01/06/2022
भारतीय योगदर्शन क्या है..???
आज सम्पूर्ण विश्व में भारतीय योग दर्शन के नाम पर जो शारीरिक कसरत करवाई जा रही है, उसका भारतीय योग दर्शन में वर्णित योग से कोई सम्बन्ध नहीं है. भारतीय योग का तो मूल उद्देश्य “मोक्ष” है. जिसका मार्ग पतंजलि ने अष्टांग योग (यम,नियम,आसन,प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) में दिया है पातंजल योग दर्शन में रोग का कहीं भी वर्णन नहीं मिलेगा.
भारतीय योग दर्शन में जिस योग का वर्णन है, उसका उद्देश्य मोक्ष है. मोक्ष तो मनुष्य का उच्चतम विकाश है. “मोक्ष” का अर्थ है मनुष्य अपने जीवन काल में ही पूर्णता प्राप्त कर ले. इस स्थिति पर पहुँचने पर साधक पूर्ण शांति अनुभव करता है, उसे किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक कष्ट नहीं रहता. यही नहीं, साधक सभी प्रकार के नशों से सहज में, बिना किसी प्रकार के शारीरिक और मानसिक कष्ट के, पूर्णरूप से मुक्त हो जाता है.
“सिद्धयोग” नाथ मत के योगियों की देन है. इस में सभी प्रकार के योग सम्मिलित हैं, इसलिए इसे पूर्न्योग या महायोग भी कहते हैं. इस समबन्ध में महायोगी गोरख नाथ जी ने कहा है : “भारतीय योग वेदरूपी कल्पतरु का अमर-फल है, इससे साधक के त्रिविधि ताप: - (1) आदिदेहिक (2)आदिभौतिक (3) आदिदैविक, नष्ट हो जाते हैं.
गुरु-शिष्य परंपरा में दीक्षा का विधान है. सभी प्रकार की दीक्षाओं में “शक्तिपात-दिक्षा” सर्वोत्तम है. यह भारतीय योग दर्शन का उच्चतम दिव्य विज्ञान है. इसमें गुरु चार प्रकार से साधक की कुण्डलिनी को जागृत करता है: (1) साधक के विभिन्न चक्रों को स्पर्श करके (2)मन्त्र दिक्षा (3)साधक के गुरु से दृष्टि मिलाने मात्र से (4) मानसदिक्षा, इसमें साधक अपने मन से किसी को गुरु मानकर पूर्णता प्राप्त कर सकता है, जैसे कबीर, एकलव्य.
शक्तिपात दिक्षा से जब साधक की कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है, तब वह जागृत शक्ति साधक के शरीर, मन, प्राण और बुद्धि अपने अधीन कर लेती और सभी प्रकार की यौगिक क्रियाएँ जैसे :- आसन, बन्ध, मुद्राएँ एवं प्राणायाम स्वयं सीधा अपने नियंत्रण में करवाती है. साधक इनमे किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. भौतिक विज्ञान को यह एक खुली चुनौती है.
जब गुरु कृपा रुपी शक्तिपात-दिक्षा से साधक की कुण्डलिनी जागृत हो जाती है तो वह उर्ध्व-गमन करने लगती है. इस प्रकार वह छः चक्रों और तीन ग्रंथियों :- ब्रह्मग्रंथि,विष्णुग्रंथी एवं रूद्रग्रंथि को भेदन करती हुई, साधक को समाधि-स्थिति, जो कि समत्व बोध की स्थिति है, प्राप्त करा देती है.
समाधिस्थ होने के लिए पहली शर्त है, पूर्णरोग-मुक्ति. अगर शरीर में किसी प्रकार का रोग है तो ध्यान हर समय रोग की तरफ रहेगा, साधक समाधिस्थ हो ही नहीं सकता.
वह जागृत कुण्डलिनी-शक्ति साधक के उसी अंग की यौगिक क्रियाएं करवाएगी जो बीमार हैं. इस प्रकार साधक के सभी शारीरिक रोग पूर्ण रूप से ठीक हो जाते हैं.
मानसिक रोग भी पूर्णरूप से ठीक हो जाते हैं. यह भारतीय योगदर्शन का उच्चतम दिव्य विज्ञान है. हमारे दर्शन में कई संतों ने कहा है कि ईश्वर के नाम में नशा होता है. इस सम्बन्ध में संत सद्गुरुदेव श्री नानक देव जी महाराज ने कहा है :-
भांग धतूरा नानका उतर जाय परभात
“नाम खुमारी” नानका चढ़ी रहे दिन-रात
इसी प्रकार संत कबीर दास जी ने कहा है :-
“नाम-अमल” उतरै न भाई, ओर अमल छिन-छिन चढ़ि उतरै
नाम-अमल दिन बढ़े सवायो
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में, योगी को जो परमशान्ति प्राप्त होती है, उसका कारण आनंद कहा है. गीता के पांचवे अध्याय के 21वें श्लोक तथा छठे अध्याय के 15, 21, 27 एवं 28वें श्लोक में इसे : - अक्षय आनंद, परमानंद पराकाष्ठा वाली शांति, अनंत आनंद, अति-उत्तम आनंद एवं परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति रूप अनंत आनंद कहा है.
इस प्रकार मन्त्र एवं ध्यान-योग के द्वारा साधक के सभी प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग पूर्णरूप से ठीक हो जाते हैं.
यही नहीं, साधक को सभी प्रकार के नशों से, बिना किसी प्रकार के कष्ट के सहज में पूर्ण-मुक्ति मिल जाती है. यह परिवर्तन भी वैदिक दर्शन अर्थात हिन्दू दर्शन के ठोस सिद्धांतों पर आधारित है. हिन्दू-धर्म में कल्पना को कोई स्थान नहीं है. कल्पना करना तो शेखचिल्ली का काम है.
वैदिक दर्शन में सृष्टि उत्पत्ति का कारण : - सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण को माना है. इस प्रकार हर मनुष्य में ये तीनों वृत्तियाँ होती हैं. हर एक में एक वृत्ति प्रधान होती है. जो वृत्ति प्रधान होती है, वह जिस खान-पान को पसंद करती है, उस व्यक्ति को उन्हीं वस्तुओं को खाना-पीना पड़ता है. इन तीनों वृत्तियों के खान-पान के सम्बन्ध में श्री कृष्ण ने गीता के 17वें अध्याय के 8,9 एवं 10 वें श्लोकों में विस्तार से वर्णन किया है. और गीता ही में 14 वें अध्याय के दसवें श्लोक में इन वृत्तियों के परिवर्तन की बात कही गयी है. पातंजल योग दर्शन में भी ऋषि ने कैवल्यपाद के दूसरे सूत्र में वृत्ति बदलने के सिद्धांत को स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है.
इस प्रकार, भारतीय योगदर्शन मानव जाति के पूर्ण विकाश की क्रियात्मक विधि बताता है. आज संसार में असंख्य बीमारियाँ असाध्य मानी जा रही हैं. परन्तु भारतीय योग दर्शन के लिए कोई रोग असाध्य नहीं है. कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है, उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्णरूप से स्वस्थ हो जाते हैं, अतः उनमें अभूतपूर्व ढंग से रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ जाती है. इस योग में साधक को कई प्रकार कि यौगिक मुद्राएँ स्वतः होती हैं. इन में एक मुद्रा का ना ‘खेचरी’ मुद्रा है. इसमें साधक की जीभ पीछे खिंचती है और सख्त होकर ऊपर की तरफ तालू में धंस जाती है. इस प्रकार तालू मूल के अन्दर जीभ एक विशिष्ट स्थान को दबाती है, उस दबाव के कारण ऊपर से एक प्रकार का रस टपक कर, साधक के मुहँ में आ जाता है. साधक व्यावहारिक रूप से उसका स्वाद मुंह में अनुभव करता है.