24/10/2025
कबीर बाबा कहते है
मरते मरते जग मुआ, मूवे न जाना कोए।
ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए।।
"मरते-मरते जग मुआ, मूवे न जाना कोए" में भाव है कि बार-बार मरते हुए पूरा संसार मर चुका है, लेकिन मरा कौन है ये जान न पाया।
"ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए" –
ऐसा हो के नही मरा जिससे मृत्यु ही न हो, जिससे फिर कभी मरना न पड़े।
संसार माया(भ्रम या अविद्या) का जाल है, जो आत्मा को आवरित किए रखता है।
उपनिषदों (बृहदारण्यक उपनिषद् १.३.२८) और भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १२–१३) में कहा गया है कि आत्मा अमर है – "न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायमकर्ता भूयः" (न तो जन्म लेती है, न मरती है; यह नाशरहित है) लेकिन अहंकार (अविद्या से उपजा 'मैं' का भ्रम) के कारण जीव बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र (संसार) में फँसता रहता है।
"मरते मरते जग मुआ"
"जग" से तात्पर्य संसार के भौतिक रूप, इच्छाओं और अहंकार से है, जब साधक “अविद्या का नाश” करता है (जैसे रामानुजाचार्य या पूज्य आदि शंकराचार्य जी के अनुसार, ज्ञान-योग से), तो यह 'मृत्यु' होती है अहंकार की मृत्यु।
पूरा 'जगत्' (भ्रम का संसार) मर जाता है, क्योंकि यह ब्रह्म (सत्य) के सामने मिथ्या सिद्ध हो जाता है। लेकिन "मूवे न जाना कोए" सांसारिक लोग इस 'मृत्यु' (ज्ञानोदय) को पहचानते ही नहीं, क्योंकि वे माया में लिप्त हैं। यह अविद्या की घनघोरता ही है, जहाँ जीव अपनी अमरता भूलकर मृत्यु को ही सत्य मान लेता है।
"ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए"
ये जीते जी “मोक्ष” (मुक्ति) की कामना है। ज्ञानी के लिए मोक्ष वह अवस्था है जहाँ जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है यानी"तत्वमसि" (तू वही है) का बोध।
एक बार यह 'मृत्यु' (अहंकार का विलय) हो जाए, तो जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त होकर फिर "बहुरि न मरना" – कोई पुनर्जन्म नहीं, क्योंकि आत्मा ब्रह्मरूप हो चुकी है।
आदि शंकराचार्य जी के “विवेकचूड़ामणि” (श्लोक ३१) में कहा गया: "बंधमुक्तौ एकरूपत्वात्" बंधन और मुक्ति एक ही हैं, बस ज्ञान का प्रश्न। बाबा कबीर यहाँ वेदांतिक “सहज समाधि” की बात कर रहे हैं, जहाँ जीवंत रहते हुए ही 'मृत्यु' हो जाती है (जैसे तुकाराम या मीरा की भक्ति में)।
ज्ञानसाधना के मार्ग में विवेक (सत्य-असत्य का भेद), वैराग्य (संसार से विरक्ति) और ध्यान से यह प्राप्ति संभव है गीता (४.३०) कहती है: "मुक्तसंगोऽनहंवादी..." – अहंकार-रहित होकर कर्म करो, तो मोक्ष सुलभ है
कबीर निर्गुण भक्ति के माध्यम से ज्ञानमार्ग को सरल बनाते हैं बिना शास्त्रों की भाषाई जटिलता के, सीधे हृदय से बता रहे है कि सच्ची 'मृत्यु' अहंकार की है, जो अमरता का द्वार खोलती है।