Mahant Madhodas Udaseen

Mahant Madhodas Udaseen णमो लोए सव्व साहूणम

कबीर बाबा कहते हैमरते मरते जग मुआ, मूवे न जाना कोए।  ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए।।"मरते-मरते जग मुआ, मूवे न जा...
24/10/2025

कबीर बाबा कहते है

मरते मरते जग मुआ, मूवे न जाना कोए।
ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए।।

"मरते-मरते जग मुआ, मूवे न जाना कोए" में भाव है कि बार-बार मरते हुए पूरा संसार मर चुका है, लेकिन मरा कौन है ये जान न पाया।
"ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए" –
ऐसा हो के नही मरा जिससे मृत्यु ही न हो, जिससे फिर कभी मरना न पड़े।

संसार माया(भ्रम या अविद्या) का जाल है, जो आत्मा को आवरित किए रखता है।
उपनिषदों (बृहदारण्यक उपनिषद् १.३.२८) और भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १२–१३) में कहा गया है कि आत्मा अमर है – "न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायमकर्ता भूयः" (न तो जन्म लेती है, न मरती है; यह नाशरहित है) लेकिन अहंकार (अविद्या से उपजा 'मैं' का भ्रम) के कारण जीव बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्र (संसार) में फँसता रहता है।

"मरते मरते जग मुआ"
"जग" से तात्पर्य संसार के भौतिक रूप, इच्छाओं और अहंकार से है, जब साधक “अविद्या का नाश” करता है (जैसे रामानुजाचार्य या पूज्य आदि शंकराचार्य जी के अनुसार, ज्ञान-योग से), तो यह 'मृत्यु' होती है अहंकार की मृत्यु।
पूरा 'जगत्' (भ्रम का संसार) मर जाता है, क्योंकि यह ब्रह्म (सत्य) के सामने मिथ्या सिद्ध हो जाता है। लेकिन "मूवे न जाना कोए" सांसारिक लोग इस 'मृत्यु' (ज्ञानोदय) को पहचानते ही नहीं, क्योंकि वे माया में लिप्त हैं। यह अविद्या की घनघोरता ही है, जहाँ जीव अपनी अमरता भूलकर मृत्यु को ही सत्य मान लेता है।

"ऐसा हो के ना मुआ, जो बहुरि न मरना होए"
ये जीते जी “मोक्ष” (मुक्ति) की कामना है। ज्ञानी के लिए मोक्ष वह अवस्था है जहाँ जीव ब्रह्म में लीन हो जाता है यानी"तत्वमसि" (तू वही है) का बोध।
एक बार यह 'मृत्यु' (अहंकार का विलय) हो जाए, तो जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त होकर फिर "बहुरि न मरना" – कोई पुनर्जन्म नहीं, क्योंकि आत्मा ब्रह्मरूप हो चुकी है।
आदि शंकराचार्य जी के “विवेकचूड़ामणि” (श्लोक ३१) में कहा गया: "बंधमुक्तौ एकरूपत्वात्" बंधन और मुक्ति एक ही हैं, बस ज्ञान का प्रश्न। बाबा कबीर यहाँ वेदांतिक “सहज समाधि” की बात कर रहे हैं, जहाँ जीवंत रहते हुए ही 'मृत्यु' हो जाती है (जैसे तुकाराम या मीरा की भक्ति में)।

ज्ञानसाधना के मार्ग में विवेक (सत्य-असत्य का भेद), वैराग्य (संसार से विरक्ति) और ध्यान से यह प्राप्ति संभव है गीता (४.३०) कहती है: "मुक्तसंगोऽनहंवादी..." – अहंकार-रहित होकर कर्म करो, तो मोक्ष सुलभ है
कबीर निर्गुण भक्ति के माध्यम से ज्ञानमार्ग को सरल बनाते हैं बिना शास्त्रों की भाषाई जटिलता के, सीधे हृदय से बता रहे है कि सच्ची 'मृत्यु' अहंकार की है, जो अमरता का द्वार खोलती है।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के राग आसां में अंग 441 में गुरु अमर दास जी फ़रमाते हैं “ਮਨ, ਤੂੰ ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੁ ਹੈ, ਆਪਣਾ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣੁ...
22/10/2025

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के राग आसां में अंग 441 में गुरु अमर दास जी फ़रमाते हैं

“ਮਨ, ਤੂੰ ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੁ ਹੈ, ਆਪਣਾ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣੁ ॥
ਮਨ, ਹਰਿ ਜੀ ਤੇਰੈ ਨਾਲਿ ਹੈ, ਗੁਰਮਤੀ, ਰੰਗੁ ਮਾਣੁ ॥
{ਅੰਗ 441}”

“मन, तू ज्योति स्वरूप है, अपना मूल पहचान ॥
मन, हरि जी तेरे नाल है, गुरमत, रंग मान ॥
{अंग 441}”

दीपावली हमें प्रतिवर्ष आत्मचिंतन का ये अवसर प्रदान करती है कि हमारे हृदय में छाए अंधकार (अज्ञान) पर प्रकाश (ज्ञान) की ओर अग्रसर करेगी
आत्मचिंतन की दृष्टि से दीपावली केवल बाहरी दीयों का उत्सव नहीं, अपितु सम्पूर्ण आंतरिक “आत्म-ज्योति” को जगाने का पर्व है, जैसा कि उपनिषदों की प्रार्थना “तमसो मा ज्योतिर्गमय” (अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो) में कहा गया है।

“मन, तू ज्योति स्वरूप है,”

"मन" यानी अहंकार या चित्त जो माया के भ्रम में उलझा रहता है। "ज्योत सरूप" अर्थात प्रकाशमय चेतना (आत्मा) का स्वरूप है जो निष्कलंक है यानी अनंत ब्रह्म है।
आत्मा ही ज्योतिर्मय है (बृहदारण्यक उपनिषद्), जो अज्ञानाधंकार को नष्ट करती है।

“अपना मूल पहचान ॥”

"मूल" अर्थात मूल सत्ता यानी हमारा सच्चिदानन्द घन स्वरूप जिसको विवेक द्वारा मनरूपी माया के आवरण से ऊपर उठकर अपने सच्चे स्वरूप यानी परम तत्त्व को पहचान।

“मन, हरि जी तेरे नाल है, गुरमत, रंग मान”

मन हरि (परमात्मा) हमेशा तेरे अंग संग है तू गुरमत के अनुसार रंग यानी आनंद मान
अर्थात, मन भक्ति और प्रेम से परिपूर्ण होकर ज्ञान द्वारा अनंत आनंद प्राप्त करता है।

मन अविद्या (अज्ञान) के कारण जीव को ब्रह्म से अलग लगता है, लेकिन वास्तव में “तत्वमसि” (तू वही है) यानी आत्मा और ब्रह्म अभिन्न हैं।
गुरु अमर दास जी यहाँ जीव को याद दिलाते हैं कि तूं यानी आत्मज्योति है, न कि शरीर-मन रूपी अविद्या है “विवेकचूड़ामणि” में आदि शंकराचार्य जी कहते हैं अविद्या के पाप-कर्मों की "काली परतें" (जैसे काम, क्रोध) मन को ढक लेती हैं, लेकिन श्रवण-मनन-निदिध्यासन से आवरण हटता है, और आत्म-ज्योति प्रकट होती है।
उनकी पावन वाणी अहं ब्रह्मास्मि(मैं ब्रह्म हूँ) का सरल रूप है जो मन को अपने मूल (ब्रह्म) में लीन होने का उपदेश देती है प्रेम और सुख कहकर गुरुदेव आनंदमय कोष(पांच कोषों में अंतिम) को इंगित करते प्रतीत होते है मगर उनका गहन भाव हमारा सत चित्त आनन्द रूप ही है जहाँ जीव परम सुख प्राप्त करता है।

ज्ञानज्योति का आंतरिक उत्सव दीपावली प्रकट में तो दीपोत्सव है जहाँ बाहरी दीप अंधकार मिटाते प्रतीत होते हैं, लेकिन विचार की दृष्टि से यह ज्ञान-ज्योति द्वारा आत्म-ज्योति को जगाने का पर्व है।
राम की अयोध्या वापसी मात्र कथा नहीं, बल्कि आत्मा के स्वरूप में लौटने का प्रतीक है
रावण (यानी अहंकार/अज्ञान) का वध और राम (यानी आत्मा/ब्रह्म) की उस पर विजय का पर्व है
दीपावली पर जलाए जाने वाले दीप आत्मा की ज्योति का बाह्य रूप हैं आंतरिक स्वरूप तो यहाँ कि "मेरे मन के अंधकमल में ज्योतिर्मय उतरो"
हर दीपावली मन को संकल्प देती है कि तू स्वयं ज्योति है, बाहरी प्रकाश से ऊपर उठकर आंतरिक प्रकाश (ब्रह्मचैतन्य) को पहचान।

अपना मूल पहचान यानी अंधकार (अविद्या) पर प्रकाश (विवेक) की विजय करो
गुरुजी की यह पंक्ति दीपावली के इस संदेश को पूर्ण करती है कि मूल (आत्मा) पहचानते ही माया का भ्रम ठीक उसी प्रकार मिट जाता है, जैसे दीप जलते ही रात्रि विलीन हो जाती है।

रंग मान यानी समृद्धि भाव कि बाह्य दीपावली लक्ष्मी-पूजा के साथ समृद्धि लाती प्रतीत होती है, लेकिन ज्ञानी के लिए यह आध्यात्मिक सुख है हरि-भक्ति से मन "प्रेम का पुर" बनता है। यह तमसो मा ज्योतिर्गमय को चरितार्थ करता है, जहाँ प्रेम और सुख ब्रह्म में लय होते हैं।

दीपावली पर हर दीप जलाते हुए इस चिंतन में हम रह सकें कि मन को अविद्या की "काली परतों" से मुक्त कर ज्योति की ओर मोड़ना ही परम पुरुषार्थ है
ध्यान में चिंतन करें—मैं कौन हूँ? (शुद्ध चैतन्य।) इससे न केवल बाहरी उत्सव, बल्कि आंतरिक एकत्व का अनुभव होगा
रामकृष्ण परमहंस कहते थे: "दीपावली आत्मा के दीपक को प्रज्वलित करने का अवसर है।"
हम सब बाहरी ज्योति से प्रेरित होकर आंतरिक ज्योति (ब्रह्म) को पहचान सकें सदा ज्ञानरूपी प्रकाशमय जीवन जी सकें यही मंगलकामना है

दीपावली की शुभकामनाएँ

10/10/2025

“कउनु मूआ रे कउनु मूआ”

गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी है, जो मृत्यु के भ्रम (माया) को नकारते हुए आत्मा की अमरता और ब्रह्म के साथ एकत्व पर प्रकाश डालती है।
मृत्यु की मिथ्यता यानी अविद्या या अज्ञान से उत्पन्न भ्रम) और आत्मा-ब्रह्म की अभेदता यानी (अद्वैत) को उजागर करता है।
शरीर और संसार माया का परिणाम है
जन्म-मृत्यु केवल नाम-रूप के स्तर पर घटित होते हैं,
किंतु आत्मा (अत्मन्) तो नित्य, अविनाशी और ब्रह्म से अभिन्न है।
उपनिषद् कहते हैं: "न जायते म्रियते वा विपश्चिन्" (न तो वह जन्म लेता है, न मरता है)। गुरु नानक जी इसी सत्य को सरल भाषा में व्यक्त करते हैं—मृत्यु का रोना व्यर्थ है, क्योंकि "कोई मरा ही नहीं"।

पवनै महि पवनु समाइआ।।
जोती महि जोति रलि जाइआ।।
माटी माटी होई एक।।
रोवनहारे की कवन टेक।।

संसार नाम-रूप का भेद (विविधता) माया से उत्पन्न है,
किंतु मूलतः सब कुछ एक ब्रह्म में लीन हो जाता है।
जैसे वायु (पवन) पृथ्वी (महि) में विलीन हो जाती है, ज्योति (जोति) ज्योति में मिश्रित हो जाती है, और माटी (मिट्टी) माटी में एकाकार हो जाती है
इसी प्रकार शरीर (देह) मृत्यु पर पंचमहाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि आदि) में विलीन हो जाता है।
लेकिन रोने वाले (मोहग्रस्त के ) शोक का आधार क्या है? अविद्या (अज्ञान) ही तो है, जो भेदभाव (द्वैत) पैदा करता है।
उपनिषद् (छांदोग्य) कहते हैं: "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" (सब कुछ ब्रह्म है)—इसलिए मृत्यु में रोना माया का जाल है, सच्चा ज्ञान तो एकत्व में आनंद है।

अगली किछु खबरि न पाई।।
रोवनहारु भि ऊठि सिधाई।।
भरम मोह के बांधे बंध।।
सुपनु भइआ भखलाए अंध।।

मृत्यु स्वप्न-तुल्य यानी सपने जैसी है जैसे स्वप्न में घटनाएँ प्रतीत होती हैं, किंतु जागरण पर विलीन हो जाती हैं।
“अगली किछु खबरि न पाई" अर्थात् परलोक की कोई निश्चित खबर नहीं, क्योंकि वह भी माया का भाग है।
रोने वाले भी अंततः चले जाते हैं ("ऊठि सिधाई"), फिर उनका रोना व्यर्थ क्यों?
“भ्रम-मोह” (अविद्या और राग-द्वेष) ही बंधन है, जो अंधेरे (अंध) में भटकाता है।
शंकराचार्य जी कहते हैं: "ब्रह्म सत्यं जगन् मिथ्या" संसार सपना है, अतः मोह से मुक्त होकर आत्म-साक्षात्कार ही मुक्ति है।
गुरु नानक जी वेदांत की ज्ञान-मार्ग से जोड़ते हैं मोह त्यागो, गुरु-ज्ञान से जागो।

“इहु तउ रचनु रचिआ करतारि।।
आवत जावत हुकमि अपारि।।
नह को मूआ न मरणै जोगु।।
नह बिनसै अबिनासी होगु।।”

समस्त सृष्टि ईश्वर की लीला यानी (माया-शक्ति) है
“रचनु रचिआ करतारि" (सृष्टि रचयिता ने रची)।
जन्म-मृत्यु “हुकमि अपारि” (अपरिमित प्रभु-इच्छा) से होते हैं, किंतु ये केवल जनम मरण तो शरीर के लिए हैं।
आत्मा तो “अबिनासी” (अविनाशी) है
“नह को मूआ न मरणै जोगु" (कोई मरा नहीं, मरने योग्य नहीं)।
भगवद्गीता (अध्याय 2) में श्रीकृष्ण कहते हैं: "नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः" (आत्मा को न शस्त्र काटते, न अग्नि जलाती) यानी वह नष्ट नहीं होती।
ब्रह्म अविकारी है, संसारिक आवागमन केवल मिथ्या। इसलिए, मृत्यु का भय छोड़ो, प्रभु-हुकुम यानी (ईश्वर-कृपा) में लीन हो जाओ।

“जो इहु जाणहु सो इहु नाहि।।
जानणहारे कउ बलि जाउ।।
कहु नानक गुरि भरमु चुकाइआ।।
ना कोई मरै न आवै जाइआ।।

यह चरम अद्वैत का उद्घोष है
“जो इहु जाणहु सो इहु नाहि" (जो यह जानता है, वही 'यह' नहीं है) अर्थात् सच्चा ज्ञाता (ज्ञानी) द्वैत से ऊपर उठ जाता है, वह 'जानने वाला' और 'जानना' में अभेद हो जाता है।
वेदांत में यह “तत्त्वमसि यानी (तू वही है) का सूत्र है
ज्ञान से अहंकार (अहं) विलीन हो जाता है।
गुरु नानक जी कहते हैं गुरु-कृपा से “भरमु चुकाइआ यानी “भ्रम नष्ट” हो जाने के बाद न तो कोई मरता है, न आता-जाता है।
शंकराचार्य के अनुसार, यह विवेक-वैराग्य से प्राप्त मोक्ष है: आत्मा ब्रह्म है, संसार मिथ्या। इसलिए, "कउनु मूआ रे कउनु मूआ" किसका मृत्यु-शोक? यानी सब एक ही परमात्मा में लीन।

माया के भ्रम से ऊपर उठकर सत्-चित्-आनंद (सत्य-चेतना-आनंद) में स्थिर हो।
मृत्यु का रोना न करो, गुरु-ज्ञान से आत्म-साक्षात्कार करो।
जैसा कि उपनिषद् कहता है: "तद् एकं, न द्वितीयं अस्ति" (वह एक है, दूसरा नहीं)
सब कुछ ब्रह्म, मृत्यु मात्र भ्रम है जो ये समझ सका वो शोक को आनंद में बदल देता है।

08/10/2025

प्रहलाद सिंह जी टिपाणीयां को सुनिएगा इस भजन में आपका रोम रोम पुलकित हो उठेगा

ह्रदय मांहीं आरसी, और मुख देखा नहीं जाय
मुख तो तब ही देखिये, जब दिल की दुविधा जाय

थारा रंग महल में, अजब शहर में
आजा रे हंसा भाई, निर्गुण राजा पे, सिरगुण सेज बिछाई
यहाँ सिरगुण सेज बिछायी,

अरे हां रे भाई, देवलिया में देव नांहीं, झालर कूटे गरज कसी
अरे हां रे भाई, देवलिया में देव नांहीं, झालर कूटे गरज कसी

अरे हां रे भाई, बेहद की तो गम नांहि, नुगुरा से सेन कसी
अरे हां रे भाई, बेहद की तो गम नांहि, नुगुरा से सेन कसी

अरे हां रे भाई, अमृत प्याला भर पाओ
भाईला से भ्रांत कसी
अरे हां रे भाई, कहें कबीर विचार
सेण मांहीं सेण मिली

कबीरदास जी यहां ब्रह्म की एकता, जीवात्मा का परमात्मा से अभिन्न संबंध, माया की दुविधा और आत्म-साक्षात्कार की ओर संकेत कर रहे हैं

ब्रह्म को निर्गुण (गुणरहित, निराकार) कहा गया है, किंतु साधक के लिए सगुण (गुणयुक्त, साकार) रूप में उपासना की भी अनुमति है।
कबीर इसमें 'हंसा' को जीवात्मा का प्रतीक मानते हैं, जो माया के दूध-जल में से अमृत (ब्रह्म) को चुनकर अलग करने वाली विवेकशील शक्ति है। यानी बाहरी माया-मोह से ऊपर उठकर हृदय के 'अजब शहर' (आंतरिक चेतना) में प्रवेश कर निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार करो।

यहां हृदय को 'आरसी' (दर्पण) कहा गया है, जो आत्मा का प्रतिबिंब दिखाता है। लेकिन माया की 'दुविधा' (अज्ञान या द्वंद्व) के कारण सच्चा 'मुख' (आत्मरूप) दिखाई नहीं देता। शंकराचार्य जी कहते हैं 'अविद्या' (अज्ञान) ही यह दुविधा है, जो जीव को ब्रह्म से अलग दिखाती है। जब विवेक जागृत होता है, तो यह दुविधा नष्ट हो जाती है, और 'तत् त्वम् असि' (तू वही है) का बोध होता है। कबीर यहीं संकेत करते हैं कि बाहरी खोज व्यर्थ है; आंतरिक शुद्धि से ही ब्रह्म-दर्शन संभव है।

“थारा रंग महल में, अजब शहर में
आजा रे हंसा भाई, निर्गुण राजा पे, सिरगुण सेज बिछाई
यहाँ सिरगुण सेज बिछायी”

‘रंग महल' और 'अजब शहर' हृदय की आंतरिक चेतना को दर्शाते हैं, जो माया के रंगों से भरा लेकिन ब्रह्म का निवास है। 'हंसा भाई' जीवात्मा को संबोधित है
वेदांत में हंस ब्रह्म-विवेक का प्रतीक है, जो सत्य-असत्य को अलग करता है। 'निर्गुण राजा' निर्गुण ब्रह्म (निराकार परम सत्य) है, जिस पर 'सिरगुण सेज' (सगुण उपासना की सेज) बिछाई गई है। निर्गुण ब्रह्म की उपासना कठिन है, इसलिए सगुण रूप (जैसे राम या कृष्ण) से प्रारंभ कर निर्गुण तक पहुँचना चाहिए। कबीर जी कहते हैं आओ, जीवात्मा! इस आंतरिक महल में प्रवेश करो, जहाँ सगुण से निर्गुण का संगम है। यह 'अहं ब्रह्मास्मि' के बोध का आह्वान है।

“अरे हां रे भाई, देवलिया में देव नांहीं, झालर कूटे गरज कसी”

'आत्मबोध के राही के लिए देवलिया' (मंदिर) में 'देव नांहीं' यानी बाहरी दिखावटी कर्मकांडों की निंदा है।
यानी ब्रह्म सर्वव्यापी है, न कि मूर्तियों या मंदिरों तक सीमित। 'झालर कूटे गरज' (घंटी बजाने की गरज) व्यर्थ है, क्योंकि यह माया का दिखावा मात्र है।
शंकराचार्य जी ‘विवेकचूड़ामणि' में कहते है कि बाहरी पूजा से पहले आंतरिक शुद्धि आवश्यक है। कबीर यहीं अद्वैत का प्रतिपादन करते हैं: देव तो हृदय में है, बाहरी खोज मिथ्या है निर्गुण ब्रह्म की ओर लौटो।

“अरे हां रे भाई, बेहद की तो गम नांहि, नुगुरा से सेन कसी”

'बेहद' (अनंत, निर्गुण ब्रह्म) का कोई 'गम' (मार्ग) नहीं, क्योंकि यह सीमाओं से परे है। 'नुगुरा' (बिना गुरु के) 'सेन' (चिन्ह) दिखाना असंभव है।
यहां गुरु यानी आंतरिक विवेक है, जो 'अपरोक्षानुभूति' (प्रत्यक्ष अनुभव) कराता है। कबीर जी कहते हैं अनंत ब्रह्म तक पहुँचने का कोई बाहरी चिन्ह नहीं; केवल आंतरिक गुरु-कृपा से ही 'सत्-चित्-आनंद' का बोध होता है।
यह 'न निरोधः न चोत्पत्तिः' (न उत्पत्ति, न विनाश) के सिद्धांत को प्रतिबिंबित करता है यानी सगुण-सेज पर निर्गुण राजा का आश्रय लो।

“अरे हां रे भाई, अमृत प्याला भर पाओ
भाईला से भ्रांत कसी
अरे हां रे भाई, कहें कबीर विचार
सेण मांहीं सेण मिली”

'अमृत प्याला' ब्रह्म-ज्ञान का प्रतीक है, जो अमरत्व प्रदान करता है (उपनिषदों के अनुसार 'अमृत' = मोक्ष)।
कबीर जी कहते हैं इसे 'भाईला' (सहचरों) से छिपाओ मत, बाँटों क्योंकि सभी जीव एक ही ब्रह्म के अंश हैं। 'भ्रांत' (भ्रम) माया है, जो एकता को भेद दिखाती है। अंत में, 'सेण मांहीं सेण मिली’ यानी चिन्ह में ही चिन्ह है, अर्थात् बाहरी खोज व्यर्थ है केवल आंतरिक विवेक से ही सत्य मिलता है। यह 'नेति नेति' (न यह, न वह) की वेदांतिक प्रक्रिया है, जहाँ नकार से सकारात्मक बोध होता है। यहाँ भजन निर्गुण राजा के प्रति समर्पण पर विराम लेता है।

समग्र परिप्रेक्ष्य में यह जीव को माया की 'दुविधा' से मुक्त कर 'अजब शहर' (सहस्रार चक्र या चेतना का केंद्र) में ले जाता है, जहाँ निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण कर साधक का स्वागत करता है। कबीर का 'राम' यही निर्गुण सत्य है, जो सामाजिक भेदभाव से परे सभी को एक करता है। साधना का मार्ग विवेक, शुद्धि और भक्ति से होता हुआ आत्म-साक्षात्कार तक पहुंच जाता है यह भजन न केवल सुनने, बल्कि आंतरिक चिंतन वाले साधकों के लिए अमृत तुल्य है।

06/10/2025

शब्दवाणी के 120 शब्द गुरु जम्भेश्वर जी द्वारा रचित अमर वाणी हैं, जो श्रुतियों का सरल भाषा रूप है

शब्द 1:
“ओउम् गुरु चीन्हों गुरु चिन्ह पुरोहीत, गुरु मुख धर्म बखाणी...”

गुरु को ब्रह्म का साकार रूप मानकर उसकी पहचान शील, शब्द और वेद-ज्ञान से करें।
गुरु अद्वैत का प्रतीक है, जो शिष्य को द्वैत-भ्रम से मुक्त कर आत्मा में ब्रह्म का प्रत्यक्ष दर्शन कराता है। गुरु-कृपा से मोह टूटता है, और कृष्ण चरित्र जैसी भक्ति से सगुण-निर्गुण की एकता सिद्ध होती है।

शब्द 2:
“ओउम् मम न माता पिता न मम कुल न कुलीन...”

परमात्मा निर्गुण है, माया के पारिवारिक बंधनों से परे। यह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को दर्शाता है, जहां जन्म-मृत्यु माया का जाल है। सच्चा जप आत्म-चिंतन है, जो आवागमन के चक्र को समाप्त कर ब्रह्म-आनंद प्रदान करता है।

शब्द 3:
“ओउम् मोरे अंग नै अलसी तेल न मलियो, ना परमल पीसीयों...”

परमात्मा के अंगों पर कोई सांसारिक लेपन या आभूषण नहीं।
यह ब्रह्म की निर्गुणता को स्पष्ट करता है, जहां हृदय में 68 तीर्थ व्याप्त हैं, बाहरी चार लोक माया के भ्रम हैं। पवित्र पांव से चलने वाला पापों से मुक्त होकर आत्मा का साक्षात्कार करता है।

शब्द 4:
“ओउम् जद पवन नै होता पाणी न होता, न होता गंग दर तारु...”

सृष्टि पूर्व केवल एक निरंजन शंभु था।
यह ब्रह्म की अनादि एकत्व को बताता है, सृष्टि माया से उत्पन्न विविधता है। 84 लाख योनियां और 18 भार माया के खेल हैं, ज्ञान से सब ब्रह्म में लीन हो जाता है।

शब्द 5:
“ओउम् जीव पूज न करो जीव पूज करो...”
सभी जीवों की पूजा ब्रह्म-पूजा है
जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं, द्वैत भेद माया है। यह शब्द जीव-मात्र में आत्मा का दर्शन सिखाता है, जो करुणा और मोक्ष का आधार है।

शब्द 6:
“ओउम् एकं एकं शरीर में एकं एकं व्यपि...”

सभी शरीरों में एक ही ब्रह्म व्याप्त है।
यह सर्वव्यापकता का सिद्धांत है, जहां द्वैत का भ्रम मिटाकर एकत्व का अनुभव मोक्ष है। शरीर माया का वस्त्र है, आत्मा शाश्वत।

शब्द 7:
“ओउम् हिंदू होय कै हरि क्यों न जंप्यो...”

हिंदूत्व का अर्थ विष्णु (ब्रह्म) से जुड़ना है।
यह माया के कर्तव्य-अनादर से बंधन को चेतावनी देता है, सच्ची भक्ति अद्वैत ज्ञान से ही संभव है।

शब्द 8:
“ओउम् हरि नाम रस पीवत रहो...”

हरि-नाम का रस पीकर रहो। अद्वैत में नाम जप ब्रह्म-स्मरण है, जो माया के विष को नष्ट कर आनंदमय आत्मा को जागृत करता है।

शब्द 9:
“ओउम् सतगुरु मिलै तो सुख पावै...”

सच्चे गुरु से मिलन से सुख प्राप्ति। गुरु उपदेश से विवेक जागता है, जो मिथ्या (माया) को त्यागकर सत्य (ब्रह्म) का बोध कराता है।

शब्द 10:
“ओउम् मन चंछल है तो गुरु कृपा से स्थिर करो...”

चंचल मन को गुरु-कृपा से स्थिर करें। मन माया का साधन है, एकाग्रता से आत्मा-ब्रह्म एकता का अनुभव होता है।

शब्द 11:
“ओउम् ब्रह्मा विष्णु महेश सब एक...”

ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही हैं। यह त्रिमूर्ति की एकता दर्शाता है, सृष्टि-पालन-संहार ब्रह्म के ही रूप हैं, द्वैत भ्रम है।

शब्द 12:
“ओउम् माया मोह में मत फंसो...”

माया-मोह में न फंसो। मूल: माया अविद्या है, ज्ञान से ब्रह्म का साक्षात्कार होकर बंधन मुक्त होता है।

शब्द 13:
“ओउम् आत्मा अमर है, शरीर नश्वर...”

आत्मा अमर, शरीर नश्वर। आत्मा ब्रह्म का अंश है, शरीर माया का पात्र; नेति-नेति से शुद्ध स्वरूप जाना जाता है।

शब्द 14:
“ओउम् मम वचनं वेदं प्रोक्तं...”

मेरी वाणी वेदों का सार है। शब्दवाणी उपनिषदों जैसी है, जो ब्रह्म-विद्या का सरल रूप है।

शब्द 15:
“ओउम् सगुण निर्गुण एक ही...”

सगुण और निर्गुण एक हैं। वेदांत की एकता: भक्ति से सगुण, ज्ञान से निर्गुण ब्रह्म प्राप्ति।

शब्द 16:

“ओउम् जीव ब्रह्म एकत्व...”

जीव और ब्रह्म एक हैं। "अहं ब्रह्मास्मि" का प्रतिपादन, माया से भेद मिटाकर मोक्ष।

शब्द 17:
“ओउम् मम सहित सुंदर नर पूज...”

सभी में समान दृष्टि रखो। अद्वैत में लिंग-भेद माया है, आत्मा निर्गुण।

शब्द 18:
“ओउम् वेद पढ़ो, शास्त्र समझो...”

वेद-शास्त्र से ज्ञान। वेदांत का आधार: श्रुति से ब्रह्म-ज्ञान।

शब्द 19:
“ओउम् रूप रूप में रूप रूप व्यपि...”

ब्रह्म सभी रूपों में व्याप्त। सर्वव्यापकता का सिद्धांत, बाहरी तीर्थ न, अंतः एकत्व।

शब्द 20:
“ओउम् जल में नाग चलै जल में...”
ब्रह्म असीम, माया के बंधनों से मुक्त। अद्वैत में आत्मा का ज्ञान जागरण।

शेष शब्द 21-30 माया के भ्रम पर, 31-40 ब्रह्म की सर्वव्यापकता पर, 41-50 आत्मा जागरण पर, 51-60 मोक्ष मार्ग पर, 61-70 गुरु-भक्ति पर, 71-80 नैतिक जीवन से अद्वैत पर, 81-90 जप-ध्यान से एकता पर, 91-100 सृष्टि-माया पर, 101-110 वैराग्य से मुक्ति पर, और 111-120 समग्र ब्रह्म-ज्ञान पर केंद्रित हैं। प्रत्येक में मूल सार "ओउम्" से प्रारंभ होकर ब्रह्म-एकत्व की ओर ले जाता है।
विस्तृत व्याख्या के लिए जंभसागर ग्रंथ पढ़ना चाहिए 29 नियम मोक्ष के साधन हैं

05/10/2025

ਜਿਉ ਜਿਉ ਨਾਮਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਉਚਰੈ ॥ ਭਗਤ ਜਨਾਂ ਕੋ ਦੇਹੁਰਾ ਫਿਰੈ ॥੧॥ ਰਹਾਉ ॥
ਹਸਤ ਖੇਲਤ ਤੇਰੇ ਦੇਹੁਰੇ ਆਇਆ ॥ ਭਗਤਿ ਕਰਤ ਨਾਮਾ ਪਕੜਿ ਉਠਾਇਆ ॥
ਹੀਣੜੀ ਜਾਤਿ ਮੇਰੀ ਜਾਡਮ ਰਾਇਆ ॥ ਛੀਪੇ ਕੈ ਜਨਮਿ ਕਾਹੇ ਕਢੁ ਆਇਆ ॥੧॥
ਲੈ ਕੰਬਲੀ ਚਲਿਓ ਪਲਟਾਇ ॥ ਦੇਹੁਰੈ ਪਾਛੈ ਬੈਠਾ ਜਾਇ ॥
ਜਿਉ ਜਿਉ ਨਾਮਾ ਹਰਿ ਗੁਣ ਉਚਰੈ ॥ ਭਗਤ ਜਨਾਂ ਕੋ ਦੇਹੁਰਾ ਫਿਰੈ ॥੨॥੧॥੩॥

जैसे-जैसे नामा (नामदेव) हरि के गुणों का उच्चारण करता है, वैसे-वैसे भक्त जनों के लिए मंदिर घूमता फिरता है। (रहावौ)
हंसते-खेलते तेरे मंदिर में आया था, भक्ति करते हुए नामा को पकड़कर बाहर निकाल दिया।
'हीनड़ी' जात मेरी, जाड़म राजा (नीच कुल में जन्मा)। छीपे (रंगरेज) के जन्म में क्यों आया?
कंबली उठाकर पलटकर चला गया, मंदिर के पीछे बैठ गया।
जैसे-जैसे नामा हरि के गुणों का उच्चारण करता है, वैसे-वैसे भक्त जनों के लिए मंदिर घूमता फिरता है।

यह शबद भगत नामदेव जी द्वारा रचित है, जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब (अंग ११६६) में राग गौरी में संकलित है

यहाँ आत्मा की एकत्वता (अद्वैत) और माया के भेदभाव को उजागर किया गया है।
वेदांत में ब्रह्म ही सत्य है, और आत्मा (आत्मन्) यानी चिदाभास ब्रह्म का ही अंश है।
जाति, कुल, जन्म आदि सब माया के आवरण हैं, जो व्यावहारिक स्तर (व्यवहारिका सत्ता) पर प्रतीत होते हैं, लेकिन परम सत्य (परमार्थिका सत्ता) में ये सब भ्रम मात्र हैं।

1. जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै,
भगत जनां को देहोरा फिरै" (रहावौ)

“हरि" (परमात्मा) को ब्रह्म कहा गया है, जो सर्वव्यापी और निर्गुण है।
गुणगान (नाम-स्मरण) भक्ति का प्रारंभिक साधन है, जो श्रवण (सुनना), मनन (चिंतन) और निदिध्यासन (गहन ध्यान) की ओर ले जाता है।
जैसे-जैसे भक्त जप करता है, माया का पर्दा हटता है, और "देहोरा फिरै" (मंदिर घूमना) प्रतीक है कि ब्रह्म स्वयं भक्त की ओर मुड़ता है—क्योंकि भक्त और ब्रह्म में कोई द्वैत नहीं।
जिसको शंकराचार्य जी ने, "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" (ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या)कहा
यहाँ मंदिर (जगत) भक्त की भक्ति से "फिरता" है, जो अद्वैत की झलक है।

2. हसत खेलत तेरे देहोरे आइआ,
भगति करत नामा पकड़ि उठाइआ"
नामदेव जी का मंदिर में जाना भक्ति का सरल भाव है, लेकिन उन्हें बाहर निकालना सामाजिक माया (जाति-भेद) का प्रतीक है।
बाहरी कर्मकांड (जैसे मंदिर प्रवेश) बंधन हैं; सच्ची भक्ति आंतरिक है।
उपनिषदों में कहा गया है, "न तस्य प्रण्या न तस्य प्रियः" (उसके लिए न कोई घृण्य, न प्रिय है)
भक्त को बाहरी अपमान से ऊपर उठना चाहिए। यहाँ अपमान भक्त को और गहन भक्ति की ओर धकेलता है।

3.हीनड़ी जाति मेरी जाडम राइआ,
छीपे कै जनमि काहे कडु आइआ"

प्रकट तौर पर पंक्ति दुख की प्रतीक हो सकती है, लेकिन मुमुक्षु इसे अवसर मानता है। "हीनड़ी जाति" (निम्न जाति) जन्म-माया का प्रतीक है, जो अज्ञान (अविद्या) से उत्पन्न होता है।
जाति कोई वास्तविक नहीं, बल्कि गुण-कर्म-जन्म का अस्थायी लेबल है (गीता ४.१३: "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः")।
सच्चा जन्म तो आत्मा का है, जो जाति-रहित है। नामदेव का प्रश्न "काहे कडु आइआ" (क्यों आया?) अविद्या का रोना है, लेकिन वेदांत कहता है: यह जन्म ज्ञान प्राप्ति का माध्यम है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, "मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते" (मुझे प्राप्त कर लेने पर पुनर्जन्म नहीं)—भक्ति से ही यह चक्र टूटता है।

4.
लै कमली चलिओ पलटाइ,
देहोरै पाछै बैठा जाइ"
कंबली उठाकर पीछे जाना वैराग्य (विरक्ति) का प्रतीक है।
वैराग्य अविद्या-त्याग को कहते है। भक्त बाहर बैठकर भी गुणगान करता है, जो दर्शाता है कि सच्ची पूजा स्थान-आधारित नहीं, बल्कि हृदय-केंद्रित है। मांडूक्य उपनिषद कहता है, "अयमात्मा ब्रह्म"—आत्मा ही ब्रह्म, मंदिर मात्र प्रतीक।

5.फिर से "देहोरा फिरै" का दोहराव चमत्कार दर्शाता है जब माया भक्ति से हट जाती है तब ज्ञानोदय है यानी जब अहंकार (जाति-भाव) मिटता है, तो अद्वैत प्रकट होता है।
भक्ति ज्ञान में विलीन हो जाती है
“सर्वं खल्विदं ब्रह्म" (सब कुछ ब्रह्म है)।
जाति का दुख माया है;
भक्ति से पार होकर भक्त "सोऽहम्" (मैं वह हूँ) का अनुभव करता है।

ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् ।  तदात्मानमेवावेत् ।  अहम् ब्रह्मास्मीति ।  तस्मात्तत्सर्वमभवत् ।
25/09/2025

ब्रह्म वा इदमग्र आसीत् ।
तदात्मानमेवावेत् ।
अहम् ब्रह्मास्मीति ।
तस्मात्तत्सर्वमभवत् ।

"एष एव सर्वेषां लोकानां प्रज्ञानं । प्रज्ञानं ब्रह्म ॥"
24/09/2025

"एष एव सर्वेषां लोकानां प्रज्ञानं । प्रज्ञानं ब्रह्म ॥"

यह चर्चा किसी ने की कि भारत में कोई भी बड़ा आंदोलन बिना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन ...
23/09/2025

यह चर्चा किसी ने की कि भारत में कोई भी बड़ा आंदोलन बिना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन के सफल नहीं हो सकता। संघ 100वें साल में है, जबकि इसका 75 साल का सफर मुश्किलों से भरा रहा, फिर भी यह सफल और मजबूत हुआ, यह सवाल वाकई महत्वपूर्ण है कि यह कैसे संभव हुआ?

मैं इस बात से सहमत हूँ कि हर सफल जन आंदोलन के पीछे संघ की भूमिका रही है। यह उन लोगों को परेशान कर सकता है जो बिना कारण संघ से नफरत करते हैं या हिंदुत्व का कोई दूसरा रास्ता चाहते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि संघ जैसी सफलता कोई और हासिल नहीं कर पाया।

मैं असफल हुए कुछ दक्षिणपंथी (RW) आंदोलनों की बात करूँगा। हाल ही में धीरेंद्र शास्त्री (बागेश्वर बाबा) ने अपनी पैन-इंडिया सनातन यात्रा शुरू की। हिंदी बेल्ट में उनकी लोकप्रियता बहुत है, फिर भी उनकी यात्रा असफल रही। उन्होंने खुद माना कि हिंदुओं ने उनका साथ नहीं दिया। वो कहते हैं कि हिंदू गहरी नींद में हैं।

इससे पहले, सद्गुरु ने 'रैली फॉर रिवर' और 'सेव सॉइल' जैसे आंदोलन चलाए। ये कुछ हद तक सफल रहे, लेकिन इनमें वो जोश नहीं दिखा। 'सेव सॉइल' में किसानों की भागीदारी जरूरी थी, लेकिन कृषि-प्रधान राज्यों में उनकी कमी खली। सद्गुरु की अपील मुख्य रूप से उच्च मध्यम वर्ग तक सीमित रही, खासकर तमिलनाडु के बाहर। गरीब और निम्न मध्यम वर्ग के लिए उनकी संस्था (Isha) सुलभ नहीं है, और वो अपने पुराने समर्थकों को खोना नहीं चाहते।

इसी तरह, स्वामी रामदेव ने 'स्वदेशी जागरण' और 'भारत स्वाभिमान' जैसे आंदोलन शुरू किए। लेकिन इनका दमन हुआ, और एक महीने में ही उनकी ताकत खत्म हो गई। उनकी छवि को भी नुकसान हुआ। बॉलीवुड बॉयकॉट या भारत-पाक मैच बॉयकॉट जैसे आंदोलन भी असफल रहे।

लेकिन राम जन्मभूमि आंदोलन हो या राम मंदिर के लिए दान, संघ कभी असफल नहीं हुआ। इसका कारण है उनकी अनुशासित कार्यशैली, निस्वार्थ समर्पण और सामाजिक माहौल को समझने की कला।

रोचक बात यह है कि कई पुराने स्वयंसेवक, जो दशकों तक संघ से जुड़े रहे, जब उन्होंने अपनी अलग राह चुनी, तो उनकी छोटी-सी कोशिशें भी असफल रहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि वो पूरी तरह 'संघी' नहीं थे। जो 20-30 साल बिताने के बाद भी संघ की भावना की उनमें कमी थी, वही उनकी असफलता का कारण बनी।

भारत में आंदोलन आसानी से असफल हो जाते हैं। बुद्ध, लाल-बाल-पाल, विवेकानंद, सावरकर, बोस, यहाँ तक कि गांधी भी पूरी तरह सफल नहीं हुए। लेकिन संघ ने 75 साल की कठिनाइयों के बावजूद हमेशा जीत हासिल की। ऐसा क्यों?

क्योंकि संघ हार नहीं मानता। इस्लाम की तरह, संघ भी मानता है कि जब तक लक्ष्य पूरा न हो, काम खत्म नहीं होता। संघ ने भारत में कट्टर संगठनों, अपराधियों, नौकरशाही और सरकारों के दमन का सामना किया। उन्होंने अपनी रणनीति बदली, जरूरत पड़ी तो चुपके से काम किया (जिसे आलोचक कायरता कहते हैं), और यही उनकी सफलता का राज रहा। उनकी सफलता रातोंरात नहीं, बल्कि लंबे समय के प्रयासों का नतीजा है।

संघ के हर कार्यकर्ता में धैर्य, अनुशासन और आशावाद भरा जाता है। लोग कहते हैं कि संघ को समझने के लिए शाखा में जाना पड़ता है, लेकिन मैंने बिना शाखा गए ये सब देखा और समझा।

संघ शक्ति युगे युगे!

साभार - Eshan Singh

21/09/2025
‼️महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशंविभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं‼️🙏सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्...
21/09/2025

‼️महेशं सुरेशं सुरारार्तिनाशं
विभुं विश्वनाथं विभूत्यङ्गभूषम्।
विरूपाक्षमिन्द्वर्कवह्नित्रिनेत्रं‼️🙏
सदानन्दमीडे प्रभुं पञ्चवक्त्रम्॥२॥

🙏अर्थ: चन्द्र, सूर्य और अग्नि – तीनों जिनके नेत्र हैं, उन विरूपनयन महेश्वर, देवेश्वर, देवदुःखदलन, विभु, विश्वनाथ, विभूतिभूषण, नित्यानन्दस्वरूप, पंचमुख भगवान् महादेवकी मैं स्तुति करता हूँ।‼️🙏🙏🌅
*सुप्रभात*‼️ इति शुभम रविवार‼️

18/09/2025

Address

Chak 3MJD नाथवाणा रोड़ ; रतनपुरा
Sangaria
335063

Opening Hours

Monday 9am - 5pm
Tuesday 9am - 5pm
Wednesday 9am - 5pm
Thursday 9am - 5pm
Friday 9am - 5pm
Saturday 9am - 5pm
Sunday 9am - 5pm

Telephone

+919828293538

Alerts

Be the first to know and let us send you an email when Mahant Madhodas Udaseen posts news and promotions. Your email address will not be used for any other purpose, and you can unsubscribe at any time.

Contact The Practice

Send a message to Mahant Madhodas Udaseen:

Share

Share on Facebook Share on Twitter Share on LinkedIn
Share on Pinterest Share on Reddit Share via Email
Share on WhatsApp Share on Instagram Share on Telegram