों से प्रभावित होकर आर्यसमाजी बने और ११७ वर्ष की आयु तक आर्यसमाज के सिद्धान्तों और शिक्षा का प्रचार करते रहे। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से रावराजा युधिष्ठर ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम गोशाला रेवाड़ी में ही खोली थी। महर्षि के उपदेशों से प्रभावित होकर हरयाणा के प्रसिद्ध ब्रह्मचारी जयरामदास ने बेरी और भिवानी में गोशालाएं खोली।

महर्षि दयानन्द के उपदेशों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब , हरयाणा , उत्तरप्रदेश और राजस्थान में पड़ा। पंजाब में ही ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द जी महाराज का जन्म करतारपुर के निकट गंगापुर ग्राम में हुआ था। उन्हीं के चरणों में स्वामी दयानन्द ने आर्षशिक्षा की दीक्षा मथुरा में ली थी। स्वामी विरजानन्द जी के गुरु स्वामी पूर्णानन्द जी सरस्वती हरयाणाप्रदेश के ही थे। इस प्रकार आर्यसमाज का मूल - जन्मदाता हरयाणाप्रदेश ही था। यही नहीं , स्वामी दयानन्द के पूर्वज औदीच्य ब्राह्मण थे , अर्थात् उत्तरभारत के ही थे। संभव है कि उनके पूर्वजों का निवासस्थान प्राचीनकाल के हरयाणाप्रदेश में ही रहा हो।

महर्षि ने अमरग्रन्थ ' सत्यार्थप्रकाश ' में लिखा है कि कोई कितना ही करे , परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है , वह सवोपरि उत्तम होता है , अर्थात् मत - मतान्तर के -आग्रहरहित अपने और पराए का पक्षपातशून्य , प्रजा पर पिता - माता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न भिन्न भाषा , पृथक् - पृथक् शिक्षा , अलग व्यवहार का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इस निर्भीक संन्यासी ने कितने स्पष्ट शब्दों में विदेशीराज्य के दोष और स्वदेशीराज्य के गुण बताए हैं। यह राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति की पराकाष्ठा है। अंग्रेजों के राज्य में उनके ही विरुद्ध इतना निर्भीक होकर बोलना और लिखना इसी वीर संन्यासी का कार्य था। वे लार्ड मैकाले द्वारा प्रचलित दूषित शिक्षाप्रणाली के दोषों से भलीभांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने ' सत्यार्थप्रकाश ' के तृतीय समुल्लास में और संस्कार विधि के वेदारम्भसंस्कार में प्राचीन आर्षशिक्षाप्रणाली को विस्तार से लिखा है। उसी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द , स्वामी दर्शनान्द जी आदि महर्षि के एकनिष्ठ शिष्यों ने हरद्वार , ज्वालापुर , जालन्धर , देहरादून , सिकन्दराबाद आदि स्थानों पर राष्ट्रीयशिक्षा के उद्धारार्थ गुरुकुलों की स्थापना की।

इन महात्माओं से प्रेरणा लेकर स्वामी ब्रह्मानन्द , पंडित विश्वम्भरदत्त ( झज्जर ) , चौधरी पीरूसिंह ( मटिण्डू ) और महात्मा भक्त फूलसिंह आदि ने झज्जर , मटिण्डू , भैंसवाल और खानपुर में गुरुकुलों की स्थापना की। राष्ट्रीयशिक्षा अर्थात् वेदादि सत्य शास्त्रों की आर्षशिक्षा का प्रचार और प्रसार सारे उत्तरभारत में होने लगा। गुरुकुलों की बाढ़ - सी आगई। उनको देखकर ही डी.ए.वी. स्कूल , कॉलेज , आर्यस्कूल और आर्यकॉलेज भी धड़ाधड़ खुलने लगे। कन्याओं की शिक्षार्थ जालन्धर , देहरादून , कनखल , मीताथल ( भिवानी ) , सासनी , बड़ौदा , पोरबन्दर , खानपुर , नरेला आदि नगर उपनगरों में कन्या गुरुकुल , आर्य कन्या पाठशाला , आर्य कन्या स्कूल और कॉलेज आर्यसमाज ने ही खोलकर स्थापित किए।

पहले पहल कन्याओं की शिक्षा का विरोध हुआ। कन्याएं पढ़ानी चाहिएं या नहीं , इस विषय पर आर्यसमाज ने शास्त्रार्थ भी किए । आर्यसमाज के संन्यासी , विद्वान् , पण्डित , उपदेशक और भजनोपदेशकों ने सारे उत्तरभारत में राष्ट्रीयशिक्षा का इतना प्रबल प्रचार किया कि विरोधी मुंह देखते रहगए। कुछ ही वर्षों में सब विरोध ठण्डा होगया। हरयाणा में आगे चलकर कुरुक्षेत्र , इन्द्रप्रस्थ , सिंहपुरा , कालवा, गदपुरी , गणियार टटेसर , खेड़ाखुर्द , कुम्भाखेड़ा , आर्यनगर , कुरड़ी , धीरणवास , पंचगांवा , सिद्धिपुर लोवा आदि अनेक स्थानों पर नए नए गुरुकुल स्थापित होगए। हरयाणा में शिक्षा का तहलका मच गया।

कुछ अंग्रेजी पढ़े - लिखे लोग जो गुरुकुल खोलने या चलाने में असमर्थ थे , उन्होंने जाट स्कूल , वैश्य स्कूल , गौड़ स्कूल , जांगड़ा ब्राह्मण स्कूल ( विश्वकर्मा स्कूल ) , सैनी स्कूल , अहीर स्कूल , आर्य स्कूल , डी.ए.वी. स्कूल , भारी संख्या में रोहतक , हिसार , भिवानी , सोनीपत , पानीपत , वल्लभगढ़ , करनाल , जींद , हांसी , गुड़गांव , रेवाड़ी , पलवल , होडल , अम्बाला , यमुनानगर , जगाधरी आदि छोटे बड़े नगरों में खोल दिए। उनमें से कितने ही स्कूलों ने कॉलेजों का रूप धारण करलिया। अंग्रेजों ने सरकार की ओर से शायद ही कहीं भूलकर कोई स्कूल कॉलेज हरयाणा में खोला होगा। इन स्कूल कॉलेजों का रहन - सहन , खानपान प्रारम्भ में गुरुकुलों के समान ही था। प्रातः सायं इन सबमें वैदिक संध्या कराई जाती थी। साप्ताहिक यज्ञ भी होते थे। सर्वत्र वेदमंत्रों की गूंज सुनाई देती थी। छात्रावासों में सोने के लिए तख्त थे। मिर्च तक भी कोई विद्यार्थी नहीं खाता था। ब्रह्मचारियों के समान दैनिक व्यायाम करते थे। स्वांग , नाच देखने से बड़ी घृणा थी। व्यायाम , स्नान आदि ब्रह्मचारियों के समान प्रचलित थे।

स्वामी आनन्द मुनि , चौधरी छोटूराम , सेठ छाजूराम , लाला रामनारायण बी.ए. , चौधरी बलदेवसिंह , डॉ ० रामजीलाल , पंडित भूराराम , चौधरी रामप्रकाश , चौधरी टीकाराम , पंडित मुरारीलाल , पंडित जगदेवसिंह सिद्धांती , लाला श्यामलाल , लाला फतेहसिंह आर्य ये सभी आर्यसमाजी थे , जिन्होंने स्कूल कॉलेजों के द्वारा राष्ट्रीयशिक्षा और आर्यसमाज का प्रचार किया और हरयाणा की अनपढ़ जनता को शिक्षित और दीक्षित किया। आर्यसमाज के प्रचार का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि चौ० लालचंद जी भालोठ जैसे धर्मनिरपेक्ष लोग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जब हरयाणा के सभी गणमान्य व्यक्ति आर्यसमाजी होगए। जब आर्यसमाजी होना आदर मान की वस्तु समझी जाने लगी , तो चौधरी लालचंद भी न रह सके और आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी सत्यानन्द जी से जनेऊ लेकर गुरुकुल मटिण्डू के सेवक व प्रेमी बन गए

आर्यसमाज की देशभक्ति और राष्ट्रीयशिक्षा का ही प्रभाव था कि आर्यसमाजी लोग देशसुधार के सभी आन्दोलनों में सबसे आगे ही रहते थे। आर्यसत्याग्रह हैदराबाद में सबसे अधिक सत्याग्रही पंजाब से गए और पंजाब में भी हरयाणा भाग के सबसे अधिक सत्याग्रही थे। राष्ट्रभाषा हिन्दी के आन्दोलनों में भी आर्यसमाजी ही अग्रणी और प्रमुख रहे। महर्षि दयानन्द ने गुजराती होकर भी अपने सभी ग्रन्थ राष्ट्रभाषा हिन्दी में लिखे।

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प्रजामण्डल आन्दोलन
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मुगलों के राज्य में हरयाणा की जनता को वश में रखने के लिए अनेक नवाबों को बड़ी बड़ी जागीरें प्रदान की थीं । जैसे झज्जर , फरूखनगर , बहादुरगढ़ , दुजाना और लोहारू इत्यादि स्थानों पर अनेक मुसलमान नवाब व जागीरदार थे। उसी प्रकार अंग्रेजों ने हरयाणा को शक्तिहीन करने के लिए इसको अनेक भागों में बांटकर इसे इतस्ततः कर दिया। जैसे मेरठ , मुजफ्फरनगर , सहारनपुर , बिजनौर , देहरादून , मथुरा , आगरा , अलीगढ़ , एटा , मैनपुरी , मुरादाबाद , बदायूं , बरेली , शाहजहांपुर इत्यादि जिलों को हरयाणा से निकालकर उत्तरप्रदेश में मिला दिया। महेन्द्रगढ़ और नारनौल को नाभा और पटियाला में मिला दिया गया। दादरी , जींद , नरवाना , संगमा का क्षेत्र पृथक् करके जींदराज्य की स्थापना की गई। सन् १८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्यसंग्राम में हरयाणा की देशभक्त जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर युद्ध किया था। उसी के फलस्वरूप हरयाणा के अनेक खण्ड करके हरयाणावासियों को यह दण्ड मिला था। हमारे हजारों पूर्वजों को गोली का शिकार बनाया था। छ: हजार से अधिक वीरों को आजीवन कारावास की सजा देकर काला पानी ( अण्डमान निकोबार ) भेज दिया गया था। सर्वप्रथम हरयाणा के पूर्वजों को ही सन् १८५८ में काले पानी के द्वीपों में बसाया था। हरयाणा को तो राष्ट्रभक्ति का उपर्युक्त दण्ड मिला , जींद , नाभा , पटियाला स्टेटों में हरयाणा के कई भाग सम्मिलित कर दिए गए।

झज्जर के नवाब तथा बल्लभगढ़ के जाटराजा नाहरसिंह को दिल्ली में कोतवाली के आगे फांसी देकर और उनका राज्य जब्त करके देशभक्ति का दण्ड दिया गया। आर्यसमाज के प्रचार से पूर्व सारा हरयाणा अशिक्षित था। पढ़ा - लिखा व्यक्ति कार्ड ढूंढने से ही कहीं - कहीं दिखाई देता था। मुस्लिमबादशाहों और अंग्रेजों की यही नीति थी कि यहां की वीरप्रजा मूर्ख और भूखी रहे , तभी ये अधीन रहसकेंगे। किंतु आर्यसमाज के प्रचार से शिक्षा का प्रचार इतना बढ़ा कि अंग्रेज इसे रोक नहीं सके। जितने शिक्षणसंस्थान आर्यसमाज ने प्रचलित किए वे अंग्रेजसरकार से सहायता नहीं लेते थे। उनका माध्यम भी राष्ट्रभाषा हिन्दी ही था। पाठविधि भी उनकी अपनी ही चलती थी। अंग्रेज वायसराय ने स्वयं गुरुकुल कांगड़ी में जाकर लाखों रुपए सहायतार्थ देने चाहे , किन्तु स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लेने से निषेध कर दिय। स्वामी ऋद्धानन्द , स्वामी दर्शनानन्द आदि सैंकड़ों आर्यसंन्यासी और विद्वानों ने अपना तन - मन - धन ( अर्थात् सर्वस्व ) राष्ट्रीयशिक्षा पर न्यौछावर कर दिया। उसी के फलस्वरूप हरयाना के तपस्वी त्यागी दादा बस्तीराम , स्वामी ब्रह्मानन्द , स्वामी परमानन्द , स्वामी विद्यानन्द , पंडित विश्वम्भरदत्त ( झज्जर ) , चौधरी पीरूसिंह , भक्त फूलसिंह , स्वामी नित्यानन्द , चौधरी ईश्वरसिंह , पंडित बालमुकन्द , सेठ छाजूराम आदि ने अपना सर्वस्व लगाकर हरयाणा में गुरुकुल विद्यालय और पाठशालाओं की स्थापना की तथा विद्याप्रचार करके हरयाणा की जनता में देशभक्ति और राष्ट्रीय शिक्षा की ज्योति जलादी। इन्हीं महात्मा विद्वान् और दानियों की कृपा से कनीना , महेन्द्रगढ़ , नारनौल , दादरी , जींद , लोहारू , दुजाना आदि देशीराज्यों में पाठशालाएं खुली , स्कूल वने , आर्यसमाज स्थापित हुए और प्रजामण्डल की भी स्थापना हुई।

हरयाणा तथा इसके अन्तर्गत देशीराज्यों में राष्ट्रभाषा हिन्दी की ५०० से अधिक पाठशालाएं चलती थीं। इन्हें सीधा आर्यसमाज ने चला रखा था। आर्यसमाज की सहायता व प्रचार के कारण बिरला बन्धुओं का ट्रस्ट चलरहा था। इन सभी पाठशालाओं में सभी अध्यापक आर्यसमाजी थे। उनके सात व आठ निरीक्षक भी आर्यसमाजी थे। इन निरीक्षकों के ऊपर प्रधान निरीक्षक प्रसिद्ध आर्यसमाजीनेता चौ० निहालसिंह जी तक्षक थे , जो रात दिन ऊंट की पीठ पर सवार रहते थे और इन सभीराज्यों में शिक्षा तथा आर्यसमाज दोनों का प्रचार करते थे। राजस्थान के अतिरिक्त लोहारू , महेन्द्रगढ़ , कनीना , दादरी , जींद और दुजाना आदि राज्यों में इन पाठशालाओं का इस धुन के धनी आर्यनेता ने जाल बिछा दिया था। सभी स्थानों पर शिक्षा के सच्चे प्रचारक और साधक आर्य अध्यापक नियुक्त कर दिए थे। दिन - रात पाठशालाएं चलती थीं। कितने ही अध्यापक तो रविवार को भी अवकाश नहीं करते थे। बीसलवास , गागड़वास , चांदवास , डालावास , बेरला , मानहेडू , रासीवास , दगड़ोली , बडेसरा , बिगोवा , ढ़ाणी , भागवी , इमलोटा , ऊण , रानीला , रावलधी , लूलोढ़ , लूखी , कनीना , पौली , जुलाना , जींद , नरवाना , बारवास , हरियावास , चेहड़नांगल , आर्यनांगल आदि ग्रामों में चारों ओर इन पाठशालाओं की धूमधाम थी।

इनके आदर्श अध्यापक राजेराम , कुन्दनसिंह , भूपसिंह , शिवराम , नानकचंद , फतेहसिंह , बनारसीदास , दीपचंद , लज्जेराम , कलवन्तसिंह , मांगेराम आर्य , हजारीलाल ( कर्मवीर वैद्य ) , दीपचन्द , रामस्वरूप , पंडित शिवकरण , पंडित सोहनलाल , हरिसिंह , सूबेराम आर्य , रामस्वरूप आर्य , रणसिंह आर्य , चौधरी सोहनलाल आर्य आदि सैंकड़ों अध्यापक थे जो इस शिक्षा यज्ञ को राष्ट्रीय धर्म समझकर भूखे प्यासे रहकर चला रहे थे। इनकी साधना ने शिक्षाप्रसार और आर्यसमाज के प्रचार को चार चांद लगादिए। ढाणी , बीसलवास , रावलधी , इमलोटा , डालावास , भागवी आदि अनेक पाठशालाएं तो गुरुकुल ही बने हुए थे। इन्हीं देशभक्त आर्य अध्यापकों ने देशभक्ति का प्रचार करके प्रजामण्डल की स्थापना की। इनमें से फतेहसिंह आर्य , बनारसीदास गुप्त , हजारीलाल ( कर्मवीर ) आदि अनेक अध्यापक जेलों में भी गए।

इन्हीं अध्यापकों ने कन्या गुरुकुल पंचगांवा , आर्यसमाज स्कूल लोहारू , आर्यसमाज लूलोढ , आर्यसमाज लूखी आदि में एक दर्जन से अधिक पाठशालाएं , स्कूल आदि की स्थापना की। ये अध्यापक दिन में पढ़ाते थे , रात्रि में आर्यसमाज और शिक्षा का प्रचार करते थे। दादरी में प्रजामण्डल की स्थापना करके जींद के राजा की तथा नवाब लोहारू की नींद हराम करदी थी। ये अध्यापक देशभक्ति के भजन , कविता बनाकर और गा गाकर प्रचार करते थे।

भारत को छोड़ जाए यह गर्वनमैंट हत्यारी।
मांगेराम कथना करें और अनुमोदन करे हजारी।।

' भारत छोड़ो ' का नारा इन अध्यापकों ने कांग्रेस से भी पहले लगा दिया था। पंडित रामरिछपाल , चौधरी मनसाराम ने आर्यसमाज तथा प्रजामण्डल के प्रचार खूब सहयोग दिया। चौधरी मंगलाराम जी नम्बरदार डालावास तथा चौधरी नत्थाम नम्बरदार बडेसरा ने अंग्रेजों की नम्बरदारी छोड़कर आदर्शभक्ति का परिचय दिया। चौधरी मनसाराम ने भूमि दान दी तथा मंगलाराम ने ५०००० ईंटें देकर कन्या गुरुकुल पंचगांवा डालावास की स्थापना की जो चौधरी भरतकुमार शास्त्री ने सेवाकर अनेक वर्षों तक चलाया। स्वामी ईशानन्द जी , स्वामी कर्मानन्द जी , पंडित समरसिंह वेदालंकार , ठाकुर भगवन्तसिंह , पंडित भरतसिंह आर्य , वैद्य दुलीचन्द ने भी आर्यसमाज के प्रचार में खूब बल लगाया। आर्यसमाजी अध्यापक रात्रिपाठशाला चलाकर हाली - पाली आदि प्रौढ़ों में शिक्षा का प्रचार करते थे। धर्मार्थ औषधालय चलाते थे। ईसाई , मुसलमान , पौराणिकमतों के पाखंड का खण्डन करते थे। लाला लाजपतराय तथा देवतास्वरूप भाई परमानन्द , स्वामी स्वतंत्रानन्द , स्वामी आत्मानन्द , स्वामी दर्शनानन्द , स्वामी श्रद्धानन्द , पंडित लेखराम आदि आर्यनेताओं ने भी हरयाणाप्रति का विशेष ध्यान रखा। इन सबकी कृपा से प्रोफेसर रामसिंह एम.ए. , पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार , पंडित प्रियव्रत वेदवाचस्पति , पंडित समरसिंह वेदालंकार , पंडित व्यासदेव शास्त्रार्थमहारथी आदि अनेक प्रकाण्ड पंडित और विद्वान् हरयाणा से आर्यसमाज को मिले। हजारों अध्यापक , शास्त्री , आचार्य , उपदेशक , सुधारक राष्ट्रीयशिक्षा के प्रचार के रूप में हरयाणा में उत्पन्न हुए। जितने भी सुशिक्षित पढ़े - लिखे समाजसुधारक राजनैतिक नेता हमारे से पहली पीढ़ी में हुए उनमें से अधिकतर सब आर्यसमाज की देन हैं। हरयाणा में जो शिक्षासंबंधी धार्मिक और राष्ट्रीयजागृति हुई , उसका भी सबसे अधिक श्रेय आर्यसमाज को है।

राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द के राष्ट्रीयशिक्षा के रंग में रंगे हुए शिष्य देश - विदेश , द्वीप - द्वीपान्तरों में जहां कहीं भी गए , सर्वत्र हलचल मचगई और राष्ट्रीयशिक्षा का प्रचार और प्रसार किया । मारिशस - अफ्रीका , फिजी - इण्डोनेशिया , ब्रिटिश , गयाना , कनाडा आदि देशों में सर्वत्र वेद धर्म और भारतीयसंस्कृति के प्रचार का श्रेय आर्यसमाज को ही है। अब किन्हीं कारणों से कहीं - कहीं प्रचारकार्य में शिथिलता आई दिखाई देती है।

16/07/2024

*🌷 पुनर्जन्म -विवेचन 🌷*

एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना ही पुनर्जन्म कहाता है। चाहे वह मनुष्य का शरीर हो या पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि कोई भी शरीर।
यह आवागमन या पुनर्जन्म एक शाश्वत सत्य है। जो जैसे कर्म करता है,वह वैसा ही शरीर प्राप्त करता है।धनाढ़य, कंगाल, सुखी,दुःखी, ऊँच, नीच आदि अनेक प्रकार के व्यक्ति एवं अन्य प्राणियों को देखने से विदित होता है कि यह सब कर्मों का फल है। कर्म से देह और देह से पुनर्जन्म अथवा आवागमन सिद्ध है। यह चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

*न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।*
*न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।*
-(गीता २/१२)

*अर्थ-*न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था, या ये राजा लोग नहीं थे, और न ऐसा ही है कि इससे आगे नहीं रहेंगे।

*वासांसि जीर्णानि यथा विहाय*
*नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।*
*तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि*
*अन्यानि संयाति नवानि देही ।।*

-(गीता २/२२)

*अर्थ-*जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण कर लेता है।

*बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।*
*तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।*

-(गीता० ४/५)

*अर्थ-*हे अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं,परन्तु हे परन्तप ! उन सबको तू नहीं जानता; मैं जानता हूं।

इस पुनर्जन्म के नैरन्तर्य को योगी पुरुष ही अनुभव कर सकता है; साधारण पुरुष नहीं। वह तो केवल यही जान सकता है कि प्राणी एक शरीर को त्यागता है और दूसरा धारण करता है।इसलिए परमात्मा से उत्तम जन्म अर्थात् शरीर प्रदान करने के लिए प्रार्थना की गयी है-

*असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम् ।*
*ज्योक् पश्येम सूर्यमुच्चरन्तमनुमते मृडया नः स्वस्ति ।।*
-(ऋ० 10/59/6)

*अर्थ:-* हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्रादि सब इन्द्रियाँ स्थापन कीजिए।

प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि से युक्त शरीर पुनर्जन्म में कीजिए। हे जगदीश्वर ! इस जन्म और पर जन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों।

हे भगवन् ! आप की कृपा से सूर्यलोक, प्राण और आपको विज्ञान तथा प्रेम से देखते रहें। हे अनुमते-सब को मान देने हारे! सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये, जिससे हम लोगों का कल्याण हो।

*आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि ।*
*धास्युर्योनिं प्रथम आ विवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत ।।*

-(अथर्व० 5/1/2)

*अर्थ:-*जो मनुष्य पूर्व-जन्म में धर्माचरण करता है उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है।

अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीरों को प्राप्त होता है।

जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप-पुण्य के फलों को भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़के वायु के साथ रहता है। पुनः जल,ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जानके बोलता है और धर्म में ही यथावत् स्थिर रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है।

पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के बिना उत्तम, मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते।

*ये रुपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति ।*
*परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाँल्लोकात् प्रणुदात्यस्मात् ।।*
-(यजु० 2/30)

*अर्थ:-*जो दुष्ट मनुष्य अपने मन, वचन और शरीर से झूठे आचरण करते हुए अन्याय से अन्य प्राणियों को पीड़ा देकर अपने सुख के लिए दूसरों के पदार्थों को ग्रहण कर लेते हैं, ईश्वर उनको दुःखयुक्त करता है और नीच योनियों में जन्म देता है कि वे अपने पापों के फलों को भोगने के लिए फिर मनुष्य-देह के योग्य होते हैं।

इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि ऐसे दुष्ट मनुष्यों वा पापों से बचकर सदैव धर्म का ही सेवन किया करें।

*अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया ।*
*अकारि रत्नधातमः ।।*

-(ऋ० 1/20/1)

*अर्थ:-*मनुष्य जैसे कर्म करता है वैसे ही उसे जन्म और भोग प्राप्त होते हैं।

*🌷अग्रलिखित कथनों से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है―*

जिस समय लक्ष्मण को शक्ति लगती है और वह मूर्च्छित हो जाते हैं, तो श्रीरामचन्द्र जी उसकी इस अचेतन अवस्था को देखकर विलाप करते हुए कहते हैं―

*पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि,पापानि कर्माण्यसकृत् कृतानि ।*
*तत्राद्यायमापतितो विपाको ,दुःखेन दुःखं यदहं विशामि ।।*

-(वा०रा०यु० 63/4)

*अर्थ-*निश्चय ही मैंने पूर्वजन्म में अनेक बार मनचाहे पाप किए हैं।उन्हीं का फल मुझे आज प्राप्त हुआ है जिससे मैं एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त हो रहा हूं।

एक अन्य स्थल पर वर्णित है-सीता की खोज करते हुए हनुमान लंका में अशोकवाटिका में पहुंचे।उस समय सीता हनुमान से कहती हैं―

*भाग्यवैषम्ययोगेन, पुरा दुश्चरितेन च ।*
*मयैतत् प्राप्यते सर्वं, स्वकृतं ह्रापभुज्यते ।।*―

(वा०रा०यु० 113/36)

*अर्थ:-* मैंने पिछले जन्म में जो पाप किये हैं, उसी के परिणामस्वरुप मेरे भाग्य में यह विषमता आ गई है। मैं भी अपने पूर्वकृत का भोग प्राप्त कर रही हूं क्योंकि अपने ही किए का फल भोगना पड़ता है।

पुनर्जन्म की कई प्रत्यक्ष साक्षियाँ आए दिन प्राप्त होती रहती हैं।कोई न कोई बालक ऐसा उत्पन्न होता रहता है जो अपने पिछले जन्म की स्मृतियाँ साथ लाता है।ऐसे बालक भी देखने में आते हैं जो बिना सिखाए ही छोटी अवस्था में किसी कलाविशेष में निपुण पाये गये हैं।यथा-गायन, गणित, कविता इत्यादि।इनका समाधान पुनर्जन्म के अतिरिक्त और क्या है?

'पंजाब केसरी' में 29 जून, 2017 को प्रकाशित समाचार पुनर्जन्म का मुँह बोलता प्रमाण है। सत्य घटना यह है:-

" कालाँवाली २९ जून (महेश्वरी) । मृत्यु के पश्चात् फिर जन्म होता है, यह बात यहाँ उस समय सच साबित हुई जब कालाँवाली के चन्दसिंह नामक एक किसान की आठ साल पहले मृत लड़की सुखवीर कौर गत दिवस उसके घर पहुँच गयी।

लगभग आठ साल पहले चन्दसिंह की ढाई-वर्षीया पुत्री सुखवीर कौर की खसरा से मृत्यु हो गयी थी तथा वह उसे भूल गया था।

बताया जाता है कि उसी लड़की ने यहां से बीस किलोमीटर दूर पंजाब के फूलोखारी नामक ग्राम में ह्रदयसिंह नामक पिछड़े वर्ग के व्यक्ति के घर जन्म ले लिया। सर्वजीत नाम की इस लड़की की आयु आठ वर्ष है तथा वह चौथी कक्षा में रामामंड़ी में पढ़ती है। गत एक-दो महीनों से लड़की अपने वर्तमान माता-पिता से अक्सर यह कहने लगी कि वे मुझे उसके माँ-बाप के पास कालाँवाली ग्राम में ले चलें। जब उसे कालाँवाली लाया गया, वह अपने पूर्व-जन्म के घर में पहुँच गई और उसने पूर्व माँ-बाप को पहचान लिया। उसने अपने पूर्व-जन्म के भाई को दस-पन्द्रह अन्य बच्चों के बीच में से पहचान लिया।

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