21/12/2025
श्री व्यंकटेश स्तोत्र का डॉ. प्रवीण कुलकर्णी द्वारा हिंदी अनुवाद
यहाँ 'श्री देवीदास' द्वारा रचित 'श्री व्यंकटेश स्तोत्र' का भावार्थ और अनुवाद प्रस्तुत है। यह स्तोत्र भगवान विष्णु (व्यंकटेश) की स्तुति, अपने पापों की क्षमा और मनोकामना पूर्ति के लिए अत्यंत प्रभावशाली माना है। इसे रोज रात्री 12 बजे स्नान कर घर के भगवान सम्मुख बैठ कर लगातार 42 दिन पढे।
।। श्री व्यंकटेश स्तोत्र ।।
श्री गणेशाय नम: । श्री व्यंकटशाय नम: ।
१. ॐ नमो जी हेरंबा (गणपति)। आप सभी के आदि और प्रारंभ हैं। आपकी सुंदर छवि का स्मरण करते हुए मैं भावपूर्वक वंदन करता हूँ।
२. हे हंसवाहिनी, वरदायिनी, विलासिनी सरस्वती माता, आपको मेरा नमन है। यह ग्रंथ कहने (लिखने) के लिए मुझे बुद्धि दें, जो भावार्थ की खान है।
३. हे प्रकाशस्वरूप गुरुवर स्वामी, आपको मेरा नमन है। ग्रंथ कहने के लिए मुझे स्फूर्ति (प्रेरणा) दें, जिससे सुनने वालों को सुख मिले।
४. मेरा नमन सभी संत-सज्जनों, योगियों, मुनियों और सभी श्रोतागणों को है। आप सभी को मेरा साष्टांग प्रणाम है।
५. यह ग्रंथ 'प्रार्थना शतक' (सौ प्रार्थनाएं) सुनिए, जो महादोषों को जलाने वाला है। इससे वैकुंठनायक (भगवान विष्णु) प्रसन्न होकर सभी मनोरथ पूर्ण करेंगे।
६. हे व्यंकटरमणा, आपकी जय हो! हे दयासागर, परिपूर्ण, परंज्योति और प्रकाश के भंडार, मैं प्रार्थना करता हूँ, कृपया सुनें।
७. आपने मुझे माता की तरह पाला, पिता की तरह संभाला। सभी संकटों से रक्षा की और मुझे पूर्ण प्रेम-सुख दिया।
८. इसे अलौकिक माना जाए, तो यह सारा जगत आपने ही रचा है। माता-पिता का भाव आपके स्वभाव में ही सहज रूप से है।
९. हे दीननाथ! प्रेम के कारण आपने संकट में भक्तों की रक्षा की। भक्तों के भजन के लिए आपने प्रेम की अपूर्व लीलाएं रचीं।
१०. हे कृपालु लक्ष्मीरमण! अब मेरी विनती सुनें। मुझे गर्भ में डालकर आपने शरीर की अलौकिक रचना दिखाई।
११. आपको न जानने के कारण मैं दुखी हुआ। अब मैंने आपके चरणों को कसकर पकड़ लिया है। हे जगत के स्वामी! हे कृपालु! मेरे अपराधों को अपने पेट में डाल लें (क्षमा करें)।
१२. मेरे अपराधों का ढेर गगन (आकाश) को भेदकर ऊपर चला गया है। हे दयावान हृषीकेश! अपने नाम (ब्रीद) की लाज रखते हुए मुझे अपनाएं।
१३. पुत्र के हजारों अपराधों का माता खेद (बुरा) नहीं मानती। वैसे ही हे गोविंद! आप कृपालु हैं और मेरे माता-पिता हैं।
१४. उड़द की दाल में काले और गोरे दाने क्या छांटना? (अर्थात हम सभी जीव आपके ही हैं)। कड़वे पेड़ों (कुचला) के फल मीठे कहाँ से होंगे?
१५. हे कृपावंता! कांटेदार झाड़ी (अराटी) में कोमलता कहाँ से आएगी? पत्थर पर फूल और लताएं कैसे फूटेंगी? (भाव: मैं पापी हूँ, आप ही उद्धार करें)।
१६. मैं सिर से पैर तक अन्यायी हूँ, लेकिन अब आपकी शरण में (पल्ले) पड़ा हूँ। अब नाना प्रकार के उपायों से मेरी रक्षा करना आपको ही उचित है।
१७. समर्थ (अमीर) के घर के कुत्ते को भी सब मान देते हैं। मैं तो आपका 'दीन' कहलाता हूँ, फिर यह अपमान किसका है? (मेरा नहीं, आपका है)।
१८. लक्ष्मी आपके चरणों में रहती हैं, फिर भी हम भीख के लिए झोली फैला रहे हैं। हे गोविंद! इससे आपकी कीर्ति (ब्रीदावळी) कैसे रहेगी?
१९. कुबेर आपका भंडारी है, फिर भी आप हमें दर-दर भटका रहे हैं। हे मुरारी! इसमें आपको क्या पुरुषार्थ (बड़प्पन) मिला?
२०. हे अनंत! हे भाग्यवंत! आप द्रौपदी को वस्त्र दे रहे थे (अनंत वस्त्र दिए), फिर हमारे लिए यह कंजूसी (कृपणता) कहाँ से ले आए?
२१. आपने माया की द्रौपदी सती बनाकर, मध्यरात्रि में ऋषियों की पंगत को क्षण भर में भोजन से तृप्त कर दिया।
२२. हे जगदीश! अन्ना के लिए आप हमें दसों दिशाओं में भटका रहे हैं। हे कृपालु परमपुरुष! आपको करुणा क्यों नहीं आती?
२३. हे मणियों में श्रेष्ठ! मुझे स्वीकार करें। मैं मधुर वचनों से प्रार्थना करता हूँ। एक बार स्वीकार करने के बाद, मेरा हाथ मत छोड़ना।
२४. समुद्र ने बड़वानल (अग्नि) को स्वीकार किया, जिससे वह अंदर ही अंदर जलता रहता है, फिर भी उसने उसे हमेशा अपने भीतर ही रखा (त्यागा नहीं)।
२५. कूर्म (कछुए) ने पृथ्वी का भार लिया, उसने अपना बड़प्पन नहीं छोड़ा। इतने बड़े ब्रह्मांड के गोले को उसने अपने अंग पर स्वीकार किया।
२६. शंकर जी ने हलाहल विष धारण किया, जिससे उनका गला नीला हो गया। फिर भी हे भक्तवत्सल गोविंद! उन्होंने उसे त्यागा नहीं।
२७. मेरी वाणी मेरे अपराधों का वर्णन करते हुए थक गई है। मैं दुष्ट, पतित, दुराचारी और अधम से भी अधम हूँ।
२८. मैं विषयासक्त, मंदबुद्धि, आलसी, कंजूस, बुरी आदतों वाला और मन से मैला हूँ। मैं सदा सज्जनों से द्रोह करता हूँ।
२९. मेरी वाणी मधुर नहीं है, मैं लोगों के प्रति अत्यंत निष्ठुर हूँ। मैं पामरों (नीच) में भी पामर हूँ, और व्यर्थ ही जग में अपनी बड़ाई करता हूँ।
३०. काम, क्रोध, मद और मत्सर ने मेरे शरीर को अपना घर (बिढार) बना लिया है। काम-वासना ने यहाँ दृढ़ स्थान बना लिया है।
३१. यदि अठारह भार वनस्पतियों की कलम बनाऊं और पूरे समुद्र को स्याही बना लूं, और धरती को कागज मानकर मेरे अवगुण लिखूँ, तो भी वे लिखे नहीं जा सकेंगे।
३२. मैं ऐसा पतित (गिरा हुआ) हूँ, यह सच है। पर हे गदाधर! आप 'पतितपावन' हैं। यदि आप मुझे स्वीकार कर लेंगे, तो फिर मेरे दोष-गुण कौन गिनेगा?
३३. यदि कोई नीच स्त्री राजा को प्रिय हो जाए, तो उसे कौन दासी कहेगा? लोहे का स्पर्श पारस से हो जाए, तो उसकी पुरानी स्थिति (लोहापन) कैसे रहेगी?
३४. गाँव के गंदे नाले जब गंगा में मिलते हैं, तो गंगाजल हो जाते हैं। कौवे की बीट से अगर पीपल का पेड़ उगे, तो उसे निंदनीय कौन कहेगा?
३५. वैसे ही मैं कुजाति और अमंगल हूँ, पर केवल आपका कहलाता हूँ। जैसे किसी कुल में कन्या दे दी, तो फिर (उसके पुराने घर का) क्या विचार करना?
३६. मनुष्य को अपराधी जानते हुए भी आपने क्यों अंगीकार (स्वीकार) किया? और समर्थ को एक बार स्वीकार करने के बाद त्यागना (अव्हेर) नहीं चाहिए।
३७. हे गोविंद! दौड़कर आओ। हाथ में गदा लेकर मेरे कर्मों को कुचल डालो (चेंदा करो)। हे सच्चिदानंद श्रीहरि!
३८. आपके नाम की शक्ति अपरिमित है, उसके सामने मेरे पाप कितने हैं? हे कृपालु लक्ष्मीपति! अपने चित्त में अच्छी तरह विचार करें।
३९. आपका नाम पतितपावन है, कलयुग के मैल को जलाने वाला है। आपका नाम भवसागर से तारने वाला और संकटों का नाश करने वाला है।
४०. हे कमलापति! अब प्रार्थना सुनिए। मेरी बुद्धि सदैव आपके नाम में रहे। हे परंज्योति व्यंकटेश! मैं बार-बार यही मांगता हूँ।
४१. आप अनंत हैं, आपके अनंत नाम हैं। उनमें से जो अत्यंत सुगम हैं, उन्हें मैं अल्पमति प्रेम से स्मरण करके प्रार्थना कर रहा हूँ।
४२-४५. (यहाँ भगवान के नामों का स्मरण है) श्री व्यंकटेश, वासुदेव, प्रद्युम्न, अनंत, केशव, संकर्षण, श्रीधर, माधव, नारायण, आदिमूर्ति, पद्मनाभ, दामोदर, प्रकाशगहन, परात्पर, विश्वंभर, जगदुद्धार, जगदीश, कृष्ण, विष्णु, हृषीकेश, अनिरुद्ध, पुरुषोत्तम, परेश, नृसिंह, वामन, परशुराम, बुद्ध, कलंकी, अनाथरक्षक, आदिपुरुष, पूर्णब्रह्म, सनातन, निर्दोष, सकल मंगलों के स्वामी, सज्जनों के जीवन और सुखमूर्ति...
४६-५१. हे गुणातीत, गुणज्ञ, निजबोधरूप, शुद्ध सात्विक, सुज्ञ, गुणप्राज्ञ परमेश्वर! श्रीनिधि, श्रीवत्सलांछन धारी, भयनाशक, गिरिधर, दुष्ट दैत्यों के संहारक! हे निखिल, निरंजन, निर्विकार, विवेक की खान! मधु-कैटभ और मुर दैत्य का संहार करने वाले! शंख-चक्र-गदाधारी, गरुड़वाहन, भक्तप्रिय! गोपीमनरंजन! नाना नाटकों के सूत्रधार, जगद्व्यापक, कृपासागर! शेषशैया पर सोने वाले, वैकुंठवासी, भक्तों के रक्षक! इस समय हमें दर्शन दें (पाव आम्हां)।
५२. ऐसी प्रार्थना करके देवीदास ने अंतर्मन में श्री व्यंकटेश का स्मरण किया। स्मरण करते ही हृदय में ईश्वर प्रकट हुए, उस सुख का कोई पार नहीं था।
५३. हृदय में मूर्ति प्रकट हुई, उस सुख की स्थिति अलौकिक थी। स्वयं श्रीपति (विष्णु) मेरी वाणी से बुलवा रहे हैं।
५४. वह स्वरूप अत्यंत सुंदर है, श्रोतागण आदरपूर्वक सुनें। सांवला सुकुमार शरीर है और चरण-कमल कुमकुम जैसे लाल हैं।
५५. अंगुलियाँ सुरेख और सीधी हैं, नाखून चंद्ररेखा जैसे हैं। एड़ियाँ (घोटीव) सुंदर और नीली हैं, जैसे इंद्रनील मणि हो।
५६. चरणों में वाजेब और घागरिया (घुंघरू) हैं, ऊपर वाकी (आभूषण) और गुजरिया हैं। पिंडलियाँ (पोटरिया) कदली (केले) के स्तंभ जैसी सुडौल और सुंदर हैं।
५७. घुटने, जांघें और कमर में विशाल करधनी (किंकिणी) है। नीचे विश्व की उत्पत्ति का स्थान है और ऊपर पीतांबर (सोनसळा) झलकता है।
५८. कमर के ऊपर नाभिस्थान है, जहाँ से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। पेट पर षट-खंड मांस पेशियां ( सिक्स पॅक) (त्रिवली) गहन शोभा दे रही हैं, जिनमें तीनों लोक समाए हैं।
५९. वक्षस्थल (छाती) पर पदक शोभायमान है, जिसे देखकर चंद्रमा भी लज्जित (अधोमुख) हो जाता है। वैजयंती माला बिजली की तरह चमक रही है।
६०. हृदय पर 'श्रीवत्स' का चिन्ह है, जिसे भगवान भूषण की तरह धारण करते हैं। उसके ऊपर कंठ है, जिसे मुनिजन निहारते हैं।
६१. दोनों भुजाएं सीधी (दंड समान) हैं। नाखून चंद्रमा से भी अधिक तेजस्वी हैं। दोनों हाथ लाल कमल (रातोत्पल) की तरह शोभायमान हैं।
६२. कलाई में कंगन और बांहों में बाजूबंद (बाहुभूषण) हैं। गले में ऐसे आभूषण पहने हैं जैसे सूर्य की किरणें उग आई हों।
६३. कंठ के ऊपर मुखकमल है, ठुड्डी अत्यंत सुंदर और नीली आभा लिए है। मुखचंद्रमा अति निर्मळ है। हे गोविंद, आप भक्तों के स्नेही हैं।
६४. दोनों होंठों के बीच दातों की पंक्ति है, जीभ लावण्य की ज्योति जैसी है। अधरामृत (होंठों का रस) का सुख केवल लक्ष्मी जी जानती हैं।
६५. नाक (नासिका) सीधी और सुंदर है, जहाँ पवन को भी सुख मिलता है। गालों (गंडस्थळ) का तेज अधिक है जो दोनों ओर चमक रहा है।
६६. तीनों लोकों का तेज एक जगह इकट्ठा हुआ है, सुंदरता सीमा (शिगेसी) पर है। दोनों पलकों के बीच श्रीहरि के नेत्रों का तेज है।
६७. व्यंकटेश की भौहें नीली और सुंदर हैं। दोनों कानों की लीला अद्भुत है। कुंडलों की आभा (कळा) फैल रही है, यह सुखद दृश्य अलौकिक है।
६८. माथा विशाल और सुंदर है, उस पर कस्तूरी तिलक शोभता है। मस्तक पर अलौकिक घुंघराले बाल शोभा दे रहे हैं।
६९. सिर पर मुकुट और किरीट है, जिसके चारों ओर झालर (झिळमिळ्या) की दाटी है। उस पर मोरपंख का घेरा (वेटी) है। ऐसे 'जगजेठी' (जगदीश्वर) के मैंने दर्शन किए।
७०. हे देवाधिदेव! हे गुणातीत वासुदेव! आप ऐसे हैं। मेरी भक्ति के कारण आप सगुण रूप होकर प्रकट हुए।
७१. हे जगज्जीवन अधोक्षज! अब मैं आपकी पूजा करता हूँ। मेरा यह भोला-भाला (आर्ष) भावार्थ आपको अर्पण है।
७२. पंचामृत स्नान और फिर शुद्ध जल डालकर, मैं पुरुषसूक्त का पाठ करते हुए आपका मंगल स्नान करता हूँ।
७३. वस्त्र और यज्ञोपवीत (जनेऊ) आपको प्रीतिपूर्वक अर्पित करता हूँ। बहुत सी गंध, अक्षत और पुष्प आपको समर्पित करता हूँ।
७४. धूप, दीप, नैवेद्य, फल, तांबूल (पान) और दक्षिणा, साथ ही वस्त्र, आभूषण, गोमेद और पद्मराग मणियाँ अर्पित करता हूँ।
७५. हे भक्तवत्सल गोविंद! हे परमानंद! इस पूजा को स्वीकार करें। आपके चरण कमलों को नमस्कार करके मैंने प्रदक्षिणा शुरू की।
७६. इस प्रकार हृदय में भगवान की षोडशोपचार (१६ उपचारों से) विधिपूर्वक पूजा की। फिर वरदान मांगने के लिए बहुत प्रार्थना की।
७७-८०. हे श्रुति-शास्त्र-आगम के स्वामी, गुणातीत परब्रह्म, हृदयवासी राम, जगद्गुरु, कमलनयन, कमलाधीश, पूर्णपरेश, भक्तरक्षक, वैकुंठनायक, जगपालक, निरंजन, निर्गुण प्रभु! आपकी जय हो! मेरी एक विनती सुनें।
८१. मुझे ऐसा वरदान दें, जिससे परोपकार हो। मैं बार-बार आपसे यही मांगता हूँ, यह मेरी सच्ची प्रार्थना है।
८२. जो व्यक्ति इस ग्रंथ का पाठ करेगा, उसे संसार में कोई दुःख न हो। इसके पाठ मात्र से वह चराचर जगत में विजयी हो।
८३. विवाह के इच्छुक का विवाह हो, धन चाहने वाले को धन मिले। पुत्र की इच्छा रखने वाले के मनोरथ पूर्ण हों और उसे पुत्र प्राप्त हो।
८४. वह पुत्र विजयी, पंडित, शतायु (१०० वर्ष जीने वाला), भाग्यवान और पितृभक्त हो, जिसका चित्त सर्वदा सेवा में लगा रहे।
८५. हे गोविंद! भक्तों को उदार और सर्वज्ञ पुत्र दें। बीमारों (व्याधिष्ठ) की पीड़ा तत्काल हर लें।
८६. क्षय, मिर्गी (अपस्मार), कुष्ठ आदि रोग इस ग्रंथ के पाठ से दूर हो जाएं। योगाभ्यास करने वालों को पाठ मात्र से योग सिद्ध हो।
८७. इस ग्रंथ के पाठ से दरिद्र (गरीब) भाग्यवान हो जाए, शत्रुओं का नाश हो और पूरी सभा वश में हो जाए।
८८. विद्यार्थी को विद्या मिले, युद्ध में शस्त्र का घाव न लगे। इसके पाठ से जगत में 'साधु-साधु' कहकर कीर्ति फैले।
८९. हे कृपानिधि गोविंद! मेरी प्रार्थना पर ध्यान दें कि अंत समय में उसे मोक्ष की प्राप्ति हो। मैं इतना ही वरदान मांगता हूँ।
९०. व्यंकटरमण प्रसन्न हुए और देवीदास को वरदान दिया। (भगवान बोले:) "इस ग्रंथ के अक्षर मेरा ही वचन हैं, इसे निश्चय ही सत्य जानो।"
९१. "जो विश्वास रखकर दिन-रात इसका पाठ करेगा, उस पर मैं जगदीश एक क्षण के लिए भी विमुख नहीं रहूँगा (हमेशा साथ रहूँगा)।"
९२. "जो इच्छा रखकर इसका पाठ करेगा, उसका प्रमाण मैं बताता हूँ। 'एक मंडल' (निश्चित अवधि, प्राय: ४०-४८ दिन) पाठ करने से सभी कामनाएं सिद्ध होंगी।"
९३. "पुत्र चाहने वाला तीन मास, धन चाहने वाला इक्कीस दिन और कन्या चाहने वाला छह मास तक आदरपूर्वक इस ग्रंथ को बांचे (पढ़े)।"
९४. "क्षय, मिर्गी, कुष्ठ आदि रोगों के लिए एक मंडल पाठ करने से कार्यसिद्धि होगी।"
९५. श्री भगवान बोले, "यह मेरा वाक्य अटल (नेमस्त) है। जो चित्त में इसे सच नहीं मानेगा, उसका निश्चय ही अध:पतन होगा।"
९६. "जो ग्रंथ पठन में विश्वास रखेगा, उस पर चक्रपाणि (विष्णु) कृपा करेंगे। कृपा करके जो वर दिया है, वह अनुभव से ही पता चलेगा।"
९७. गजेंद्र (हाथी) की पुकार पर जैसे हृषीकेश दौड़कर आए, और प्रह्लाद के भाव के कारण वे खंभे से प्रकट हुए।
९८. इंद्र के वज्र से बचाने के लिए, हे गोविंद! हे परमानंद! आपने गोवर्धन पर्वत को उखाड़ लिया (उठा लिया) और उस समय सभी को सुखी किया।
९९. जैसे बछड़े के लिए गाय मोह से दूध बहाती (पन्हाती) है, माता के स्नेह की तुलना में वैसे ही यह (भक्त व भगवान का प्रेम) घटित हुआ है।
१००. हे प्रभु! आप मेरे ऐसे दाता हैं। आप भक्तों पर कृपा की छाया (पाखर) डालते हैं। यह पक्का है, क्योंकि आपका नाम 'अनाथनाथ' है।
१०१. श्री चैतन्य की अलौकिक कृपा से वैकुंठनायक संतोष पाकर यह अलौकिक वरदान दिया है, जिससे सबको सुख मिले।
१०२. यह ग्रंथ लिखते समय, 'गोविंद और मुझमें भेद है', ऐसा विचार मन में न लाएं। हृदय में परमानंद बसता है, यह सबको अनुभवसिद्ध है।
१०३. विष्णुदास (कवि) ने इस ग्रंथ का इतिहास भावपूर्वक बताया है। इसके लिए और कोई प्रयास नहीं करने पड़ते, केवल पाठ मात्र से कार्यसिद्धि होती है।
१०४. कैलासनायक (शिवजी) ने पार्वती को उपदेश दिया कि यह पूर्णानंद और प्रेमसुख है। इसका पार ब्रह्मा आदि भी नहीं जानते, मुनि और देवता भी चकित हैं।
१०५. वनमाळी (विष्णु) प्रत्यक्ष प्रकट होंगे। तीनों लोक तीनों काल में उन्हें भजते हैं। योगी और चंद्रमौळी (शिव) उनका ध्यान करते हैं। वे शेषाद्रि पर्वत (तिरुपति) पर खड़े हैं।
१०६. देवीदास चतुर श्रोताओं से विनती करते हैं कि इस 'प्रार्थना शतक' का पाठ करें। मोक्ष के मंदिर जाने के लिए और कोई प्रयास नहीं लगेंगे।
१०७. एकांत में एकाग्रचित्त होकर मध्यरात्रि में अनुष्ठान करें। स्वस्थ चित्त से बैठने पर साक्षात् मूर्ति प्रकट होगी।
१०८. तब देहभाव का कोई स्थान नहीं रहेगा, केवल चतुर्भुज देव दिखेंगे। उनके चरणों में भाव रखकर अपना वरदान मांग लेना चाहिए।
इति श्री देवी दास विरचितं श्री व्यंकटेश स्तोत्रं संपूर्णम ।
(इस प्रकार श्री देवीदास द्वारा रचित श्री व्यंकटेश स्तोत्र पूर्ण हुआ।)
।। श्री व्यंकटेशार्पणमस्तु ।।
(यह श्री व्यंकटेश को अर्पण हो।)