Anilyoga

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08/12/2025

रसो, गुण, वीर्य और विपाक—ये चार सिद्धांत आयुर्वेद के अनुसार भोजन और औषधि के शरीर पर प्रभाव को समझने के सबसे महत्वपूर्ण आधार हैं। भोजन जब हमारी जीभ पर स्पर्श करता है, जब पचकर रस और धातु बनाता है, जब ऊष्मा और शीत रूप में क्रिया करता है, और अंत में शरीर में कैसा परिवर्तन उत्पन्न करता है—सम्पूर्ण प्रक्रिया इन्हीं सिद्धांतों से संचालित होती है। इसलिए आयुर्वेद कहता है कि “भोजन ही औषधि है” और उसे समझने के लिए इन चार स्तंभों को जानना अत्यन्त आवश्यक है।

सबसे पहले आता है रस। रस वह स्वाद है जिसे हम जीभ से अनुभव करते हैं। छह प्रकार के रस माने गए हैं—मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त और कषाय। ये सभी रस शरीर के दोषों—वात, पित्त और कफ—पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। मधुर रस शरीर को पोषण देता है, बल और शीतलता प्रदान करता है, इसलिए यह वात और पित्त को शांत करता है पर अधिक लेने पर कफ को बढ़ाता है। अम्ल रस भूख बढ़ाता है, पाचन तेज करता है, परंतु यह पित्त वृद्धि भी कर सकता है। लवण रस शरीर में मलोत्सर्ग आसान करता है और वात शांत करता है, पर अधिकता जलन और सूजन का कारण बन सकती है। कटु रस कफ और वात दोनों को कम करता है पर पित्त को बढ़ाता है। तिक्त रस शरीर की शुद्धि करता है, विषाक्तता को घटाता है और कफ-पित्त पर नियंत्रण करता है। कषाय रस शरीर को संकुचित करता है, रक्तस्राव रोकता है, परंतु अधिक मात्रा में वात को बढ़ा देता है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों के रस उनके प्रारंभिक प्रभाव को दर्शाते हैं।

दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है गुण। गुण का अर्थ है—किसी पदार्थ का स्वभाव, उसकी विशेषता या उसकी सूक्ष्म प्रकृति। आयुर्वेद में 20 गुणों का वर्णन मिलता है—गुरु-लघु, ठण्डा-गरम, स्निग्ध-रूक्ष, स्थिर-चालक, मंद-तीक्ष्ण, महीन-स्थूल, कोमल-कठोर, श्लक्ष्ण-खर, घना-द्रव आदि। उदाहरण के लिए जो भोजन स्निग्ध (तेलयुक्त) और गुरु (भारी) गुण वाला है, वह पचने में समय लेगा पर शरीर को पोषकता देगा। वहीं रूक्ष (सूखा) और लघु (हल्का) भोजन जल्दी पचेगा पर पोषण कम देगा। गुण, रस के प्रभाव को बढ़ाने, घटाने और बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए आयुर्वेद में सिर्फ स्वाद देखकर भोजन का चयन नहीं किया जाता, बल्कि उसके गुणों को भी ध्यान में रखा जाता है।

तीसरा सिद्धांत है वीर्य। वीर्य का अर्थ है—किसी पदार्थ की ऊष्मा या शीतलता, और इसका तुरंत प्रभाव जिसे शरीर में प्रवेश करते ही अनुभव किया जा सके। दो प्रकार के वीर्य माने गए हैं—ऊष्ण (गरम) और शीत (ठंडा)। ऊष्ण वीर्य अग्नि को बढ़ाता है, विपाक को तीव्र करता है, रक्तसंचार सक्रिय करता है और शरीर में पसीना व उष्णता उत्पन्न करता है। अदरक, काली मिर्च, लहसुन जैसे पदार्थ ऊष्ण वीर्य वाले माने जाते हैं। इसके विपरीत, शीत वीर्य पित्त को शांत करता है, सूजन कम करता है, और शरीर को ठंडक देता है। नारियल पानी, खीरा, घी आदि शीत वीर्य वाले हैं। कभी-कभी रस और वीर्य में अंतर होता है। उदाहरण के लिए—अमलत्वरहित मीठे दही में मधुर रस है पर इसका वीर्य ऊष्ण है, इसलिए यह पित्त बढ़ा सकता है। यह दर्शाता है कि केवल स्वाद देखकर शरीर पर होने वाले प्रभाव का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। वीर्य ही तत्कालिक प्रभाव का असली निर्धारक है।

चौथा और सबसे अंतिम चरण है विपाक। विपाक वह प्रभाव है जो भोजन के पूर्ण पचने के बाद, धातु निर्माण के समय शरीर में दिखाई देता है। यह रस और वीर्य से बाद का परिणाम है। विपाक तीन प्रकार का माना जाता है—मधुर विपाक, अम्ल विपाक और कटु विपाक। जिस भोजन का अंतिम परिणाम शरीर को बल और स्थिरता दे, वह मधुर विपाक वाला होता है। यह कफ को बढ़ाता है और वात-पित्त को शांत करता है। अम्ल विपाक कफ को बढ़ाता है और पित्त को अधिक करता है। कटु विपाक शरीर की सफाई करता है, कफ-मेद (चर्बी) को कम करता है लेकिन अधिकता वात बढ़ा सकती है। उदाहरण के लिए—अंगूर का रस मधुर है, वीर्य भी शीत है, और विपाक भी मधुर है, इसलिए यह पित्त और वात को शांत करता है। लेकिन मिर्च का रस कटु, वीर्य ऊष्ण और विपाक कटु होता है, इसलिए यह पित्त को तीव्र करने वाला माना जाता है।

आयुर्वेद इन चारों सिद्धांतों को एक साथ मिलाकर देखता है। रस प्रारंभिक स्वाद है, गुण उसकी प्रकृति, वीर्य तत्कालिक प्रतिक्रिया और विपाक दीर्घकालिक परिणाम। यदि किसी व्यक्ति को पित्त बढ़ने की समस्या है, उसे कटु, अम्ल और ऊष्ण वीर्य वाले पदार्थ कम दिए जाते हैं और मधुर, शीत और स्निग्ध गुण वाले पदार्थ अधिक। इसी तरह वात अधिक होने पर गर्म, स्निग्ध और गुरु गुण वाले आहार आवश्यक होते हैं। अतः भोजन का चयन व्यक्ति की प्रकृति (वात-पित्त-कफ), उसकी आयु, ऋतु, रोग-स्थिति और पाचन-अग्नि के अनुसार होना चाहिए।

भोजन शरीर में केवल पोषण ही नहीं, बल्कि मानसिक और दैहिक संतुलन भी बनाए रखता है। जिस भोजन का रस, गुण, वीर्य और विपाक दोषों को संतुलित रखते हैं, वही सत्त्व वृद्धि कर मन को शांत करता है। दूषित, गलत संयोजन या अत्यधिक मात्रा में लिया गया भोजन इन सभी सिद्धांतों को बाधित कर रोगों को जन्म देता है। आयुर्वेद इसलिए हमेशा “हितभोजन” पर बल देता है—जिसका अर्थ है सही मात्रा, सही समय, सही तरीके से ग्रहण किया गया भोजन।

यह समझना भी आवश्यक है कि आधुनिक पोषण विज्ञान भोजन को विटामिन, मिनरल, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट जैसे घटकों में बाँटकर देखता है, जबकि आयुर्वेद भोजन को संपूर्ण ऊर्जा-स्वरूप मानता है, जिसके गुण केवल प्रयोग से सिद्ध होते हैं। हर पदार्थ शरीर में अलग-अलग प्रकार की अग्नि, धातु व ऊर्जा प्रवाह को प्रभावित करता है। इसलिए आयुर्वेद के अनुसार भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि जीवन, स्वास्थ्य और चेतना का आधार है।

समापन में इन चारों सिद्धांतों को एक वाक्य में समझें तो—
रस बताता है कि भोजन जिह्वा पर कैसा लगता है,
गुण बताता है कि उसकी प्रकृति क्या है,
वीर्य बताता है कि उसका तत्काल प्रभाव कैसा है,
और विपाक बताता है कि उसका अंतिम परिणाम शरीर को कैसा रूप देता है।

इन सिद्धांतों की समझ जीवन में साक्षात् स्वास्थ्य प्राप्त करने का मार्ग है। जो व्यक्ति अपने आहार को इन मानकों के अनुसार समझकर ग्रहण करता है, वह न केवल रोगों से बचा रहता है बल्कि दीर्घायु, ऊर्जा-पूर्ण और संतुलित जीवन प्राप्त करता है।

08/12/2025

ऋतु में परिवर्तन प्रकृति का स्वाभाविक नियम है और चरक संहिता में इस परिवर्तन के अनुसार जीवनचर्या को समायोजित करने पर विशेष बल दिया गया है। क्योंकि शरीर और प्रकृति का गहरा संबंध है, इसलिए ऋतु परिवर्तन का प्रभाव सीधे दोषों पर पड़ता है। जब हम ऋतु के अनुरूप आहार-विहार नहीं अपनाते, तब दोषों में वृद्धि होकर रोग उत्पन्न होते हैं। छः ऋतुएँ — हेमंत, शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद — प्रत्येक में भिन्न-भिन्न नियम व निषेध बताए गए हैं। चरक संहिता के अनुसार ऋतुचर्या स्वयं को प्रकृति के साथ संतुलित करने की कला है।

हेमंत ऋतु (मार्गशीर्ष–पौष) में सूर्य का प्रभाव कम और ठंड अधिक होती है। इस ऋतु में वात शांत होता है और पित्त संचित रहता है, जबकि कफ बढ़ने की प्रवृत्ति शुरू होती है। इस समय शरीर की अग्नि बलवान हो जाती है, इसलिए पौष्टिक और ऊर्जा देने वाला भोजन लेना लाभकारी है। घी, तिल, मूंगफली, दूध, उष्ण गुण वाले आहार और मांसाहार लेने का निर्देश है। तेल से अभ्यंग, भाप स्नान, ऊनी वस्त्र का उपयोग, देर तक धूप सेकना हितकारी है। अत्यधिक ठंड में रहना या उपवास शरीर को दुर्बल कर सकता है।

शिशिर ऋतु (माघ–फाल्गुन) हेमंत से भी अधिक शीतल होती है। इस समय कफ अधिक संचयित होने लगता है और पित्त धीरे-धीरे मंद होता है। तिल का तेल, गुड़, सूप, यव, गेहूँ, जौ, गरम मसाले उपयोगी हैं। मध, अदरक, सोंठ का सेवन कफ को नियंत्रित करता है। शारीरिक श्रम, योग, व्यायाम, सूर्यस्नान शरीर की प्रतिरक्षा को बढ़ाते हैं। ठंडी वस्तुएँ, बर्फ, ठंडा जल, देर रात जागरण से बचना चाहिए।

वसंत ऋतु (चैत्र–वैशाख) में सूर्य का ताप बढ़ने लगता है और जमी हुई कफ दोष पिघलकर बढ़ जाती है। इसी कारण जुकाम, एलर्जी, त्वचा रोग और ज्वर अधिक होते हैं। चरक संहिता में इस ऋतु को कफ शमन के लिए उपयुक्त बताया गया है। मधुर, अम्लीय, लवणयुक्त आहार कम करें, तथा जौ, चना, मूंग, कुल्थी, शहद, हल्के और आसानी से पचने वाले पदार्थ उपयोगी हैं। व्यायाम, उड्वर्तन (लेप मलना) और शहद का सेवन कफ को हटाता है। दिन में सोना निषिद्ध है क्योंकि यह कफ को बढ़ाता है। गले में पनपने वाली समस्याओं से बचाव के लिए गर्म पानी और त्रिकटु उपयोगी माना गया है।

ग्रीष्म ऋतु (ज्येष्ठ–आषाढ़) में सूर्य का ताप अत्यंत प्रबल होता है, जिससे शरीर का रस एवं ओज सूखने लगता है। इस समय पित्त का संचय शुरू होता है और वात प्रकुपित होता है। अतः अधिक श्रम, धूप, उपवास – सब हानिकारक हैं। पानी, शर्बत, ठंडे गुण वाले आहार जैसे दूध, घी, दही का मठा, नारियल पानी शरीर को शीतलता प्रदान करते हैं। तरबूज, खरबूजा, शक्करयुक्त पेय सीमित रूप में उपयोगी हैं। शराब, तली चीजें, मिर्च-मसाले और धूप में अधिक समय बिताने से बचना चाहिए। रात्रि में खुले वातावरण में हल्की ठंडक का अनुभव लाभकारी है, परन्तु दिन में सोना वात को बढ़ा देता है।

वर्षा ऋतु (श्रावण–भाद्रपद) में वातावरण में नमी और आर्द्रता बढ़ जाती है। इस समय दोषों में विशेषकर वात का प्रकोप होता है और अग्नि अत्यंत मंद हो जाती है। पाचन तंत्र कमजोर पड़ने से अन्न का पाचन कठिन हो जाता है। इस ऋतु में उबला हुआ और हल्का गुनगुना पानी, नींबू, अदरक, शहद, लाभकारी हैं। भाप, तेल अभ्यंग, गरम भोजन उत्तम है। कच्चा सलाद, हरी पत्तेदार सब्जियाँ, बासी भोजन, दही, तथा नदी का जल चरक ने वर्जित कहा है। इस ऋतु में योनि एवं त्वचा रोग अधिक होते हैं क्योंकि कीट-पतंगों का प्रकोप बढ़ता है। वमन-विरेचन जैसे शोधन कर्म से बचकर, बस्ती चिकित्सा लाभकारी रहती है।

शरद ऋतु (आश्विन–कार्तिक) में वर्षा के बाद सूर्य की तेज तपिश से पित्त का प्रकोप बढ़ जाता है। त्वचा रोग, आँखों में जलन, रक्तदोष, अपच, अम्लपित्त अधिक देखने को मिलते हैं। इस ऋतु में चावल, घी, मीठे फल (अनार, सेब), चंदनयुक्त पेय, शीतल गुण वाले पदार्थ लाभ देते हैं। सूर्य की तीव्र किरणों से बचना आवश्यक है। तिक्त एवं कषाय रस जैसे नीम, करेला, गिलोय का सेवन पित्त शमन में सहायक है। रात्रि में चन्द्रमा की शीतल किरणों का लाभ लेना भी चरक ने हितकारी बताया है। शराब, तला-भुना, अत्यधिक नमक-मसाले से बचना चाहिए।

इन सभी ऋतुओं में एक विशेष सिद्धांत चरक संहिता में वर्णित है — “विपरीत गुण” का प्रयोग। अर्थात जिस ऋतु में जैसा प्रभाव प्रकृति में हो, शरीर में उसके विपरीत गुणों वाले आहार-विहार अपनाए जाएँ। ठंड में उष्ण और गर्मी में शीतल गुण। इसी तरह दोष संचय, प्रकोप और शमन चक्र को समझकर जीवनचर्या को समायोजित करना स्वास्थ संरक्षण की कुंजी है।

ऋतुचर्या का उद्देश्य केवल रोगों से बचना नहीं, बल्कि ऋतु के प्राकृतिक गुणों का उपयोग कर शरीर और मन को श्रेष्ठ बनाना है। इस ज्ञान के बिना मनुष्य प्रकृति से असंगत होकर रोगी बन जाता है। चरक संहिता स्पष्ट कहती है कि स्वस्थ व्यक्ति को भी ऋतु परिवर्तन के अनुसार “आहार-विहार-आचार” में परिवर्तन करना चाहिए, अन्यथा दोषों का असंतुलन धीरे-धीरे गंभीर रोगों का कारण बनता है।

व्यक्ति की प्रकृति, आयु, भूगोल और शक्ति के अनुसार परिवर्तन लचीले ढंग से किए जा सकते हैं, परंतु मूल सिद्धांत वही रहते हैं — ऋतु के अनुसार जीना ही आयुर्वेद का सर्वोच्च स्वास्थ्य रहस्य है। इस प्रकार ऋतुचर्या का पालन करना शरीर की प्रतिरक्षा, पाचन, बल, ओज और मानसिक शांति का आधार है। चरक संहिता में इसे “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्” के रूप में उच्च स्थान दिया गया है, जिससे स्पष्ट है कि रोग न होने देना ही सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा है।

07/12/2025

टेस्टॉस्ट्रोन बढ़ाने वाले फल प्राकृतिक पोषण और धातु-वर्धन के श्रेष्ठ स्रोत माने जाते हैं। ये फल शरीर की आंतरिक अग्नि, वीर्य-पोषण, ऊर्जा और पुरुषत्व के गुणों को सुदृढ़ करने में सहायक हैं। अनार वीर्यपोषक फल के रूप में विख्यात है। इसके नियमित सेवन से रक्तसंचार सुधरता है, जिससे पुरुष शक्ति और धैर्य बढ़ता है। इसके दानों में उपस्थित विशेष तत्व वृषणों की क्रियाशीलता को पुष्ट करते हैं। केला स्निग्ध, मधुर और धातु-वर्धक माना गया है। इसमें पाए जाने वाले विशेष खनिज स्नायुतंत्र को मज़बूत कर हार्मोन संतुलन बनाए रखते हैं। यह ऊर्जा प्रदान कर शारीरिक थकावट को दूर करता है, जिससे दैहिक बल और कामशक्ति बनी रहती है।

अंजीर रस और वीर्य की मात्रा बढ़ाने वाला फल है। यह धातुओं को पोषण देता है और निरंतर सेवन से शुक्राणु शक्ति मजबूत होती है। खजूर अत्यंत बलवर्धक माना गया है। यह शरीर को तुरंत ऊर्जा देकर पुरुषों में शक्ति, उत्साह और कामोत्तेजना को बनाए रखता है। इसकी गर्म प्रकृति शुक्रधातु को गाढ़ा करती है और पुरुषत्व की जड़ को मजबूत रखती है। काले अंगूर और मुनक्का शुक्रवर्धक फल हैं। इनके नियमित सेवन से शरीर बलवान होता है, शरीर का रक्त शुद्ध होता है और कमजोरी दूर होती है, जिससे स्वाभाविक रूप से टेस्टॉस्ट्रोन निर्माण बढ़ता है।

तरबूज में पाया जाने वाला विशेष तत्व शरीर में रक्तवाहिनियों को प्रसारित करता है, जिससे पुरुष शक्ति वृद्धि में सहायता मिलती है। यह शरीर की उष्णता को शांत करते हुए यौन-ऊर्जा को बनाए रखने में सहायक है। एवोकाडो में उपस्थित प्राकृतिक तैल और विटामिन हार्मोन निर्माण की मूल सामग्रियों में वृद्धि करते हैं। यह शरीर में पोषण के साथ स्निग्धता प्रदान करता है, जिससे वीर्य उत्तम गुणवत्ता का बनता है।

नारियल, विशेषकर इसका गूदा, शरीर में आवश्यक वसा और पोषक तत्व प्रदान करता है जिससे हार्मोन उत्पादन की क्षमता बढ़ती है। नारियल जल भी शरीर को शुद्ध और तरलता प्रदान कर कोशिकाओं की कार्यक्षमता बढ़ाता है। अनानास पाचन क्रिया को सुधारकर धातु-पोषण में सहायक है। जब पाचन सुधरता है तो रसधातु से लेकर शुक्रधातु तक सभी को भरपूर पोषण मिलता है और पुरुषत्व शक्ति सुदृढ़ होती है।

संतरा, कीवी और अमरूद जैसे विटामिन C युक्त फल प्रजनन कोशिकाओं की रक्षा करते हैं। इनके सेवन से वृषण कोशिकाएँ मुक्त कणों की क्षति से बचती हैं, जिससे हार्मोन निर्माण की प्रक्रिया मजबूत बनी रहती है। सेब ओज बढ़ाने वाला और वातहर फल है। यह मानसिक और शारीरिक बल दोनों को बढ़ाता है। पपीता पाचन अग्नि को बल देता है, जिससे खाए गए पोषक तत्व प्रभावी रूप से शुक्रधातु तक पहुँचते हैं।

अनानास और स्ट्रॉबेरी जैसे फल शरीर में रक्त प्रवाह को सहज बनाते हैं और सहवास क्षमता को सुधारते हैं। सूखे मेवे, विशेषकर किशमिश, मुनक्का और खजूर का प्रयोग दूध के साथ किया जाए तो और अधिक लाभदायक होता है। ये सभी वीर्य को समृद्ध, गाढ़ा और शक्तिशाली बनाते हैं।

इन फलों का उपयोग तब अधिक लाभदायक होता है जब इन्हें नियमित, संतुलित मात्रा और सही समय—मुख्यत: दिन के पहले हिस्से में—सेवन किया जाए। रात में बहुत अधिक फल, विशेषकर अत्यधिक मीठे या भारी फल, पाचक अग्नि को बाधित कर सकते हैं। इसके विपरीत सुबह या मध्याह्न में सेवन शरीर में ऊर्जा बढ़ाकर हार्मोन निर्माण की प्रक्रिया को और तेज करता है।

जो पुरुष अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या में इन फलों को सम्मिलित कर लेते हैं, वे स्वाभाविक रूप से शक्ति, उत्साह और यौन स्वास्थ्य में निरंतर सुधार अनुभव करते हैं। इन फलों के माध्यम से मिलने वाला प्राकृतिक पोषण टेस्टॉस्ट्रोन स्तर को बिना किसी दुष्प्रभाव के बढ़ाने में सहायक होता है, जिससे पुरुषत्व की चमक, आत्मविश्वास और शारीरिक सामर्थ्य जीवन भर बनी रहती है।

07/12/2025

सफेद मूसली और काली मूसली दोनों आयुर्वेद में वाजीकरण द्रव्यों में प्रमुख मानी जाती हैं। दोनों का प्रयोग शुक्रधातु को मजबूत करने, पुरुष एवं महिला प्रजनन क्षमता को बढ़ाने और पूरे शरीर को बल एवं ऊर्जा प्रदान करने में किया जाता है। लेकिन इन दोनों में गुण, प्रभाव, प्रकृति और उपयोग के आधार पर महत्वपूर्ण अंतर पाया जाता है। सफेद मूसली को क्लोरोफाइटम बोरिविलियनम कहा जाता है, जबकि काली मूसली का वनस्पतिक नाम क्यूरोलीगो ऑर्फियॉइड्स है। सफेद मूसली का स्वाद मधुर और प्लेट में नरम होता है, जबकि काली मूसली स्वाद में कषाय-तिक्त तथा रासायनिक गुणों में अधिक प्रबल होती है। सफेद मूसली का प्रमुख प्रभाव शुक्रवर्धक तथा बल्य होता है, वहीं काली मूसली का प्रभाव अधिक उत्तेजक तथा तेज़ वाजीकरण की श्रेणी में आता है।

आयुर्वेद के अनुसार सफेद मूसली शीतवीर्य मानी जाती है। यह अत्यधिक गर्मी, पित्त वृद्धि और धातु क्षय वाले व्यक्तियों के लिए श्रेष्ठ है। यह शरीर को पोषण देती है, मांसधातु बढ़ाती है और वीर्य की गुणवत्ता सुधारती है। जिन लोगों में कमज़ोरी, थकावट, तनाव और शारीरिक दुर्बलता होती है, उन्हें सफेद मूसली अत्यधिक लाभ देती है। काली मूसली इसके विपरीत उष्णवीर्य है। यह शारीरिक जड़ता और शुक्रक्षीणता के साथ-साथ उत्तेजना और स्तंभन शक्ति को बढ़ाती है। इसमें शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट और हॉर्मोन संतुलित करने वाले गुण पाए जाते हैं। काली मूसली विशेष रूप से उन लोगों के लिए उपयोगी है जिनमें टेस्टोस्टेरोन का स्तर कम हो, नसों की कमजोरी से स्तंभन में कठिनाई आती हो या यौन इच्छा कम होती हो।

सफेद मूसली में सैपोनीन, अल्कलॉइड्स, फाइबर और प्राकृतिक शर्करा की मात्रा अधिक होती है। यह पाचन को संतुलित रखती है और शरीर की अग्नि को मध्यम रूप से बढ़ाती है। काली मूसली में सैपोनीन के साथ-साथ स्टेरॉइडल तत्व अधिक होते हैं, जिनसे पुरुषों में एंड्रोजन स्तर सुधारने में मदद मिलती है। यह मांसपेशियों की वृद्धि, हड्डियों को मजबूती और सहनशक्ति में वृद्धि करती है। सफेद मूसली का उपयोग स्तनपान कराने वाली महिलाओं में दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए भी किया जाता है, वहीं काली मूसली माहवारी की अनियमितता और गर्भाधान शक्ति सुधारने में सहायक मानी जाती है।

यौन स्वास्थ्य में सफेद और काली मूसली दोनों का योगदान अलग-अलग स्थितियों में देखा जाता है। सफेद मूसली शीघ्रपतन, वीर्य की पतलापन और शुक्राणुओं की संख्या कम होने पर उत्तम है। यह शुक्र को स्थिर करती है और उसकी पोषक गुणवत्ता को बढ़ाती है। काली मूसली स्तंभन दोष, यौन इच्छा में कमी और नपुंसकता की स्थिति में अधिक उपयुक्त है। यह नाड़ी-तंत्र को बल देती है और जननेंद्रिय में रक्त प्रवाह बढ़ाकर प्राकृतिक उत्तेजना प्रदान करती है।

दोनों मूसलियों का प्रभाव केवल यौन क्षमता तक सीमित नहीं है। सफेद मूसली प्रतिरक्षा बढ़ाती है, बच्चों में वृद्धि और विकास में मदद करती है, मधुमेह में रक्तशर्करा नियंत्रित करने में सहायक है और हृदय को भी पोषण देती है। गठिया और जोड़ों के दर्द में यह वात को शांत कर लाभ पहुँचाती है। काली मूसली शारीरिक थकान, खेल-कूद में सहनशक्ति बढ़ाने, स्नायविक कमजोरी दूर करने और तनाव कम करने में उपयोगी है। इसमें एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण भी पाए जाते हैं जो शरीर के आंतरिक सूजन को कम करते हैं।

सफेद मूसली को दूध, घी, शहद, मिश्री और शतावरी के साथ मिलाकर देना फायदेमंद माना जाता है। यह पाचन को भारी किए बिना शरीर को पोषण देती है और निरंतर सेवन से कमजोरी दूर होती है। काली मूसली का उपयोग प्रायः अश्वगंधा, शिलाजीत, गोक्षुर या विदारीकंद के साथ मिलाकर किया जाता है ताकि इसकी उत्तेजक शक्ति संतुलित हो सके। इसे भी दूध के साथ लेना श्रेष्ठ है क्योंकि दूध धातुएँ बढ़ाने वाला माना जाता है और मूसलियों के प्रभाव को शरीर तक पहुँचाने में मदद करता है।

दोनों के सेवन में मात्रा और व्यक्ति की प्रकृति का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति काली मूसली का अधिक मात्रा में सेवन करें तो गर्मी, मुंह के छाले या सिरदर्द की समस्या हो सकती है। वहीं कफ प्रकृति वाले व्यक्ति सफेद मूसली अधिक मात्रा में लें तो पाचन मंद पड़ सकता है या वजन बढ़ सकता है। आयुर्वेद में किसी भी औषधि का प्रयोग व्यक्ति की प्रकृति, रोग की स्थिति और अग्नि के अनुसार किया जाना चाहिए।

सफेद मूसली की जड़ें चिकनी, हल्की सफेद और थोड़ी मीठी होती हैं, जबकि काली मूसली की जड़ें काली या गहरे भूरे रंग की होती हैं जिनका स्वाद कड़वा-तिक्त होता है। बाज़ार में नकली काली मूसली अधिक मिलती है, इसलिए इसे विश्वसनीय स्रोत से ही लेना चाहिए। सफेद मूसली अपेक्षाकृत अधिक मिल जाती है, परंतु शुद्ध और जंगली मूसली की पहचान विशेषज्ञ ही कर सकते हैं। दोनों को पाउडर, अर्क, चूर्ण और कैप्सूल के रूप में उपयोग किया जाता है।

आयुर्वेद के प्रतिष्ठित ग्रंथों में मूसलीय पाक, मूसली लेह और वाजीकरण योगों में सफेद और काली मूसली का उत्तम प्रयोग बताया गया है। ये द्रव्य शरीर में ओज को बढ़ाते हैं, जिससे दीर्घायु, चमकदार त्वचा, मजबूत मांसपेशियाँ और स्वाभाविक यौन शक्ति प्राप्त होती है। वृद्धावस्था में इनका नियमित एवं नियंत्रित उपयोग जीवनशक्ति को बनाए रखने में सहायक होता है।

07/12/2025

जिस दिन दुनिया में सेक्‍स स्‍वीकृत होगा, जैसा कि भोजन, स्‍नान स्‍वीकृत है उस दिन दुनिया में अश्‍लील पोस्‍टर नहीं लगेंगे, अश्‍लील किताबें नहीं छपेगी, अश्‍लील मंदिर नहीं बनेंगे क्‍योंकि जैसे-जैसे वह स्‍वीकृति होता जाएगा, अश्‍लील पोस्‍टरों को बनाने की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी।

अगर किसी समाज में भोजन वर्जित कर दिया जाये और कह दिया जाये कि भोजन छिपकर खाना। कोई देख न ले। अगर किसी समाज में यह हो कि भोजन करना पाप है, तो भोजन के पोस्‍टर सड़कों पर लगने लगेंगे फौरन क्‍योंकि आदमी तब पोस्‍टरों से भी तृप्‍ति पाने की कोशिश करेगा। पोस्‍टर से तृप्‍ति तभी पायी जाती है जब जिंदगी तृप्‍ति देना बंद कर देती है और जिंदगी में तृप्‍ति पाने का द्वार बंद हो जाता है।

मैं युवकों से कहना चाहूंगा कि तुम जिस दुनिया को बनाने में संलग्न हो, उसमें सेक्‍स को वर्जित मत करना अन्‍यथा आदमी और भी कामुक से कामुक होता चला जाएगा। मेरी यह बात देखने में बड़ी उलटी लगेगी। अख़बार वाले और नेतागण चिल्‍ला-चिल्‍ला कर घोषणा करते है कि मैं लोगों में काम का प्रचार कर रहा हूं। सच्‍चाई उलटी है कि मैं लोगों को काम से मुक्‍त करना चाहता हूं और प्रचार वे कर रहे है। लेकिन उनका प्रचार दिखाई नहीं पड़ता। क्‍योंकि हजारों साल की परंपरा से उनकी बातें सुन-सुन कर हम अंधे और बहरे हो गये है। हमें ख्‍याल ही रहा कि वे क्‍या कह रहे है। मन के सूत्रों का, मन के विज्ञान का कोई बोध ही नहीं रहा। कि वे क्‍या कर रहे है। वे क्‍या करवा रहे है। इसलिए आज जितना कामुक आदमी भारत में है। उतना कामुक आदमी पृथ्‍वी के किसी कोने में नहीं है।

मेरे एक डाक्‍टर मित्र इंग्‍लैण्‍ड के एक मेडिकल कांफ्रेंस में भाग लेने गये थे। व्‍हाइट पार्क में उनकी सभा होती थी। कोई पाँच सौ डाक्‍टर इकट्ठे थे। बातचीत चलती थी। खाना पीना चलता था। लेकिन पास की बेंच पर एक युवक और युवती गले में हाथ डाले अत्‍यंत प्रेम में लीन आंखे बंद किये बैठे थे। उन मित्र के प्राणों में बेचैनी होने लगी। भारतीय प्राण में चारों तरफ झांकने का मन होता है। अब खाने में उनका मन न रहा। अब चर्चा में उनका रस न रहा। वे बार-बार लौटकर उस बेंच की ओर देखने लगे। पुलिस क्‍या कर रही है। वह बंद क्‍यों नहीं करती ये सब। ये कैसा अश्‍लील देश है। यह लड़के और लड़की आँख बंद किये हुए चुपचाप पाँच सौ लोगों की भीड़ के पास ही बेंच पर बैठे हुए प्रेम प्रकट कर रहे है। कैसे लोग है यह क्‍या हो रहा है। यह बर्दाश्‍त के बाहर है। पुलिस क्‍या कर रही है। बार-बार वहां देखते।

पड़ोस के एक आस्‍ट्रेलियन डाक्‍टर ने उनको हाथ के इशारा किया ओर कहा, बार-बार मत देखिए, नहीं तो पुलिसवाला आपको यहां से उठा कर ले जायेगा। वह अनैतिकता का सबूत है। यह दो व्‍यक्‍तियों की निजी जिंदगी की बात है। और वे दोनों व्‍यक्‍ति इसलिए पाँच सौ लोगों की भीड़ के पास भी शांति से बैठे है, क्‍योंकि वे जानते है कि यहां सज्‍जन लोग इकट्ठे है, कोई देखेगा नहीं। किसी को प्रयोजन भी क्‍या है। आपका यह देखना बहुत गर्हित है, बहुत अशोभन है, बहुत अशिष्‍ट है। यह अच्‍छे आदमी का सबूत नहीं है। आप पाँच सौ लोगों को देख रहे है कोई भी फिक्र नहीं कर रहा। क्‍या प्रयोजन है किसी से। यह उनकी अपनी बात है। और दो व्‍यक्‍ति इस उम्र में प्रेम करें तो पाप क्‍या है ? और प्रेम में वह आँख बंद करके पास-पास बैठे हों तो हर्ज क्‍या है ? आप परेशान हो रहे है। न तो कोई आपके गले में हाथ डाले हुए है, न कोई आपसे प्रेम कर रहा है।

वह मित्र मुझसे लौटकर कहने लगे कि मैं इतना घबरा गया किये कैसे लोग है। लेकिन धीरे-धीरे उनकी समझ में यह बात पड़ी की गलत वे ही थे। हमारा पूरा मुल्‍क ही एक दूसरे घर में दरवाजे के होल बना कर झाँकता रहता है। कहां क्‍या हो रहा है ?
कौन क्‍या कर रहा है ?
कौन जा रहा है ?
कौन किसके साथ है ?
कौन किसके गले में हाथ डाले है ?
कौन किसका हाथ-हाथ में लिए है ?
क्‍या बदतमीजी है, कैसी संस्‍कारहीनता है ?
यह सब क्‍या है ?
यह क्‍यों हो रहा है ? यह हो रह है इसलिए कि भीतर वह जिसको दबाता है, वह सब तरफ से दिखाई पड़ रहा है। वही दिखाई पड़ रहा है।

युवकों से मैं कहना चाहता हूं कि तुम्‍हारे मां बाप, तुम्‍हारे पुरखे, तुम्‍हारी हजारों साल की पीढ़ियाँ सेक्‍स से भयभीत रही है। तुम भयभीत मत रहना। तुम समझने की कोशिश करना उसे। तुम पहचानने की कोशिश करना। तुम बात करना। तुम सेक्‍स के संबंध में आधुनिक जो नई खोज हुई है उनको पढ़ना, चर्चा करना और समझने की कोशिश करना कि सेक्‍स क्‍या है।
क्‍या है सेक्‍स का मैकेनिज्म ?
उसका यंत्र क्‍या है ?
क्‍या है उसकी आकांक्षा ?
क्‍या है उसकी प्‍यास ?
क्‍या है प्राणों के भीतर छिपा हुआ राज ?
इसको समझना। इसकी सारी की सारी वैज्ञानिकता को पहचाना। उससे भागना, ‘एस्‍केप’ मत करना। आँख बंद मत करना। और तुम हैरान हो जाओगे कि तुम जितना समझोगे, उतने ही मुक्‍त हो जाओगे। तुम जितना समझोगे, उतने ही स्‍वस्‍थ हो जाओगे। तुम जितना सेक्‍स के फैक्‍ट को समझ लोगे, उतना ही सेक्स के ‘फिक्‍शन’ से तुम्‍हारा छुटकारा हो जायेगा।

तथ्‍य को समझते ही आदमी कहानियों से मुक्‍त हो जाता है और जो तथ्‍य से बचता है, वह कहानियों में भटक जाता है। कितनी सेक्‍स की कहानियां चलती हे। और कोई मजाक ही नहीं है हमारे पास, बस एक ही मजाक है कि सेक्‍स की तरफ इशारा करें और हंसे। हद हो गई। तो जो आदमी सेक्‍स की तरफ इशारा करके हंसता है, वह आदमी बहुत ही क्षुद्र है। सेक्‍स की तरफ इशारा करके हंसने का क्‍या मतलब है ? उसका एक ही मतलब है कि आप समझते ही नहीं।

यह मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जिस देश में भी सेक्‍स की स्‍वस्‍थ रूपा से स्‍वीकृति नहीं होती, उस देश की प्रतिभा का जन्‍म नहीं होता। पश्‍चिम में तीस वर्षो में जो जीनियस पैदा हुआ है, जो प्रतिभा पैदा हुई है। वह सेक्‍स के तथ्‍य की स्‍वीकृति से पैदा हुई है।

सेक्‍स जीवन का अद्भुत रहस्‍य है। वह जीवन की अद्भुत मिस्ट्रि है। उससे कोई घबरानें की,भागने की जरूरत नहीं है। जिस दिन हम इसे स्‍वीकार कर लेंगे, उस दिन इतनी बड़ी उर्जा मुक्‍त होगी भारत में कि हम न्‍यूटन पैदा कर सकेंगे, हम आइंस्‍टीन पैदा कर सकेंगे। उस दिन हम चाँद-तारों की यात्रा करेंगे। लेकिन अभी नहीं। अभी तो हमारे लड़कों को लड़कियों के स्‍कर्ट के आस पास परिभ्रमण करने से ही फुरसत नहीं है। चाँद तारों का परिभ्रमण कौन करेगा। लड़कियां चौबीस घंटे अपने कपड़ों को चुस्‍त करने की कोशिश करें या कि चाँद तारों का विचार करें। यह नहीं हो सकता। यह सब सेक्सुअलिटी का रूप है।

यह सब कैसा रोग है, यह कैसा डिसीज्‍ड माइंड, विकृत दिमाग है हमारा। हम सेक्‍स के तथ्‍यों की सीधी स्‍वीकृति के बिना इस रोग से मुक्‍त नहीं हो सकते। यह महान रोग है।

इस पूरी चर्चा में मैंने यह कहने की कोशिश की है कि मनुष्‍य को क्षुद्रता से उपर उठना है। जीवन के सारे साधारण तथ्‍यों से जीवन के बहुत ऊंचे तथ्‍यों की खोज करनी है। सेक्‍स सब कुछ नहीं है। परमात्‍मा भी है दुनिया में। लेकिन उसकी खोज कौन करेगा। सेक्‍स सब कुछ नहीं है इस दुनिया में सत्‍य भी है। उसकी खोज कौन करेगा। यहीं जमीन से अटके अगर हम रह जायेंगे तो आकाश की खोज कौन करेगा। पृथ्‍वी के कंकड़ पत्‍थरों को हम खोजते रहेंगे तो चाँद तारों की तरफ आंखे उठायेगा कौन ?

नहीं, मैं कहता हूं इस पृथ्‍वी से मुक्‍त होना है,ताकि आकाश दिखाई पड़ सके। शरीर से मुक्‍त होना है। ताकि आत्‍मा दिखाई पड़ सके। और सेक्‍स से मुक्‍त होना है, ताकि समाधि तक मनुष्‍य पहुंच सके। लेकिन उस तक हम नहीं पहुंच सकेंगे। अगर हम सेक्‍स से बंधे रह जाते है तो। और सेक्‍स से हम बंध गये है। क्‍योंकि हम सेक्‍स से लड़ रहे है। लड़ाई बाँध देती है। समझ मुक्‍त कर देती है। अंडरस्टैंडिंग चाहिए समझ चाहिए।

हम दूसरी चीजों के संबंध में साफ हो गये है। शायद केमेस्‍ट्री के संबंध में कोई बात जाननी हो तो सब साफ है। फ़िज़िक्स के संबंध में कोई बात जाननी है तो सब साफ है। भूगोल के बाबत जाननी हो तो सब साफ है। नक्‍शे बने हुए है। लेकिन आदमी के बाबत साफ नहीं है। कहीं कोई नक्‍शा नहीं है। आदमी के बाबत सब झूठ है। दुनिया सब तरफ से विकसित हो रही है। सिर्फ आदमी विकसित नहीं हो रहा। आदमी के संबंध में भी जिस दिन चीजें साफ-साफ देखने की हिम्‍मत हम जुटा लेंगे। उस दिन आदमी का विकास निश्‍चित है।

यह थोड़ी बातें मैंने कहीं। मेरी बातों को सोचना। मान लेने की कोई जरूरत नहीं क्‍योंकि हो सकता है कि जो मैं कहूं बिलकुल गलत हो। सोचना, समझना, कोशिश करना। हो सकता है कोई सत्‍य तुम्‍हें दिखाई पड़े। जो सत्‍य तुम्‍हें दिखाई पड़ जायेगा। वही तुम्‍हारे जीवन में प्रकाश का दिया बन जायेगा।

~ ओशो

07/12/2025

आयुर्वेद संभोग को केवल शारीरिक क्रिया नहीं मानता, यह जीवन की ऊर्जा और प्रेम का आदान-प्रदान है। जब दो व्यक्ति रति में एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, तब वहाँ केवल शरीर नहीं, मन और प्राण भी जुड़ते हैं। इसी कारण गृहस्थ आश्रम को धर्म की नींव माना गया है—जहाँ संभोग एक साधना है, मर्यादा है और मनुष्य को संपूर्ण बनाता है।

चरक संहिता बताती है कि संभोग तभी हितकारी है, जब वह प्रकृति के अनुकूल हो। प्रकृति का अर्थ है—समय, आयु, मौसम, शारीरिक बल और मानसिक अवस्था। यह वह विज्ञान है जो बताता है कि सुख की अधिकता भी दुःख का कारण बन सकती है। अतः संयम वही है जो आनंद को स्थायी बनाता है।

उचित समय में किया गया सहवास शरीर के रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्ल—सातों धातुओं को पुष्ट करता है। स्त्री और पुरुष दोनों के चेहरे की आभा बढ़ती है, ओज प्रबल होता है और नींद, भूख तथा पाचन शक्ति संतुलित रहती है। इसके विपरीत, अनियमित और अत्यधिक यौन संबंध शरीर को क्षीण, मन को चंचल और जीवन को अस्थिर बना देते हैं। वीर्य की हानि के साथ ही आत्मविश्वास और स्मरणशक्ति भी प्रभावित होती है, यह आयुर्वेद की महत्वपूर्ण चेतावनी है।

मनोवैज्ञानिक स्तर पर आयुर्वेद कहता है—जहाँ प्रेम है वहाँ आनंद है। जहाँ स्वार्थ है या जबरदस्ती है, वहाँ रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक तनाव, उदासी, क्रोध, उपेक्षा—इन स्थितियों में किया गया संभोग मनोविकारों को जन्म देता है। दाम्पत्य विश्वास, स्पर्श की गरिमा, सहमति और सम्मान की ऊष्मा—ये संभोग को पवित्र और शक्ति देने वाले तत्व हैं। बिना संवाद के संबंध सिर्फ शरीरों की टक्कर रह जाते हैं; संवाद के साथ वही संबंध प्रेम का गीत बन जाते हैं।

ऋतुचक्र के अनुसार सहवास का विज्ञान भी अत्यंत मनोरम है। शीत ऋतु में जब अग्नि प्रबल होती है, तब प्रेम अपनी चरम सीमा तक शारीरिक बल के साथ मिलता है। वसंत ऋतु में संवेदनाएँ प्राकृतिक रूप से प्रबल होती हैं, इसलिए इस समय संबंध अधिक आनंदकारी और स्वस्थ माने जाते हैं। ग्रीष्म में अग्नि कमजोर और शरीर थकान से भरा रहता है—इसलिए संयम आवश्यक है। वर्षा ऋतु में वात बढ़ता है, जिससे शरीर और मन में अस्थिरता आती है—इस समय कोमलता और कम आवृत्ति सर्वोत्तम है।

भोजन और संभोग का संबंध अत्यंत सूक्ष्म है। भारी भोजन के तुरंत बाद सहवास शरीर पर बोझ बनता है—कफ वृद्धि, सुस्ती, उदर-विकार उत्पन्न करता है। हल्के, स्निग्ध, बलवर्धक आहार—जैसे घी, दूध, मेवे, शतावरी, अश्वगंधा—दाम्पत्य ऊर्जा को पोषित करते हैं। स्वच्छता, सुगंध, कोमल वस्त्र, शांत संगीत, मंद प्रकाश—ये सब मन को उस पवित्र क्षण के लिए तैयार करते हैं। आयुर्वेद इसे रति का संस्कार कहता है।

ऋतुमत स्त्री के समय में सहवास वर्जित है। यह धातुशोधन की प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसमें बाधा पहुँचाने से रोग, संक्रमण और गर्भाशय संबंधी विकार उत्पन्न हो सकते हैं। गर्भधारण की इच्छा होने पर समय का चयन और आत्मीयता की शुद्धता बहुत आवश्यक है—क्योंकि उस क्षण में केवल शरीर नहीं, आने वाले जीवन का निर्माण होता है।

संबंधों की मर्यादा और एकनिष्ठता आयुर्वेद का दृढ़ सिद्धांत है। वासनाओं की अनियंत्रित दौड़ मनुष्य को भीतर से दुर्बल कर देती है। व्यभिचार न केवल शरीर को रोग देता है, बल्कि मनुष्य को अपराधबोध और भय का दास बनाता है। गृहस्थ धर्म का सौंदर्य इसी में है कि एक साथी के साथ जीवन को प्रेम और विश्वास में बाँधा जाए। यही निष्ठा ओज की रक्षा करती है और दाम्पत्य के आनंद को दीर्घकालीन बनाती है।

आयुर्वेद यह भी सिखाता है कि संभोग के बाद विश्राम, आलिंगन और मधुर बोल आवश्यक हैं। क्योंकि उस क्षण में मन अत्यंत संवेदनशील होता है। प्रेम से भरे स्पर्श शरीर के तनाव को दूर करते हैं और नींद को गहरी बनाते हैं। शरीर के साथ मन को भी पूर्णता का भाव मिले, तभी संबंध सफल कहा जा सकता है।

इस पूरे विज्ञान का सार यह है कि संभोग—
न तो वर्जना है, न केवल मनोरंजन
बल्कि —
धर्म, स्वास्थ्य, प्रेम और सृजन का सेतु

संभोग में अगर वासना के स्थान पर प्रेम, जल्दबाज़ी के स्थान पर धैर्य और स्वार्थ के स्थान पर सम्मान रख दिया जाए—तो यह मनुष्य जीवन को उस ऊँचाई तक ले जाता है जहाँ शरीर भी संतुष्ट, मन भी शांत और आत्मा भी प्रफुल्ल रहती है।

आयुर्वेद कहता है —
“रति वही, जहाँ स्वास्थ्य और समत्व है।”

06/12/2025

पाद आना शरीर की एक सामान्य क्रिया है, जिसे आयुर्वेद ने केवल असभ्य या अपमानजनक नहीं माना, बल्कि इसे शरीर में वात दोष की सक्रियता और पाचन प्रणाली की स्थिति का प्राकृतिक संकेत माना है। हर व्यक्ति के शरीर में हवा, अग्नि और जल तत्व का संतुलन होता है, और इनका मिलाजुला प्रभाव हमारे पाचन और वात-शरीर की क्रियाओं को नियंत्रित करता है। पाद, यानी गैस का बाहर आना, इसी संतुलन की प्रतिक्रिया होती है।

आयुर्वेद के अनुसार पाद आना शरीर की वायु प्रक्रिया का हिस्सा है। वात दोष शरीर में ऊर्जा और गति का नियंत्रक होता है। जब पाचन में कोई बाधा आती है, या वात दोष असंतुलित होता है, तो आंतों में हवा और गैस का संचय होता है। यह गैस धीरे-धीरे पाद के रूप में बाहर निकलती है। इसलिए, आयुर्वेद पाद को शरीर की प्राकृतिक सफाई प्रक्रिया मानता है।

पाद की मात्रा, गंध और समय आयुर्वेद में स्वास्थ्य का संकेत माना जाता है। हल्का और समय पर पाद आना सामान्य माना जाता है और यह बताता है कि पाचन सही है। अगर गैस अधिक, तीव्र गंध वाली या बार-बार हो रही है, तो यह संकेत है कि शरीर में वात और पित्त दोष असंतुलित हैं। इस स्थिति में आहार, जीवनशैली और जड़ी-बूटियों का ध्यान रखना आवश्यक है।

आयुर्वेद में पाद को नियंत्रित करने के लिए आहार पर विशेष ध्यान दिया गया है। अत्यधिक तैलीय, भारी या अत्यधिक मसालेदार भोजन पाचन को प्रभावित करता है और गैस बढ़ा सकता है। इसके विपरीत, ताजे फल, सब्जियाँ, जड़ी-बूटियाँ और हरी पत्तियाँ पाचन को संतुलित रखती हैं और वात दोष नियंत्रित करती हैं। दालों का उचित मात्रा में सेवन भी गैस को कम करने में सहायक होता है।

व्यायाम और योग पाद नियंत्रित करने में लाभकारी होते हैं। पवनमुक्तासन, भुजंगासन और मार्जरीआसन जैसी योग क्रियाएँ आंतों को सक्रिय करती हैं और गैस को आसानी से बाहर निकलने में मदद करती हैं। हल्की-फुल्की चलना और नियमित व्यायाम पेट में हवा के संचय को कम करते हैं। आयुर्वेद में यह माना गया है कि शरीर की गतिशीलता और व्यायाम पाचन और वात दोष दोनों को संतुलित रखते हैं।

आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ भी पाद कम करने में उपयोगी हैं। हींग, सौंफ, अजवाइन, पुदीना और धनिया जैसी जड़ी-बूटियाँ पाचन को सुधारती हैं और गैस को नियंत्रित करती हैं। इन्हें भोजन के साथ या चाय में मिलाकर लेने से आंतों में हवा कम होती है और पेट हल्का महसूस होता है।

मानसिक स्थिति और तनाव भी पाद आने पर प्रभाव डालते हैं। अत्यधिक चिंता, मानसिक तनाव और नींद की कमी पाचन क्रिया को प्रभावित करती हैं। आयुर्वेद के अनुसार मानसिक संतुलन बनाए रखना पाद को नियंत्रित करने में उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि आहार और व्यायाम। ध्यान, प्राणायाम और योग के नियमित अभ्यास से मानसिक स्थिरता बढ़ती है और पेट में गैस का संचय कम होता है।

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