Petlad taluka Pramukh - GKTVS

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1908 का साल… लक्ष्य था अंग्रेज़ अफ़सर किंग्सफोर्ड का खात्मा।दो नौजवान क्रांतिकारी — खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद्र चाकी —...
09/08/2025

1908 का साल… लक्ष्य था अंग्रेज़ अफ़सर किंग्सफोर्ड का खात्मा।
दो नौजवान क्रांतिकारी — खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चंद्र चाकी — मिशन पर निकले थे।

बम फेंका गया, गाड़ी ध्वस्त हो गई… लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। उसमें किंग्सफोर्ड नहीं, बल्कि दो अंग्रेज़ महिलाएं सवार थीं, जो मारी गईं।
हमले के बाद दोनों क्रांतिकारी अलग-अलग दिशाओं में निकल पड़े।

खुदीराम बोस को अंग्रेज़ों ने पकड़ लिया और फांसी पर चढ़ा दिया।
लेकिन प्रफुल्ल चंद्र चाकी… उनका अंत अलग था।
जब अंग्रेज़ सिपाहियों ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया,
तो उन्होंने बंदूक अपनी ही कनपटी पर रख दी और ट्रिगर दबा दिया —
क्योंकि गुलामी में जीना उन्हें मौत से भी बदतर लगता था।

“जो झुककर जिएं, उनसे महान वो हैं जो शान से मर जाएं।”

आज़ादी हमें यूं ही नहीं मिली —
किसी ने अपना सिर खुद उड़ा लिया,
ताकि आने वाली पीढ़ियां सिर ऊंचा करके जी सकें। 🇮🇳

“अरे बुढ़िया तू यहाँ न आया कर, तेरा बेटा तो चोर-डाकू था, इसलिए गोरों ने उसे मार दिया“ जंगल में लकड़ी बीन रही एक मैली सी धो...
23/07/2025

“अरे बुढ़िया तू यहाँ न आया कर, तेरा बेटा तो चोर-डाकू था, इसलिए गोरों ने उसे मार दिया“
जंगल में लकड़ी बीन रही एक मैली सी धोती में लिपटी बुजुर्ग महिला से वहां खड़े व्यक्ति ने हंसते हुए कहा
“नही चंदू ने आजादी के लिए कुर्बानी दी हैं“ बुजुर्ग औरत ने गर्व से कहा।

उस बुजुर्ग औरत का नाम था जगरानी देवी और इन्होने पांच बेटों को जन्म दिया था, जिसमें आखिरी बेटा कुछ दिन पहले ही आजादी के लिए बलिदान हुआ था। उस बेटे को ये माँ प्यार से चंदू कहती थी और दुनिया उसे आजाद ... जी हाँ ! चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानती है।

हिंदुस्तान आजाद हो चुका था, आजाद के मित्र सदाशिव राव एक दिन आजाद के माँ-पिता जी की खोज करते हुए उनके गाँव पहुंचे। आजादी तो मिल गयी थी लेकिन बहुत कुछ खत्म हो चुका था। चंद्रशेखर आज़ाद के बलिदान के कुछ वर्षों बाद उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी। आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी।

अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माता उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं। लेकिन वृद्ध होने के कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें। कभी ज्वार कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल चावल गेंहू और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमे शेष ही नहीं थी।

शर्मनाक बात तो यह कि उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद (1949 ) तक जारी रही।
चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे, क्योंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था। अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दासमाहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा की।

मार्च 1951 में जब आजाद की माँ जगरानी देवी का झांसी में निधन हुआ तब सदाशिव जी ने उनका सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था।

देश के लिए बलिदान देने वाले क्रांतिकारियों के परिवारों की ऐसी ही गाथा है।
"दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे.. आजाद थे.. आजाद है.. और आजाद ही रहेंगे।" ऐसे उद्गोष के साथ भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले मध्यप्रदेश के आलीराजपुर जिले में जन्मे अमर वलिदानी चंद्रशेखर आजाद की जननी और जन्मस्थली हम सभी के लिए श्रद्धा, आस्था और प्रेरणा का केंद्र है। यह भूमि हम सभी के लिए तीर्थ है।

महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की जयंती पर उनकी जननी और जन्मभूमि को कोटि कोटि नमन..🙏

क्या आप उस गद्दार इंसान का नाम जानते हो जिसने भारत माता के वीर सपूत चंद्रशेखर आजाद जी की अंग्रेजों के लिए मुखबरी करवाई थी ।

यदि आपको यह जानकारी पसन्द आयी है तो ऐसी ही पोस्ट के लिए आप हमारा चैनल फोलो करे।

https://whatsapp.com/channel/0029VaeR7mG6buMRNvq3SM0e

#चंद्रशेखर_आजाद_जयंती #तीर्थभूमि_आजादनगर

आजकल सोशल मीडिया पे कई लोग फ़ोटो डालते है कि हम वाघा बॉर्डर जाके आये तो बता दूं कि कम लोग जानते है कि वाघा बॉर्डर पाकिस्त...
21/07/2025

आजकल सोशल मीडिया पे कई लोग फ़ोटो डालते है कि हम वाघा बॉर्डर जाके आये तो बता दूं कि कम लोग जानते है कि वाघा बॉर्डर पाकिस्तानी साइड का नाम है और भारतीय साइड का नाम अटारी बॉर्डर है। आप वाघा नही अटारी बॉर्डर पे जाके आते हैं ।

इसके बावजूद भी हम उसे वाघा बॉर्डर नाम से ही बुलाते है क्योंकि पाकिस्तान प्रेमीयों व पाकिस्तान प्रेमी मीडिया वालों को हड्डी पाकिस्तान से जो मिलती है।

अटारी बॉर्डर का नाम सरदार शाम सिंह अटारी के नाम पर रखा गया था। श्याम सिंह अटारी महाराजा रंजीत सिंह के सेना प्रमुख थे जिन्होंने कायर मुग़लो को युद्ध मे कई बार धूल चटाई थी।

अटारी बॉर्डर को वाघा बॉर्डर नाम से बुलाना महान सरदार शाम सिंह अटारी का अपमान है। सम्भल जाओ ।

#वाघाबॉर्डर

इतिहास का एक ऐसा सच जिसे देशवासियों से छुपाया गया ..एक बार औरंगजेब के दरबार में एक शिकारी जंगल से एक बड़ा शेर पकड़कर लाय...
20/07/2025

इतिहास का एक ऐसा सच जिसे देशवासियों से छुपाया गया ..

एक बार औरंगजेब के दरबार में एक शिकारी जंगल से एक बड़ा शेर पकड़कर लाया।
लोहे के पिंजरे में बंद शेर बार-बार दहाड़ रहा था।
बादशाह का कहना था कि इससे बड़ा भयानक शेर दूसरा नहीं मिल सकता। दरबारियों ने बादशाह की हाँ में हाँ मिलायी, किन्तु वहाँ मौजूद राजा जसवंत सिंह जी ने कहा -
इससे भी अधिक शक्तिशाली शेर मेरे पास है। क्रूर एवं अधर्मी औरंगजेब को बड़ा क्रोध हुआ।
उसने कहा कि तुम अपने शेर को इससे लड़ने को छोडो,
यदि तुम्हारा शेर हार गया तो तुम्हारा सर काट लिया जायेगा।
दुसरे दिन किले के मैदान में दो शेरों का मुकाबला देखने के लिए बहुत बड़ी तादाद में भीड़ इकट्ठी हो गयी!औरंगजेब भी ठीक समय पर आकर अपने सिंहासन पर बैठ गया।
राजा जसवंत सिंह अपने दस वर्ष के पुत्र राजकुमार पृथ्वी सिंह के साथ आये।
उन्हें देखकर बादशाह ने पूछा--आपका शेर कहाँ है ?
जसवंत सिंह बोले- मैं अपना शेर अपने साथ लाया हूँ!आप केवल लडाई की आज्ञा दीजिये। बादशाह की आज्ञा से जंगली शेर को लोहे के बड़े पिंजड़े में छोड़ दिया गया। तत्पश्चात जसवंत सिंह ने अपने पुत्र को उस पिंजड़े में घुस जाने को कहा। यह सुनकर बादशाह एवं वहां के लोग हक्के-बक्के रह गए।
किन्तु दस वर्ष का निर्भीक बालक पृथ्वी सिंह पिता को प्रणाम करके हँसते- हँसते शेर के पिंजड़े में घुस गया।
शेर ने पृथ्वी सिंह की ओर देखा।
उस तेजस्वी बालक के नेत्रों में देखते ही एक बार तो वह पूंछ दबाकर पीछे हट गया.. लेकिन मुस्लिम सैनिकों द्वारा भाले की नोक से उकसाए जाने पर शेर क्रोध में दहाड़ मारकर पृथ्वी सिंह पर टूट पड़ा।
वार बचा कर वीर बालक एक ओर हटा और झट से अपनी तलवार खींच ली।
पुत्र को तलवार निकालते हुए देखकर जसवंत सिंह ने पुकारा -बेटा, तूं यह क्या कर रहा है ?
शेर के पास तलवार है क्या जो तूं उस पर तलवार चलाएगा ?
यह हमारे हिन्दू-धर्म की शिक्षाओं के विपरीत है और धर्मयुद्ध नहीं है ! पिता की बात सुनकर पृथ्वी सिंह ने तलवार फेंक दी और निहत्था ही शेर पर टूट पड़ा। अंतहीन से दिखनेवाले एक लम्बे संघर्ष के बाद आख़िरकार उस छोटे से बालक ने शेरका जबड़ा पकड़कर फाड़ दिया और फिर पूरे शरीर को चीर दो टुकड़े कर फेंक दिया।
भीड़ उस वीर बालक पृथ्वी सिंहकी जय- जयकार करने लगी। अपने और शेर के खून से लथपथ पृथ्वी सिंह जब पिंजड़े से बाहर निकला तो पिता ने दौड़कर अपने पुत्र को छाती से लगा लिया।
तो ऐसे थे हमारे पूर्वजों के कारनामे।
जिनके मुख-मंडल वीरता के ओज़ से ओतप्रोत रहते थे ! और आज हम क्या बना रहे हैं अपनी संतानों को..
सारेगामा लिट्ल चैंप्स के नचनिये.. ???
आज समय फिर से मुड़ कर इतिहास के उसी औरंगजेबी काल की ओर ताक रहा है.. हमें चेतावनी देता हुआ सा.. कि ज़रुरत है कि हिन्दू अपने बच्चों को फिर से वही हिन्दू संस्कार दें..ताकि वक्त पड़ने पर वो शेर से भी भिड़ जायें.. !

जय श्रीराम 🙏🏻🙏🏻🚩
जय भवानी 🙏🏻🙏🏻🚩

हॉलीवुड की फिल्मों में रूसी विलेन होते हैं और अमेरिकी हीरो!चाइना की फिल्मों में अमेरिकी और जापानी विलेन होते हैं और चाइन...
16/07/2025

हॉलीवुड की फिल्मों में रूसी विलेन होते हैं और अमेरिकी हीरो!

चाइना की फिल्मों में अमेरिकी और जापानी विलेन होते हैं और चाइनीज हीरो!

पाकिस्तानी लॉलीवुड की फिल्मों में भारतीय या इजरायली विलेन होते हैं और पाकिस्तानी हीरो!

भारतीय बॉलीवुड: हिंदू विलेन होते हैं,मुस्लिम हीरो हैं।

भारत के हिंदू ही हिंदुओं को बदनाम करने के लिए अरबों रुपए के टिकट लेकर फिल्में देखकर खुश होते हैं!.. क्योंकि हिंदू होते ही बेवक़ूफ़ हैं और इसके लिए किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकते

*કોઈ ચડાવે તેલ કોઈ ચડાવે સિંદુર લોડણ ચડાવે લોઈ તારી ખાંભી માથે ખેમરા*ચિત્રકાર નાનજી એસ રાઠોડ અંજાર  ના તમામ સ્નેહી જનો ન...
16/07/2025

*કોઈ ચડાવે તેલ કોઈ ચડાવે સિંદુર લોડણ ચડાવે લોઈ તારી ખાંભી માથે ખેમરા*

ચિત્રકાર નાનજી એસ રાઠોડ અંજાર ના તમામ સ્નેહી જનો ને હ્રદય થી નમસ્કાર મિત્રો આપની પાસે અમર પ્રેમ બલિદાનની ગાથા અને ચિત્ર રજૂ કરૂં છું અને અમર પ્રેમ નું ચિત્ર સાથે ઈતિહાસ વાંચીને આનંદ થશે

ખીમરા અને લોડણના પવિત્ર પ્રેમના બલિદાનની ગાથા

આ એ ગાળા ની વાત છે જયારે ઘૂમલી ભંગાણુ અને જેઠવા કૂળ અલગ પડયું ….એમા થી રાવલીયા સોરઠિયા આહીર કહેવાણા….એનો એક કૂળ દિપક એટલે ખેમરો…..કેહવાય છે કે સુયૉવદર ( તા.કલ્યાણપુર જિ.દ્વારકા ) એનુ ગામ ત્યા થી એના ઘોડા ના ડાબલા પડે એટલી સીમાડ માં કોઈ અત્યાચારી ડાકુ લૂટારો કે બહારવટિયો પોતાની બદ ઈરાદા ની પ્રવૃત્તિ કરી ન શકતો એવી એની બહાદુરી પંથક માં વખણાતિ.

સુયૉવદર થી સેંકડો ગાઉ દૂર ખંભાત…. આ ખંભાત ની એક ખમતીધર પેઢી એટલે જેરામ મેતા ( અમુક એને વાણીયા કયે અમુક બ્રાહ્મણ પણ મને દિલ થીલાગે છે કે ઈ આહીર જ હશે અને કદાચ તમને પણ લાગશે )….

જેરામ આતા ના સંસ્કારી ખોરડે ઊગી ને ઉછરેલ આઈ લોડણ ….આઈમાં જેરામ મેતા ના આંગણે ખિલખિલાટ કરે. છે……જેરામ મેતા ના વહાણ અનેક દેશ માં હાલતા એવી જાહોજલાલી પણ સંસ્કાર અને સત્સંગ નો પયૉય એટલે જેરામ મેતા

એક દિવસ સાધુ ની જમાત આંગણે આવી રાતવાસો કર્યો…. રાત્રે દાયરો સત્સંગ કિર્તન કરવા બેઠો ….અને સાધુ એ મીરાં બાઈ અને ક્રૃષ્ણ ના અમર પ્રેમ ની વાત માંડી…..બધા તો જાણે વાતૉ સાંભળતા હોઈ એમ પણ જાણે અંતર માંથી જ કંઈક અલગ અવાજ આવતો હોઈ એમ તરૂણ વય ના આઈ માં લોડણ આ વાત ને તન્મયતા થી સાંભળે છે…

અંતે જિજ્ઞાસાવશ આઈ માં લોડણ પેલા સાધુ ને પુછે છે કે મારે મીરાંબાઈ જેમ કૃષ્ણ ને પામવા હોય તો ???

આ સવાલ બાળસહજ સમજી અને વાત ટાળવા માટે કે આ તો બાળક છે કાલ ભૂલી જશે એમ માની અને સાધુ મહાત્મા કહે
” બેટા એના માટે તો તારે આકરૂ તપ કરવૂ પડે….આજીવન બ્રમચયૅ નુ પાલન કરવુ પડે….આજ થી પુખ્ત વય ની થા ત્યા સુધી પરપુરૂસ નુ મોઢું સુધ્ધા ન જો અને પુખ્ત વયે પહેલુ મુખ દ્વારકાધીશ નુ જો તો જ ક્રૃષ્ણ તને સ્વિકારે ”…..

બાળસહજ બુદ્ધી મા આઈ લોડણ આવુ આકરૂ નીમ લ્યે છે અને વષૉ સુધી એનુ કઠોર પાલન કરે છે પોતાના બાપ જેરામ આતા અને ભાઈ ( જેનુ નામ પણ ખેમરો જ હોવાનુ મનાય છે ). સિવાય કોઈ પુરુષ નુ મૂખ જોતાં નથી અને ક્રૃષ્ણભક્તિ માં લીન રહે છે

વષૉ ના વહાણા વિતે છે અને આઈ માં ની વય પૂખ્તતા ના ઉંબરા ને અડકવા માં છે….ખંભાત થી જબરો સંઘ લઇ અને આઈ લોડણ દ્વારકા ની યાત્રા એ નિકળે છે

હાલતા હાલતા સંઘ રાવલ (સુયૉવદર ની નજીક હાલ નુ રાવલ તા.કલ્યાણ પૂર જિ. દ્વારકા ) નજીક પહોંચે છે અને સાથે પહોંચે છે સંઘ નુ કેટલાય ગાઉ થી પગેરૂ દબાવતા બહારવટીયા…..સાંજ ના સમયે સંઘ પર લૂંટ ના ઈરાદે હિચકારો હુમલો થાય છે….પણ ડાડો ખેમરો ત્યાં સાની નદી ના કાંઠે પોતાના ખેતર માં પાણી વારતો હોય છે ….દૈવી અવતાર સમાન ડાડો ખેમરો સંઘ ની વહારે દોડી જાઈ છે અને જીવ સટોસટ ની લડાઈ કરી બહાર વટિયાઓ ને ભગાવે છે…..સાંજ પડી ગઇ હોય સંઘ રાતવાસો કરવા ત્યાં રોકાઈ છે

આ ઉત્તમ બ્રમચયૅ તપ ધરાવતી આઈ ની વાત સાંભળી અને ગામની બેન દીકરી ઓ અને માવડીયુ સાંજે ત્યા દશૅને જાય છે પણ પૂવૅભવ ની પ્રિત જાણે બોલાવતી હોય એમ જતિ નો અવતાર ડાડો ખેમરો પણ ત્યાં દશૅન ની હઠ લ્યે છે

મારે ઇ ભગતાણી ને જોવી છે

પણ કોઈ ના તપ થોડા ભંગાઈ….ઠાકર કોઈ દી માફ ના કરે મારા લાડકા દેર….

પણ વ્રત તો એણે કોઈ પરપુરૂશ નુ મોઢું ન જોવાનું લીધુ છે કોઈ ને મોઢું ન જોવા દેવા નુ થોડું નીમ છે….હુ છેટો ઉભી ને જોઈ લઇશ અંને એને ખબર ય નંઈ પડે

આખરે હઠે ભરાઈ ને ખેમરો ભોજાઈ (ભાભી) ના કપડાં પેરી સ્ત્રી વેશે સાથે જાય છે…

આ બાજુ આઈ લોડણ સહુ શ્રધ્ધાળુ સાથે સત્સંગ કરતા બેઠા છે ….અને ત્યા એ બાજુ ડાડા ખેમરા બીજી સ્ત્રી ઓ સાથે ઈ બાજુ આવે છે ……હવે બીના એવી બને છે કે જાણે આ જન્મોજનમ ની પ્રેમકથા હોઈ અને ખુદ જગતનિયંતા જ બેય ના મીલન કરાવતો હોય….ટૂંક માં ચાલી ને આવતા ખેમરાડાડા અને સ્ત્રીઓ ને પાણી નુ એક નાનુ વહેળુ પસાર કરવાનુ થાય છે જે પુરુષ સહજ સ્વભાવે ખેમરો ટપી (ઓળંગી) જાય છે જ્યારે અન્ય સ્ત્રી ઓ એમાં પગ બોળી ને ચાલે છે…..આ દ્રશ્ય આઈ માં નિહાળે છે અને પગ થી પુરૂષ પરખાઈ જવા છતા ઈશ્વર કૃત જિજ્ઞાસા થી ખેમરા નુ મોઢું આઈ માં જોઈ લ્યે છે…..

આઈમાં ના નીમ નો ભંગ થાય છે પણ તપસ્વિ સમાન માતાજી એને ઈશ્વર ની મરજી સમજી ખેમરા ને પ્રભુપ્રસાદી તરીકે સ્વિકાર કરે છે અને સાથે જીવવા મરવા ના એકબીજા ને કોલ દયે છે….

”ખેમરા દ્વારકા વારા ની જાત્રા પુરી કરી અને પછી જ ચોરી ના ફેરા ફરશુ….”

ઠીક ત્યારે ઠાકર કરે ઇ ઠીક..

ડાડો ખેમરો આઈ માં ને જાત્રા પુરી કરવા ની રજા આપે છે પણ પ્રેમ ની અમર ગાંઠ એને અકળાવે છે….આખરે સંઘ જાત્રા પૂરી કરવા દ્વારકા ના માગૅ હાલતો થાય છે….

આ બાજુ વષૉ નુ વેર સંઘરી ને બેઠેલ બહારવટીયાઓ રાત ના અંધકાર માં નિંદ્રાધીન ખેમરા ઉપર ખૂની હૂમલો કરી એને કરપીણ હત્યા કરે છે

પેલી બાજુ દ્વારકા ના દરિયા કિનારે પવિત્ર ગોમતીજી માં સ્નાન કરી ૫૬ પગઠીયા ની સીડી ચડી અને રાજાધિરાજ ની મંગળા આરતી ના દશૅન કરી રહેલ લોડણ ને આ દૃશ્ય ત્યા સ્વપ્ન સ્વરૂપે દેખાય છે અમંગળ ભાસતા આઈ મનોમન પ્રાથૅના કરે છે

દ્વારકા ના દેવળમા સમણુ દીઠુ એક
સાચુ હોજો સગા વીર નુ પણ ખોટુ ઈ ખેમરા નુ…

ઉતાવળે પગલે સંઘ પાછો આવે છે પણ....

જાણે ધરતી વાંઝણી થઇ ગઇ હોય એમ નૂર ગુમાવી બેઠી છે….ઝાડવા જાણે હમણા લોડણ એની પાસે એના ખેમરા નો જવાબ માંગશે એમ ઝંખવાણા પડી ગ્યા છે…..પણ મનેખ ? જાણે કુદરત નો કોઈ જઘન્ય અપરાધ કરી બેઠા હોય ….જેની સજા કલ્પી ન શકાય …..

મારગ કાંઠે મસાણ, ઉઝરડા આયર તણુ, ઉતારું આરસ પાણ મુરત બનાવું તારી ખીમરા.

દ્રારકા ના મારગ ના કાંઠે મસાણ નિર્દોષ આયર ખીમરા ની ખાંભી માંટે આરસ પાણ (મારબલ)મંગાવો સંથારો તેડાવુ સલાત ખાંભી ખોડાવું તારી ખીમરા, વેરીએ આપણને વીખુટા પાડ્યા પણ્ તારી ખાંભી એ લોઈ ચડાવીને ભવે ભવ ભેગા રહેશું ખીમરા
છેવટે ….હિમાલય નુ કાળજુ ફાડી નાખે કરૂણ રૂદન કરતાં કરતાં આઈ લોડણ ખેમરા ની ખાંભી પાસે આવે છે….. સારસ થી વિખૂટી પડેલી સારસી જેમ ઝુરી ઝુરી ને એના પ્રાણ ત્યાગે એમ આઈ માં લોડણ ખેમરાડાડા ની ખાંભી માથે પોતાનુ માથું પછાડી પછાડી ને પ્રાણ ત્યાગે છે….

કોઇ ચડાવે સીંદૂર, કોઈ ચડાવે તેલ
પણ લોડણ ચડાવે લોઈ, તારી ખાંભી માથે ખેમરા……

હાલ રાવલ ( તા. કલ્યાણ પુર જિ. દ્વારકા ) ના પાદર માં ખેમરા લોડણ ની ખાંભી આવેલી છે જયાં હાલ મંદિર પણ નિમૉણ પામેલ છે સાથે કુળદેવી માં વિંધ્યવાસીની બિરાજમાન છે….થોડે જ દુર સુયૉવદર ની સીમ મા ડાડા ની રણ ખાંભી પણ છે…દર વષૅ રાવલીયા (આહીર) કુટુંબ ત્યા ભેગુ થઈ હવન કરે છે.અને ડાડા ને પૂજે છે….પણ હજી આ ઈતિહાસ અનેક રહસ્યો સાચવી ને બેઠો છે આઈ માં લોડણ અને ડાડા ખેમરા ને પ્રાથૅના દયા કરે…જેથી આવનારી પેઢી ઉજળા ઈતિહાસ ની અસ્મિતા જાણે તથા ઉજળા વારસા થી માહિતગાર થાય….

ચિત્રકાર નાનજી એસ રાઠોડ અંજાર કચ્છ ને માહિતી મારા પરમ મિત્ર શ્રી વિરમદેવસિંહ પઢેરીયા (ધોલેરા)દ્રારા *સંત શુરા અને સતી* પેજ તરફથી મળેલ છે

गांधी मुस्लिम समुदाय के समर्थक क्यों थे?(प्रो. के एस नारायणाचार्य ने अपने पुस्तक में कुछ संकेत दिए हैं ...)यह वात सभी जा...
16/07/2025

गांधी मुस्लिम समुदाय के समर्थक क्यों थे?
(प्रो. के एस नारायणाचार्य ने अपने पुस्तक में कुछ संकेत दिए हैं ...)

यह वात सभी जानते हैं कि - नेहरू और इंदिरा मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखते थे। लेकिन बहुत कम ही लोग गांधीजी की जातिगत जड़ों को जानते हैं...!! आइए यहां एक नजर डालते हैं कि वे क्या कारण देते हैं...!?

1. मोहनदास गांधी करमचंद गांधी की चौथी पत्नी पुतलीबाई के पुत्र थे।

पुतलीबाई मूल रूप से प्रणामी संप्रदाय की थीं । यह प्रणामी संप्रदाय हिंदू भेष में एक इस्लामिक संगठन है...।

2. मि. घोष की पुस्तक "द कुरान एंड द काफिर" में भी गांधी की उत्पत्ति का उल्लेख है...।

मोहनदास गांधी जी के पिता करमचंद एक मुस्लिम जमींदार के अधीन काम करते थे । एक बार उसने अपने जमींदार के घर से पैसे चुराए और भाग गया । फिर मुस्लिम जमींदार करमचंद की चौथी पत्नी पुतलीबाई को अपने घर ले गया और उसे अपनी पत्नी बना लिया । मोहनदास के जन्म के समय करमचंद गान्धी तीन साल तक छिपे रहे..।

3. गांधीजी का जन्म और पालन- पोषण गुजराती मुसलमानों के बीच में ही हुआ था।
4.

4. कॉलेज (लंदन लॉ कॉलेज) तक की उनकी स्कूली शिक्षा का सारा खर्च उनके मुस्लिम पिता ने ही उठाया !!

5. दक्षिण अफ्रीका में गांधी की कानूनी प्रक्टिस ओर वकालत करवाने वाले भी मुसलमान थे !!

6. लंदन में गांधी अंजुमन-ए- इस्लामिया संस्थान के भागीदार थे...।

इसलिए, यह नोट करना आश्चर्यजनक नहीं है कि गांधीजी का झुकाव मुस्लिम समर्थक क्यू था...!?
उन गान्धी का आखिरी स्टैंड था:

"भले ही हिंदुओं को मुसलमानों द्वारा मार दिया जाए, हिंदु चुप रहें उनसे नाराज न हों।

हमें मौत से नहीं डरना चाहिए।

आइए हम एक वीर मौत मरें।"

इसका क्या मतलब है?

स्वतंत्रता संग्राम के किसी भी चरण में गांधीजी ने हिंदुत्ववादी रुख नहीं अपनाया । वह मुसलमानों के पक्ष में ही बारंबार बोलते रहे।

जब भगत सिंह और अन्य देशभक्तों को फाँसी दी गई तो गांधीजी ने उन्हें फांसी न देने की याचिका पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया ।

हमें ध्यान देना चाहिए कि ऐनी बेसेंट ने खुद इसकी निंदा की थी...

मोहन दास गांधी के अंडरस्टैंड ::

1. स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद का बचाव किया...

2. तुर्की में मुस्लिम खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया था । जिससे डा. हेगड़ेवार ने गांधी से नाता तोड़ लिया और आर.एस.एस. की स्थापना की..!

3. सरदार वल्लभभाई पटेल के पास पूर्ण बहुमत होने पर भी गांधी ने एक कट्टर मुस्लिम जवाहरलाल खान नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया..!!

उपरोक्त कथन सत्य पर आधारित है, कृपया इसे मिथ्या न समझें । आवश्यक हुई तो उक्त ग्रंथ :

"द कुरान एंड द काफिर" को आप किसी लाइब्रेरी में जाकर अध्ययन कर सकते हैं...॥_

🚩 जय हिंद, जय भारत 🚩

तत्कालीन 40 करोड़ भारतवासियों को बेवकूफ बनाकर उस मुस्लिम के नाम के पीछे पंडित का तमगा लगाया , ताकि मूर्ख अज्ञानी हिंदुओं को पागल बनाया जा सके...!!

4. पाकिस्तान विभाजित को 55 करोड़ रुपए देने के लिए अनशन भी किया..!!

5. हमेशा मुसलमानों का तुष्टीकरण किया ओर हिंदुओं का अपमान किया...॥

हिन्दुओं को भारत में छोटे दर्जे का नागरिक माना...!! जो आज भी उसके गांधीवादी राजनीतिज्ञों द्वारा जारी रखा जा रहा है...!!

(संकलित) साभार 😗

🙏 वंदे भारतम् 🇮🇳

क्रांतिकारी नेता तात्या टोपे को राजपूताने में कहीं भी सहायता नहीं मिल रही थी, तब मेवाड़ के कोठारिया ठिकाने के सामंत रावत ...
12/07/2025

क्रांतिकारी नेता तात्या टोपे को राजपूताने में कहीं भी सहायता नहीं मिल रही थी, तब मेवाड़ के कोठारिया ठिकाने के सामंत रावत जोधसिंह जी चौहान ने तात्या टोपे व उनके सैनिकों को रकमगढ़ का किला सौंप दिया।

23 अगस्त, 1858 ई. को जनरल रॉबर्ट्स के द्वारा भेजी गई फौज ने रकमगढ़ को घेर लिया, लेकिन रावत जोधसिंह चौहान ने इससे पहले ही फौजी मदद देकर तात्या टोपे को वहां से सुरक्षित निकाल लिया।

(फोटो राजसमन्द जिले में स्थित रकमगढ़ दुर्ग का है)

**तात्या टोपे: 1857 की क्रांति का नायाब योद्धा! 🗡️🔥**तात्या टोपे, जिनका पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग टोपे था, 1857 के प्रथ...
12/07/2025

**तात्या टोपे: 1857 की क्रांति का नायाब योद्धा! 🗡️🔥**
तात्या टोपे, जिनका पूरा नाम रामचंद्र पांडुरंग टोपे था, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के सबसे प्रखर और वीर सेनानायकों में से एक थे! 🇮🇳 1814 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के येवला में एक मराठा ब्राह्मण परिवार में जन्मे तात्या, नाना साहेब पेशवा के घनिष्ठ मित्र और विश्वस्त सहयोगी थे। "टोपे" का अर्थ तोप या सेनापति होता है, जो उनकी रणनीतिक कुशलता को दर्शाता है।

1857 के विद्रोह में तात्या ने कानपुर में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का नेतृत्व किया और नाना साहेब को पेशवा घोषित करवाया। 🏰 उनकी गुरिल्ला युद्ध रणनीति ने अंग्रेजों को खूब छकाया। उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर ग्वालियर पर कब्जा किया और "हिंदवी स्वराज" की घोषणा की। बिना औपचारिक सैन्य प्रशिक्षण के भी, तात्या ने अपनी चतुराई और साहस से 150 से अधिक युद्ध लड़े और 10,000 अंग्रेज सैनिकों को परास्त किया।

हालांकि, 1859 में नरवर के राजा मान सिंह के विश्वासघात के कारण उन्हें अंग्रेजों ने पकड़ लिया और 18 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में फाँसी दे दी गई। तात्या की शहादत ने स्वतंत्रता की ज्वाला को और भड़काया। 💪 उनकी वीरता और बलिदान की गाथा आज भी हर भारतीय को प्रेरित करती है।

तात्या टोपे की कौन सी कहानी आपको सबसे ज्यादा प्रेरित करती है? कमेंट में बताएँ और इस पोस्ट को शेयर कर इस महान क्रांतिकारी को नमन करें! 🙏

4  जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज की कमान नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सौंपी....आज़ाद हिन्द फौज का गठन पहली ब...
04/07/2025

4 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने आजाद हिन्द फौज की कमान नेताजी सुभाषचंद्र बोस को सौंपी....
आज़ाद हिन्द फौज का गठन पहली बार 1942 में हुआ था। मूल रूप से उस वक्त यह आजाद हिन्द सरकार की सेना थी, जिसका लक्ष्य अंग्रेजों से लड़कर भारत को स्वतंत्रता दिलाना था। जब दक्षिण-पूर्वी एशिया में जापान के सहयोग द्वारा नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने करीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू किया और उसे भी आजाद हिन्द फौज नाम दिया तो उन्हें आज़ाद हिन्द फौज का सर्वोच्च कमाण्डर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी गई।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सन 1942 में जापान की सहायता से टोकियो में भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिये आजाद हिन्द फौज या इण्डियन नेशनल आर्मी (INA) नामक सशस्त्र सेना का संगठन किया। इस सेना के गठन में कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए इण्डियन इण्डिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकाक में हुआ।

आरम्भ में इस फौज़ में जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये भारतीय सैनिकों को लिया गया था। बाद में इसमें बर्मा और मलाया में स्थित भारतीय स्वयंसेवक भी भर्ती हो गये। आरंभ में इस सेना में लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया पर इसके बाद ही जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। आज़ाद हिन्द फौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ होता है, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में इंडियन लीग की स्थापना की, किन्तु जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब उनके सामने कठिनाई उत्पन्न हो गई और उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।
एक वर्ष बाद सुभाष चन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे और पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे। हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा। इससे प्रफुल्लित होकर रासबिहारी बोस ने 4 जुलाई 1943 को 46 वर्षीय सुभाष को आजाद हिन्द फौज का नेतृत्व सौंप दिया।
5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द फौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुययी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे।
अपने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम जारी एक प्रसारण में अपनी स्थिति स्पष्ठ की और आज़ाद हिन्द फौज द्वारा लड़ी जा रही इस निर्णायक लड़ाई की जीत के लिये उनकी शुभकामनाएँ माँगीं:-मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गांधी जी के लिए प्रथम बार राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया था। इसके अतिरिक्त सुभाष चन्द्र बोस ने फ़ौज के कई बिग्रेड बना कर उन्हें नाम दिये:- महात्मा गाँधी ब्रिगेड, अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड, जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड तथा सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे।

21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ।

22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा -

हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।
फ़रवरी से लेकर जून 1944 ई. के मध्य तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा किन्तु दुर्भाग्यवश द्वितीय विश्व युद्ध का पासा पलट गया। जर्मनी ने हार मान ली और जापान को भी घुटने टेकने पड़े। ऐसे में नेताजी को टोकियो की ओर पलायन करना पड़ा और कहते हैं कि हवाई दुर्घटना में उनका निधन हो गया किन्तु इस बात की पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत आज भी एक रहस्य है।आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया और उनका सैनिक अभियान असफल हो गया, किन्तु इस असफलता में भी उनकी जीत छिपी थी। आज़ाद हिन्द फ़ौज के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल क़िला में नवम्बर, 1945 ई. को झूठा मुकदमा चलाया और फौज के मुख्य सेनानी कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी लेकिन फिर भी इन तीनों की फाँसी की सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, आम जनमानस भड़क उठे और और अपने दिल में जल रहे मशालों को हाथों में थाम कर उन्होंने इसका विरोध किया, नारे लगाये गये- लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो। विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ करा दिया।

निस्सन्देह सुभाष उग्र राष्ट्रवादी थे। उनके मन में फासीवाद के अधिनायकों के सबल तरीकों के प्रति भावनात्मक झुकाव भी था और वे भारत को शीघ्रातिशीघ्र स्वतन्त्रता दिलाने हेतु हिंसात्मक उपायों में आस्था भी रखते थे। इसीलिये उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया था।

यद्यपि आज़ाद हिन्द फौज के सेनानियों की संख्या के बारे में थोड़े बहुत मतभेद रहे हैं परन्तु ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि इस सेना में लगभग चालीस हजार सेनानी थे। इस संख्या का अनुमोदन ब्रिटिश गुप्तचर रहे कर्नल जीडी एण्डरसन ने भी किया है।

जब जापानियों ने सिंगापुर पर कब्जा किया था तो लगभग 45 हजार भारतीय सेनानियों को पकड़ा गया था।

इतिहास के पन्नों में कहाँ हैं ये नाम?सेठ रामदास जी गुड़वाले - 1857 के महान क्रांतिकारी, दानवीर जिन्हें फांसी पर चढ़ाने स...
02/07/2025

इतिहास के पन्नों में कहाँ हैं ये नाम?

सेठ रामदास जी गुड़वाले - 1857 के महान क्रांतिकारी, दानवीर जिन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले अंग्रेजों ने उनपर शिकारी कुत्ते छोड़े जिन्होंने जीवित ही उनके शरीर को नोच खाया।

सेठ रामदास जी गुडवाला दिल्ली के अरबपति सेठ और बेंकर थे. इनका जन्म दिल्ली में एक अग्रवाल परिवार में हुआ था. इनके परिवार ने दिल्ली में पहली कपड़े की मिल की स्थापना की थी।

उनकी अमीरी की एक कहावत थी “रामदास जी गुड़वाले के पास इतना सोना चांदी जवाहरात है की उनकी दीवारो से वो गंगा जी का पानी भी रोक सकते है”

जब 1857 में मेरठ से आरम्भ होकर क्रांति की चिंगारी जब दिल्ली पहुँची तो

दिल्ली से अंग्रेजों की हार के बाद अनेक रियासतों की भारतीय सेनाओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया। उनके भोजन और वेतन की समस्या पैदा हो गई । रामजीदास गुड़वाले बादशाह के गहरे मित्र थे ।

रामदास जी को बादशाह की यह अवस्था देखी नहीं गई। उन्होंने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति बादशाह के हवाले कर दी और कह दिया

"मातृभूमि की रक्षा होगी तो धन फिर कमा लिया जायेगा "

रामजीदास ने केवल धन ही नहीं दिया, सैनिकों को सत्तू, आटा, अनाज बैलों, ऊँटों व घोड़ों के लिए चारे की व्यवस्था तक की।

सेठ जी जिन्होंने अभी तक केवल व्यापार ही किया था, सेना व खुफिया विभाग के संघठन का कार्य भी प्रारंभ कर दिया उनकी संघठन की शक्ति को देखकर अंग्रेज़ सेनापति भी हैरान हो गए ।
सारे उत्तर भारत में उन्होंने जासूसों का जाल बिछा दिया, अनेक सैनिक छावनियों से गुप्त संपर्क किया।

उन्होंने भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली सेना व गुप्तचर संघठन का निर्माण किया। देश के कोने कोने में गुप्तचर भेजे व छोटे से छोटे मनसबदार और राजाओं से प्रार्थना की इस संकट काल में सभी सँगठित हो और देश को स्वतंत्र करवाएं।

रामदास जी की इस प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधयिओं से अंग्रेज़ शासन व अधिकारी बहुत परेशान होने लगे

कुछ कारणों से दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः कब्जा होने लगा । एक दिन उन्होंने चाँदनी चौक की दुकानों के आगे जगह-जगह जहर मिश्रित शराब की बोतलों की पेटियाँ रखवा दीं, अंग्रेज सेना उनसे प्यास बुझाती और वही लेट जाती । अंग्रेजों को समझ आ गया की भारत पे शासन करना है तो रामदास जी का अंत बहुत ज़रूरी है

सेठ रामदास जी गुड़वाले को धोखे से पकड़ा गया और जिस तरह से मारा गया वो क्रूरता की मिसाल है।

पहले उन्हें रस्सियों से खम्बे में बाँधा गया फिर उन पर शिकारी कुत्ते छुड़वाए गए उसके बाद उन्हें उसी अधमरी अवस्था में दिल्ली के चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार ताराचंद ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट' में लिखा है -

"सेठ रामदास गुड़वाला उत्तर भारत के सबसे धनी सेठ थे।अंग्रेजों के विचार से उनके पास असंख्य मोती, हीरे व जवाहरात व अकूत संपत्ति थी।

सेठ रामदास जैसे अनेकों क्रांतिकारी इतिहास के पन्नों से गुम हो गए क्या सेठ रामदास जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान का ऋण हम चुका पाये?

तुम न समझो देश को आज़ादी यूं ही मिली है।
हर कली इस बाग की,कुछ खून पी कर ही खिली है।
मिट गये वतन के वास्ते,दीवारों में जो गड़े हैं।
महल अपनी आज़ादी के,शहीदों की छातियों पर ही खड़े हैं।।

*परमवीर चक्र को डिज़ाइन करने वाली सावित्री खनोलकर का असल नाम ईव यवन्नी मड़ाय मोडास था। जो एक स्विस नागरिक थीं। उन्होंने ...
29/06/2025

*परमवीर चक्र को डिज़ाइन करने वाली सावित्री खनोलकर का असल नाम ईव यवन्नी मड़ाय मोडास था। जो एक स्विस नागरिक थीं। उन्होंने भारत फ़ौज के एक बड़े अफ़सर मेजर जनरल विक्रम रामजी खनोलकर से शादी की। और फिर भारत में ही रहने लगी। इसी दौरान उन्हें भारतीय सेना परमवीर चक्र डिज़ाइन करने का मौक़ा दिया गया, और उन्होंने डिज़ाइन किया।*

*ज्ञात रहे के भारत में पहला परमवीर चक्र मेजर सोमनाथ शर्मा को मिला, जो इसी परिवार से ताल्लुक़ रखते थे।*

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